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नमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायणं, णमो लोए सव्व साहूणं: एसो पंचवनमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं ।
यहां हम देखते हैं कि जहां नमो अरिहंताणं में प्रारम्भ में 'न' रखा गया जबकि णमो सिद्धाणं से लेकर शेष चार पदों में आदि का 'न' 'ण' कर दिया गया है । किन्तु ऐसो पंचनमुक्कारो में पुनः 'न' उपस्थित है । हम आदरणीय पारख जी से इस बात में सहमत हो सकते हैं कि भिन्न कालों में भिन्नव्यक्तियों से चर्चा करते हुए प्राकृत भाषा के भिन्न शब्द रूपों का प्रयोग हो सकता है । किन्तु ग्रंथ निर्माण के समय और वह भी एक ही सूत्र या वाक्यांश में दो भिन्न रूपों का प्रयोग तो कभी भी नहीं होगा । पुनःयदि हम यह मानते हैं कि आगम सर्वज्ञ वचन है, तो जब सामान्य व्यक्ति भी ऐसा प्रयोग नहीं करता है, फिर सर्वज्ञ कैसे करेगा ? फिर इस प्रकार की भिन्न रूपता के लिए लेखक नहीं, अपितु प्रतिलिपिकार ही उत्तरदायी होता है । अतः ऐसे पाठों का शुद्धीकरण अनुचित नहीं कहा जा सकता । एक ही सूत्र में 'सुती' और 'सुई', 'नाम' और 'णामं' नियंठ और निग्गंथ, कातं और कार्य - ऐसे दो शब्द रूप नहीं हो सकते । उनका पाठ संशोधन आवश्यक है । यद्यपि इसमें भी यह सावधानी आवश्यक है कि त श्रुति की प्राचीनता के व्यामोह में कहीं सर्वत्र 'य' का 'त' नहीं कर दिया जावे जैसे शुचि - सुई का 'सुती,' निग्गंथ का नितंठ अथवा 'काय' का कातं पाठ महावीर विद्यालय वाले संस्करण में है । हम पारख जी से इस बात में सहमत है कि कोई भी पाठ आदर्श में उपलब्ध हुए बिना नहीं बदला जाय, किन्तु 'आदर्श' में उपलब्ध होने का यह अर्थ नहीं है कि 'सर्वत्र' और सभी आदर्श' उपलब्ध हों / हां, यदि आदर्श या आदर्श के अंश में प्राचीन पाठ मात्र एक दो स्थलों पर ही मिले और उनका प्रतिशत २० से भी कम हो तो वहां उन्हें प्रायः न बदला जाय । किन्तु, यदि उनका प्रतिशत २० से अधिक हो तो उन्हें बदला जा सकता है - शर्त यही हो कि आगम का वह अंश परवर्ती या प्रक्षिप्त न हो-जैसे आचारांग का दूसरा
तस्कन्ध या प्रश्नव्याकरण । किन्तु एक ही सूत्र में यदि इस प्रकार के भिन्न रूप आते हैं तो एक स्थल पर भी प्राचीन रूप मिलने पर अन्यत्र उन्हें परिवर्तित किया जा सकता है ।
पाठ शुद्धिकरण में दूसरी सावधानी यह आवश्यक है कि आगमों में कहीं-कहीं प्रक्षिप्त अंश है अथवा संग्रहणीयों और निर्मुक्तियों की अनेकों गाथाएं भी अवतरित की गयी हैं, ऐसे स्थलों पर पाठ -शुद्धिकरण करते समय प्राचीन रूपों की उपेक्षा करनी होगी और आदर्श में उपलब्ध पाठ को परवर्ती होते हुए भी यथावत् रखना होगा ।
इस तथ्य को हम इस प्रकार भी समझा सकते हैं कि यदि एक
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खण्ड १९, अंक ३
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