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प्राकृत के भाषिक स्वरूप के संबंध में दूसरी कठिनाई यह है कि प्राकृत का मूल आधार क्षेत्रीय बोलियां होने से उसके एक ही काल में विभिन्न रूप रहे हैं । प्राकृत व्याकरण में जो 'बहुलं' शब्द है वह स्वयं इस बात का सूचक है कि चाहे शब्द रूप हो, चाहे धातु रूप हो, या उपसर्ग आदि हो, उनकी बहुविधता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता । एक बार हम मान भी लें कि एक क्षेत्रीय बोली में एक ही रूप रहा होगा, किन्तु चाहे वह शौरसेनी, अर्द्धमागधी या महाराष्ट्री प्राकृत हो, साहित्यिक भाषा के रूप में इनके विकास के मूल में विविध बोलियां रही हैं। अतः भाषिक एकरूपता का प्रयत्न प्राकृत की अपनी मूल प्रकृति की दृष्टि से कितना समीचीन होगा, यह भी एक विचारणीय प्रश्न है।
पुनः चाहे हम एक बार यह मान भी लें कि प्राचीन अर्धमागधी का जो भी साहित्यिक रूप रहा वह बहुविध नहीं था और उसमें व्यंजनों के लोप, उनके स्थान पर 'अ' या 'य' की उपस्थिति अथवा 'न' के स्थान पर 'ण' की प्रवृत्ति नहीं रही होगी और इस आधार पर आचारांग आदि की भाषा का अर्धमागधी स्वरूप स्थिर करने का प्रयत्न उचित भी मान लिया जाये, किन्तु यह भी सत्य है कि जैन-परम्परा में शौरसेनी का आगम तुल्य साहित्य मूलतः अर्धमागधी आगम साहित्य के आधार पर और उससे ही विकसित हुआ, अतः उसमें जो अर्धमागधी या महाराष्ट्री का प्रभाव देखा जाता है, उसे पूर्णतः निकाल देना क्या उचित होगा ? यदि हमने यह दुःसाहस किया भी तो उससे ग्रन्थों के काल-निर्धारण आदि में और उनकी पारस्परिक प्रभावकता को समझने में, आज जो सुगमता है, वह नष्ट हो जायेगी।
___ यही स्थिति महाराष्ट्री प्राकृत की भी है। उसका आधार भी अर्धमागधी और अंशत शौरसेनी आगम रहे हैं, यदि उनके प्रभाव को निकालने का प्रयत्न किया गया तो वह भी उचित नहीं होगा । खेयण्ण का प्राचीन रूप खेत्तन्न है। महाराष्ट्री प्राकृत के ग्रन्थ में एक बार 'खेत्तन्न' रूप प्राप्त होता है तो उसे हम प्राचीन शब्द रूप मानकर रख सकते हैं, किन्तु अर्धमागधी के ग्रन्थ में 'खेत्तन्न' रूप उपलब्ध होते हुए भी महाराष्ट्री रूप 'खेयन्न' बनाये रखना उचित नहीं होगा । जहां तक अर्धमागधी आगम ग्रन्थों का प्रश्न है उन पर परवर्ती काल में जो शौरसेनी या महाराष्ट्री प्राकृतों का प्रभाव आ गया है, उसे दूर करने का प्रयत्न किसी सीमा तक उचित माना जा सकता है, किन्तु इस प्रयत्न में भी निम्न सावधानियां अपेक्षित हैं।
(१) प्रथम तो यह कि यदि मूल हस्तप्रतियों में कहीं भी वह शब्द रूप नहीं मिलता है, तो उस शब्द रूप को किसी भी स्थिति में परिवर्तित न किया जाये । किन्तु प्राचीन अर्धमागधी शब्द रूप जो किसी भी मूल हस्त प्रति में एक-दो स्थानों पर भी उपलब्ध होता है, उसे अन्यत्र परिवर्तित किया जा
खण्ड १९, अंक ३
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