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पञ्चेन्द्रियों को वश में करने वाले, नव ब्रह्मचर्य की गुप्तियों के धारक, क्रोध आदि चार कषायों से मुक्त, अहिंसा आदि पंच महाव्रतों एवं ज्ञानाचार आदि पंचाचारों के पालन में समर्थ, पांच समिति एवं तीन गुप्तियों के धारक आचार्य अपनी श्रुत आदि अष्टसम्पदाओं से श्रमण-संघ की शोभा बढ़ाते हैं।
प्रकृष्टज्ञानी श्रुतगुरु उपाध्याय अज्ञानरूपी अंधकार में भटके हुए सत्त्वों का ज्ञान-प्रदीप-प्रकाश प्रदान करते हैं। उपाध्याय द्वादशांग के अध्येता और ज्ञानदाता होते हैं। वे करण-चरण सप्तति व रत्नत्रय से सम्पन्न तथा आठ प्रकार की प्रभावना को बढ़ाने वाले होते हैं। ऐसे पच्चीस गुणों के धारी उपाध्याय गुरु को आगम में शंख, काम्बोजाश्व, वद्धहस्ती, धौरेय वृषम आदि उपमाओं से विभूषित करते हुए उनके स्वरूप पर विशद प्रकाश डाला गया है ।
अरहन्त के लिए साधु होना परमावश्यक है। साधुत्व ही अर्हत्त्वलाभ पात्रता को प्रगट करता है। साधुत्व धारण करने पर साधक को पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति, पंचेन्द्रियनिग्रह षडावश्यक आदि जिसमें प्रमुख हैं ऐसे सत्ताईस नियमों का निर्दोष पालन करना होता है जो उनके गुणों के नाम से जाने जाते हैं।
साधु के आचरण में सामाचारी, उपकरण, भिक्षाचर्या एवं उसकी कठोर तपश्चर्या का भी विशेष महत्त्व है। वाङमय में साधु को कांस्य-पात्र, शख, कच्छप, स्वर्ण, कमलपत्र आदि इकतीस उपमाएं देकर उसके गुणों एवं स्वरूप को समुचित रूप से स्पष्ट किया गया है।
जैन आचार्य, उपाध्याय एवं साधु के प्रति की गई अर्चा-पूजा एवं वैयावृत्त्य महान फल प्रदान करने वाली होती हैं। इनके प्रति समभाव से की गई भक्ति तीर्थकरत्व की उपलब्धि में मूलहेतु है ।
इस तरह पंच परमेष्ठी का संकीर्तन करने से सत्त्व को मानसिक शुद्धि तो प्राप्त होती ही है साथ ही उसके जीवन में एक विचित्र परिवर्तन भी होता है । सदाचरण के परिणाम स्वरूप उसकी कर्म ग्रंथी भंग हो जाती है जिससे वह भेदविज्ञानी बन जाता है । एकमात्र ज्ञान, केवलज्ञान, सर्वज्ञत्व, अर्हत्त्व की उपलब्धि ही भव्य सत्त्व का उद्देश्य जो है।
१. यो खो आवुसो रागक्खयो दोसक्खयो मोहक्खयो इदं, वुच्चति अरहन्तं । सं०नि० ३.२५२ यो खो आवुसो रागक्खयो दोसक्खयो, इदं वुच्चति निव्वान । वही, ३.२५१
खण्ड १९, अंक ३
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