Book Title: Tulsi Prajna 1993 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 88
________________ चाहते हैं ? किसी भी पाश्चात्य संशोधक दृष्टि सम्पन्न विद्वान ने आगमों में कोई भेलसेल किया ? इसका एक भी उदाहरण हो तो हमें बतायें । दुर्भाग्य यह कि शुद्धि के प्रयत्न को भेलसेल का नाम दिया जा रहा है और व्यर्थ में उसकी आलोचना की जा रही है । पुनः जहां तक मेरी जानकारी है डॉ० चन्द्रा ने एक भी ऐसा पाठ नहीं सुझाया है जो आदर्शसम्मत नहीं है। उन्होंने मात्र यही प्रयत्न किया है कि जो भी प्राचीन शब्द रूप किसी भी एक आदर्श प्रति में एक-दो स्थानों पर भी मिल गये उसे आधार मानकर अन्य स्थलों पर भी वही प्राचीन रूप रखने का प्रयास किया है। यदि उन्हें भेल-सेल करना होता तो वे इतने साहस के साथ पूज्य मुनिजनों एवं विद्वानों के विचार जानने के लिये उसे प्रसारित नहीं करते । फिर जब पारखजी स्वयं यह कहते हैं कि कुल ११६ पाठ भेदों में केवल । 'आउसंतेण' को छोड़कर शेष ११५ पाठभेद ऐसे हैं कि जिनसे अर्थ में कोई फर्क नहीं पड़ता तो फिर उन्होंने ऐसा कौन सा अपराध कर दिया जिससे उनके श्रम की मूल्यवत्ता को स्वीकार करने के स्थल पर उसे नकारा जा रहा है आज यदि आचारांग के लगभग ४० से अधिक संस्करण हैं और यह भी सत्य है कि सभी ने आदर्शों के आधार पर ही पाठ छापे हैं तो फिर किसे शुद्ध और किसे अशुद्ध कहें, क्या सभी को समान रूप से शुद्ध मान लिया जायेगा? क्या हम ब्यावर, जैन विश्वभारती, लाडनूं और और महावीर विद्यालय वाले संस्करणों को समान महत्व का समझे । भय मेल-सेल का नहीं है भय यह है कि अधिक प्रामाणिक एवं शुद्ध संस्करण के निकल जाने से पूर्व संस्करणों के सम्पादन में रही कमियां उजागर हो जाने का और यही खीज का मूल कारण है । पुनः क्या श्रद्धेय पारख जी यह बता सकते हैं कि कोई भी ऐसी आदर्श प्रति हैजो पूर्णत: शुद्ध है- जब आदर्शों में भिन्नता और अशुद्धियां हैं तो उन्हें शुद्ध करने के लिये व्याकरण के अतिरिक्त विद्वान् किसका सहारा लेंगे ? क्या आज तक कोई भी आगम ग्रन्थ बिना व्याकरण का सहारा लिये मात्र आदर्श के आधार पर छपा है। प्रत्येक सम्पादक व्याकरण का सहारा लेकर ही आदर्श की अशुद्धि को ठीक करता है । यदि वे स्वयं यह मानते हैं कि आदर्शों में अशुद्धियां स्वाभाविक हैं तो फिर उन्हें शुद्ध किस आधार पर किया जाएगा ? मैं भी यह मानता हूं कि सम्पादन में आदर्श प्रति का आधार आवश्यक है किन्तु न तो मात्र आदर्श से और न मात्र व्याकरण के नियमों से समाधान होता है। उसमें दोनों का सहयोग आवश्यक है । मात्र यही नहीं, अनेक प्रतों को सामने रखकर तुलना करके एवं विवेक से भी पाठ शुद्ध करना होता है। जैसाकि आचार्य श्री तुलसी जी ने मुनि श्री जम्बूविजयजी को अपनी सम्पादन शैली का स्पष्टीकरण करते हुए बताया था। आदरणीय पारखजी एवं उनके द्वारा उद्धत मुनि श्री जम्बूविजयजी खण्ड १९, अंक ३ २४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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