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पुस्तक-समीक्षा
१. आचार्य हरिषेण प्रणीत 'धम्म परिक्खा' सं० डॉ. भागचन्द्र जैन 'भास्कर', प्रकाशक-सन्मति रिसर्च इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलोजी, आलोक प्रकाशन, नागपुर, प्रथम संस्करण-१९९०, पृष्ठ ११०+-१६०+१६ मूल्य---नहीं दिया।
धम्म परिक्खा-भारत में विविधानेक संप्रदायों की आपसी वादविवाद-संस्कृति से प्रस्फुटित ग्रंथ है । इसमें पौराणिक धर्म (संप्रदाय) गत परपक्ष का खंडन करके स्वपक्ष स्थापना की कोशिश हुई है । लेखक ने अपने को 'मनोवेग' और अपने मित्र को 'पवनवेग' संज्ञा देकर पर-पक्ष खंडन और स्वपक्ष मण्डन किया है।
कवि ने स्वयं लिखा है--"जा जयरामें आसि विरइय गाह-पबंधि । साहमि धम्म परिक्खा सा पद्धडियाबंधि ।"-कि जयराम ने जिस धर्म परीक्षा को गाथाओं में कहा था, उसे ही मैंने (हरिषेण ने) पद्धडिया छन्द में निबद्ध किया है । हरिषेण ने अपना लेखन-काल सं० १०४४ दिया है। उसके बाद राजा भोज के सभारत्न अमितगति ने अपनी धर्मपरीक्षा सं० १०७० में रची है। इस प्रकार ये तीनों धर्म-परीक्षा-ग्रंथ धारानगरी में विक्रम की ग्यारहवीं सदी में रचे हैं । हमारी समझ में जयराम, हरिषेण और अमितगति एक ही वंश-परम्परा के परिजन हैं । उन्होंने धर्म-परीक्षा की लोकप्रियता के कारण इसे क्रमशः प्राकृत, अपभ्रंश और संस्कृत में लिखा है।
___कवि हरिषेण ने रज्ज्यनी-नरेश जितशत्रु के पुत्र मनोवेग को अपना कथा-नायक बनाया है और उसके अभिन्न मित्र पवनवेग को जैनेतर विचारों का युवक । ये दोनों युवक राज परिवार से संबंधित लगते हैं जो एक जैन मुनि (सिद्धसेन) के कहने से पाटलीपुत्र जाते हैं। वहां (संधि-२ के छठे छंद बंध) 'करे हरिसंजेण वं हणियाणे' और 'तउ भासियं तेहिं रोडेहं पुत्त्तं' के रूप में कवि ने स्वयं ही आत्म-परिचय दे दिया है जो धर्म परीक्षा के अन्त में दी गई निम्न प्रशस्ति से स्पष्ट हो जाता है :
इह मेवाड़देसि जणसंकुलि। सिरि ओज उर निग्गय धक्कड़ कुलि ॥
पावकरिंद कुंभ दारणहरि । जाउ कहिं कुसुलु णामें हरि । खण्ड १९, अंक ३
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