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१. प्रकृति का अर्थ है-स्वभाव । सामान्य रूप से ग्रहण किए हुए कर्म पुद्गलों
का जो स्वभाव होता है, उसे प्रकृतिबंध कहते हैं ।" आत्मा से सम्बन्ध होने वाले कर्मों में किस कर्म का क्या स्वभाव है ? यह आत्मा के किस गुण को प्रभावित करेगा ? इस प्रकार का निर्धारण होना, प्रकृतिबंध है। प्रत्येक कर्मस्कंध की अपनी-अपनी प्रकृति होती है। जैसे नीम का स्वभाव हैकड़वापन। वैसे ही अर्थ की अवगति न होने देना ज्ञानावरण का स्वभाव है। जीव की प्रवृत्ति द्वारा आकृष्ट एवं कषाय द्वारा आबद्ध समस्त कर्मवर्गणाएं स्वभावतः एकरूप होती हैं और जीव भी इन्हें एक साथ ग्रहण करता है। परन्तु जीव के द्वारा 'गृहीत' होने के बाद ही उनमें भिन्नभिन्न स्वभावों का निर्माण होता है। अतः कुछ कर्मस्कंध ज्ञान और दर्शन
को आवृत्त करते हैं तो कुछ दृष्टि एवं आचरण को मूढ़ बनाते हैं। २. कोन कर्म कितने समय तक आत्मा से सम्बद्ध रहेगा ? किस अवधि के बाद वह अपना फल देगा ? ऐसी व्यवस्था का नाम स्थितिबंध है । आत्मा और कर्मपुद्गलों का एकीभाव निश्चित समयावधि के लिए होता है। उस कालखण्ड के बाद उन्हें अवश्य ही विमुक्त होना पड़ता है। काल की यह निश्चितता स्थिति बंध कहलाती है । "कालावरधारणं स्थितिः" ।" स्थिति बंध कषायों की तीव्रता एवं मन्दता पर आधत है। कर्म करते समय जीव की कषायें जिस वेग से तीव्र होती हैं, अशुभ कर्मों की स्थिति उतनी ही सुदीर्घ होती हैं। जबकि कषाय की मंदता, मंदतर स्थिति वाली होगी तो शुभ कर्मों की स्थिति उतनी ही अधिक होती है । अतः शुभ कर्मों की तीव्रता होने पर अशुभ कर्मों का स्थिति बंध अल्प व अल्पतर होता है। कषाय की अनुदयावस्था में स्थिति बंध नहीं होता, क्योंकि उस समय कर्मों
को संश्लिष्ट करने वाले स्नेह का अभाव हो जाता है। ३. कर्म पुद्गलों में फल प्रदान करने वाली शक्ति विशेष का नाम अनुभाग बंध है। अनुभाग, अनुभव और फल-ये सब एकार्थवाची हैं। अतः कर्मों के विपाक को अनुभाग बंध कहा है । यद्यपि कर्म जड़ है तो भी पथ्य एवं अपथ्य आहार की तरह उनमें जीवों की क्रियाओं के अनुसार फल देने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। यह अवश्य है कि तीव्र परिणामों से बंधे हुए कर्म का विपाक तीव्र, मंद परिणामों से बंधे हुए कर्म का विपाक मंद होता है। कर्ता के परिणाम स्वयं ही कर्म शुभ-अशुभ, मन्दतातीव्रता आदि के नियामक हैं। अतः कार्मण स्कंधों में जीव से संश्लिष्ट होते ही स्वाभाविक रूप से शक्ति का जो आपादन होता है वही अनुभागबंध है। ४. कर्म वर्गणा का आत्म-प्रदेशों के साथ सम्बन्ध होना प्रदेश बंध है। जिस
समय प्रदेश बंध होता है, उसके साथ-साथ ही शेष तीनों बंध हो जाते हैं। कर्मों के दल संचय को प्रदेशबंध कहा है-"दलसंचयः प्रदेश:"।" इस सम्पूर्ण लोक में पुद्गलास्तिकाय की सत्ता है। इनसे रहित कोई स्थान नहीं
बंर २२, बंक ४
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