Book Title: Tulsi Prajna 1993 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 80
________________ जैन आगमिक एवं आगम रूप में मान्य अर्धमागधी तथा शौरसेनी ग्रन्थों में भाषिक स्वरूप में परिवर्तन क्यों हुआ? इस प्रश्न का उत्तर अनेक रूपों में दिया जा सकता है । वस्तुत इन ग्रन्थों में हुए भाषिक परिवर्तनों का कोई एक ही कारण नहीं है, अपितु अनेक कारण है, जिन पर हम क्रमशः विचार करेंगे। १. भारत में जहां वैदिक परम्परा ने वेद वचनों को मंत्र मानकर उनके स्वर-व्यंजनों की उच्चारण-योजना को अपरिवर्तनीय बनाये रखने पर अधिक बल दिया, वहां उनके लिये शब्द और ध्वनि ही महत्त्वपूर्ण रहे और अर्थ गौण । आज भी अनेक वेदपाठी ब्राह्मण ऐसे हैं, जो वेद मंत्रों के उच्चारण, लय आदि के प्रति अत्यन्त सतर्क रहते हैं, किंतु वे उनके अर्थों को नहीं जानते हैं । यही कारण है कि वेद शब्द रूप में यथावत् बने रहे । इसके विपरीत जैन परम्परा में यह माना गया कि तीथंकर अर्थ के उपदेष्टा होते हैं उनके वचनों को शब्द रूप तो गणधर आदि के द्वारा दिया है। जैनाचार्यो के लिये कथन का तात्पर्य ही प्रमुख था। उन्होंने कभी भी शब्दों पर बल नहीं दिया । शब्दों में चाहे परिवर्तन हो जाए, लेकिन अर्थों में परिवर्तन नहीं होना चाहिये, यही जैन आचार्यों का प्रमुख लक्ष्य रहा । शब्द रूपों की उनकी इस उपेक्षा के फलस्वरूप ही आगमों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन होते गए: २. आगम साहित्य में जो भाषिक परिवर्तन हुए, उसका दूसरा कारण यह था कि जैन भिक्ष संघ में विभिन्न प्रदेशों के भिक्षुगण सम्मिलित थे। अपनी-अपनी प्रादेशिक बोलियों से प्रभावित होने के कारण उनकी उच्चारण शैली में भी स्वाभाविक भिन्नता रहती, फलतः आगम साहित्य के भाषिक स्वरूप में भिन्न ताएं आ गयीं। ३. तीसरे जैन भिक्षु सामान्यतया भ्रमणशील होने हैं, उनकी भ्रमणशीलता के कारण उनकी बोलियों, भाषाओं पर भी अन्य प्रदेशों की बोलियों का प्रभाव पड़ता है। फलतः आगमों के भाषिक स्वरूप में भी परिवर्तन या मिश्रण हो जाता है। उदाहरण के रूप में जब पूर्व का भिक्षु पश्चिमी प्रदेशों में अधिक बिहार करता है तो उसकी भाषा में पूर्व एवं पश्चिम दोनों ही बोलियों का प्रभाव आ ही जाता है। अतः भाषिक स्वरूप की एकरूपता समाप्त हो जाती है। ४. सामान्यतया बुद्ध वचन बुद्ध-निर्वाण के २००-३०० वर्ष के अन्दर खण्ड ११, अंक ३ २३९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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