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समराइच्चकहा में व्यक्ति का महानतम लक्ष्य परमार्थ सिद्धि बताया गया है। इसके लिए दान, शील और तप-ये तीन प्रमुख साधन माने गए हैं । दान देनेवाले तथा दान लेनेवाले के गुण-अगुण का उल्लेख भी यहां मिलता है। इसी कथा प्रसंग में दान के तीन भेद गिनाए गए हैं-ज्ञानदान, अभयदान और धर्मोपग्रह दान । साथ ही स्वर्गलोक एवं नरकलोक में विश्वास प्रकट किया गया है । स्वर्ग एवं नरकलोक का विस्तृत वर्णन मिलता है।
अस्तु, इस कथा प्रसंग को पढ़ने से लगता है कि ग्रंथ की कथावस्तु हमारे बाह्य और आंतरिक जीवन में घटित होनेवाली घटनाओं में समन्वित हैं। गुणसेन की समस्त पर्यायों में भावनाओं का उत्थान-पतन मानव की मूल प्रकृति में व्यस्त मनोवैज्ञानिक संसार को चित्रित करता है। क्रोध, घणा आदि मौलिक आधारभूत वृत्तियों को उनकी रूप व्यक्ति और संस्थिति में रखना आचार्य हरिभद्र की सूक्ष्म संवेदनात्मक पकड़ का परिचायक है। यह कथावृति किसी व्यक्ति विशेष का इतिवृत्त मात्र नहीं है किंतु जीवन चरित्रों की सृष्टि को मानवता की ओर ले जानेवाली है।
इस कथावृति का प्राकृत में वही महत्त्व अंकित किया जाता है जो संस्कृत में बाण की कादम्बरी का । अन्तर यही किया जाता है कि कादम्बरी प्रेमकथा है और यह धर्मकथा । विलास, वैभव, प्रकृति एवं वस्तुओं के भव्य चित्रण दोनों ग्रंथों में प्रायः समान हैं ।
इस प्रकार उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि समराइच्चकहा विविध गुणों से समलंकृत हरिभद्र-ज्ञान-सागर से निःसृत भव्य जीवों के लिए संवेगकर धर्मकथा है।
संदर्भ सूची १. दस० गा० १८८ पृ. २१२ २. समराइच्चकहा, डा. छगनलाल शास्त्री, पृ. ६ ३. वही पृ.४ ४. प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, डा० नेमिचंद्र,
शास्त्री पृ. ४४६ ५. धवलाटीका पुस्तक १ पृ. १०३ ६. समराइच्चकहा, पृ. ३६ ७. वही पृ. ६ ८. वही पृ. ६ ९. वही पृ. ३६ १०. वही पृ. २२ ११. वही पृ. ५०
खंड १९, अंक ३
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