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का उल्लेख किया है-(१) मिथ्यात्व, (२) अविरति, (३) प्रमाद, (४) कषाय, (५) योग। इन्हें ही आस्रवद्वार कहा जाता है। अर्थात् कर्मों का आगमन इनके द्वारा होता है इसलिए ये आस्रवद्वार कहे गये हैं। समवायांग", स्थानांगरे, प्रज्ञापनासूत्र' में कषायों को कर्मबंध का कारण कहा गया है। वहा पर राग-द्वेष रूप कषाय में क्रमशः माया-लोभ तथा क्रोध-मान का समावेश किया गया है । इस प्रकार कर्मबंध के मूलकारण (हेतु) उक्त पांचों को ही जैनागम में स्वीकार किया गया है। कर्म-बन्ध
"बन्ध" का सामान्य अर्थ है-संश्लेष, अनेक पदार्थों का एकीभाव, आकृष्ट करना, जोड़ना आदि। इस अर्थ के आधार पर कर्मबंध के तीन बिन्दु प्राप्त होते हैं :(१) जीव-बन्ध:-जीव की पर्यायभूत रागादि प्रवृत्तियां, जो उसे संसार के
साथ बांधती हैं। (२) अजीव-बन्ध :--परमाणु ओं में पाए जाने वाले स्निग्ध व रूक्ष स्पर्श आदि
जो परमाणु-स्कन्ध बनाते हैं। (३) उभय-बन्ध :-जीव के प्रदेशों के साथ होने वाला कर्म-परमाणुओं का
सम्बन्ध । उक्त तीनों बिन्दुओं में से जीव और अजीव-इन दोनों के मिश्रित बन्ध के विवेचन से कम-बन्ध की प्रक्रिया स्पष्ट की जा सकेगी। अत: उभय बंध को समझना आवश्यक होगा, इससे ही कर्म परमाणुओं का सम्बन्ध जीव के प्रदेशों के साथ होने को जाना जा सकता है । जैन दर्शन में आत्मा और कर्म का संश्लेष, एकीभाव होना ही बंध कहा गया है। सकामी आत्मा (सकषायी आत्मा) कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है । अर्थात् योग विशेष के निमित्त से सम्पूर्ण कर्म-प्रकृतियां आत्मा के प्रत्येक प्रदेशों पर अवस्थित होती हैं. यही कर्मबंध कहा जाता है। आत्मा और कर्म का जो परस्पर संबंध है, वही बंध है । पूज्यपाद् ने मिथ्यादर्शन आदि के द्वारा आत्मा के योग विशेष से अनन्तानंत पुद्गलों का उपश्लेष होने को बंध कहा है।" कर्म प्रदेशों का आत्मप्रदेशों में एकक्षेत्रावगाह हो जाना बन्ध है ।२८ कर्म पुद्गलों के ग्रहण को बंध कहा गया है ।२९ अर्थात् जीव के द्वारा कर्म पुद्गलों का ग्रहण क्षीर-नीर की भांति जो परस्पर आश्लेष होता है, उसे बंध कहा जाता है। अतः संक्षेप में कहा जा सकता है कि कर्मपुद्गलों का आदान एवं आत्म-प्रदेशों के साथ एकमेक हो जाना बन्ध है।
इसी प्रकार जीव के साथ कर्मबन्ध कैसे होता है ? इसके लिए बन्ध के ४ भेद जैनदर्शन में किए गए हैं :
(१) प्रकृति बंध-कर्मों का स्वभाव । (२) स्थिति बंध--जीव के साथ कर्म के सम्बन्ध की कालावधि । (३) अनुभाग बंध--- कर्मपुद्गलों में फल प्रदान करने वाली शक्ति विशेष । (४) प्रदेश बंध"-कर्मपुद्गलों का परिमाण या मात्रा।
तुमसी प्रक्षा
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