Book Title: Tulsi Prajna 1993 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 100
________________ सं० १५९५ कीनकल माना है। फिर भी और प्रतियों से पाठ-संशोधन की अपेक्षा मानी जानी चाहिए। साथ ही धम्म परिक्खा का संपूर्ण हिन्दी अनुवाद भी आवश्यक है। प्रस्तुत ग्रन्थ में मलयदेश, आभीरदेश, रेवानदी, सौराष्ट्र, मथुरा, अंग, चंपापुरी, चोल द्वीप, साकेत और पाटलीपुत्र के संदर्भ हैं। अतः यह 'कुवलयमाल कहा' की तरह विशिष्ट कृति है। इसका सुसंपादन आवश्यक है । ऐसी महत्त्वपूर्ण कृति को प्रकाश में लाने के लिए डा० भास्कर बधाई के पात्र हैं। -परमेश्वर सोलंकी २. णाणसायर (the occean of knowledge), विद्यासागर पब्लिकेशन्स, बी-५/२६३, यमुना बिहार, दिल्ली-५३ मूल्य-एक प्रति दस रुपये । जून, सन् १९८९ में श्री अशोक जैन एवं कुसुम जैन ने आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज के आशीर्वाद एवं आचार्यश्री विद्यासागर शोध संस्थान, जबलपुर के दिशा-निर्देश पर "णाण सायर" का प्रकाशन शुरू किया था । तब से अब तक उसके नौ अंक निकले हैं । सातवां अंक संभवतः अरिहन्त इंटरनेशनल, २३९, गलीकुंजस, दरीबा, दिल्ली-६ से प्रकाशित हुआ। आठवें अंक में केलादेवी सुमतिप्रसाद ट्रस्ट, दिल्ली द्वारा प्रकाशित 'आरमा का वैभव' भी पाठकों को समुपलब्ध कराया गया और नौवें अंक में "प्रकाशित जैन साहित्य विवरणिका-१" का प्रकाशन किया गया है। संपादक-बन्धुओं ने जिस निष्ठा और आत्म-विश्वास से ये अंक निकाले हैं वह स्तुत्य है। इनमें अनेकों लेख उच्चस्तरीय हैं। आचार्य विद्यासागर उवाच' प्रायः स्थायी स्तंभ है और वह साधारण पाठकों के लिये बहुत रोचक और पठनीय सामग्री प्रस्तुत करता है । पांचवा अंक "णमोकार अंक-१' के रूप में प्रकाशित हुआ है और वह भी बहुत आशाएं जगाता है किन्तु उसके दूसरे अंक नम्बर में क्या छपना है ? यह प्रश्न अनुत्तरित है। ज्ञान सागर में सभी कुछ हो सकता है-इस दृष्टि से देखें तो 'णाणसायर" के ये अंक बहुत उपादेय और संग्रहणीय लगते हैं, किन्तु प्रथम तो ३४ संरक्षक और १६८ आजीवन सदस्य बन जाने पर भी लगता है यह प्रकाशन अपने पैरों पर खड़ा नहीं हुआ। दूसरे उसमें जो बार-बार घोषणाएं की जाती रहीं हैं वे पाठक को उत्साहित नहीं कर पाई। __वस्तुतः यह ज्ञान यज्ञ 'घर फूंक तमाशा देख' बन रहा है । अच्छा हो, प्रबुद्ध जैन समाज उत्साही सम्पादकों के लिये सहयोग के हाथ बढायें और "णाण सायर' में जो सागर से मोती ढूंढ कर लाने की प्रतिज्ञा की गई थी खण्ड १९, अंक ३ २५९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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