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तासु पुत्तु परणारिसहोयरू। गुणगणणिहि कुलगयण दिवायरू ।। गोवड्ढसु णामें उप्पण्णउ । जो सम्मत्तरयण संपुण्णउ ।। तहो गोवड्ढाणसु पियगुणवई । जा जिणवर पय णिच्च वि पणवई ॥ ताए जणिउ हरिसेण णामें सुउ । जो संजाउ विवुहकई विस्सुउ ।। सिरि चित्तड्डु चएवि अचल उर हो। गउ णियकज्जें जिणहरपउर हो । तहि छंदालं करि पसाहिय । धम्म परिक्ख एह तें साहिय ॥
अर्थात् मेवाड़ में चित्तौड़ का मैं निवासी हूं और उजौर से उठा धक्कड़ मेरा वंश है। इस वंश में 'हरि' नाम के कविकोविद थे। उनके पुत्र गोवर्धन मेरे पिता हैं । मेरी माता का नाम गुणवती है और मैंने चित्तौड़ से अचलपुर पहुंच कर धर्म-परीक्षा नामक ग्रन्थ बनाया है।
इस विवरण से श्री हरि और श्री रोड़े के दो परिवारों का परिचय मिलता है जिनके वंश क्रमशः दो पात्र मनोवेग (हरिषेण) और पवनवेग हैं। पवनवेग के पिता संभवत जयराम हैं जो रोड़ कवि नाम से भी प्रसिद्ध रहे होंगे । (उल्लेखनीय है कि राजराण रोड़राउ रचित "राउरवेल" नाम का शिलांकित खण्ड काव्य मिला है जो भाषा की दृष्टि से 'धम्म परिक्खा' की भाषा से मेल खाता है । यह शिलालेख प्रिंस और वेल्स म्यूजियम, बम्बई में सुरक्षित है और धारा (मालवा) से प्राप्त बताया जाता है।) उनके द्वारा रचित "धम्म परिक्खा" गाथाओं में निबद्ध रही होगी। जो अभी तक अनुपलब्ध है । कवि जयराम का उल्लेख नयनंदी ने भी अपने 'सुढेसण चरिउ' में किया है।
डा० भागचन्द्र 'भास्कर' ने पहली बार इस ग्रन्थ का उद्धार किया है और धम्म परिक्खा-परम्परा की १८ कृत्तियों का नमोल्लेख किया है। यह कृति धर्म परीक्षा की दृष्टि से ही लिखी गई है। इसके लेखन से किसी धर्म का अपमान अभिप्रेरित नहीं है । इस बात को स्पष्ट करने के लिए डा. भास्कर ने अमितगति की निम्न पंक्तियां उदघृत की हैं
अहारि कि केशव शंकरादिभिः व्यतारि कि वस्तु जिनेन चार्थिनः । स्तुवे जिनं येन निषिध्य तानहं,
बुधा न कुर्वन्ति निरर्थकां क्रियाम् ॥ कि विष्णु और शिव ने हमारा कुछ लिया नहीं है और जिनेन्द्र भगवान् ने हमें कुछ दिया नहीं है। हमारा निवेदन इतना ही है कि सत्पुरूषों को कुमति वाले मार्ग को छोड़ देना चाहिए; किन्तु इस धर्म परीक्षा के कथ्य में आक्षेप आदि देखे जा सकते हैं।
संपादन में हालांकि बहुत परिश्रम किया गया है किन्तु दोनों हस्तलिखित प्रतियां १९वीं सदी विक्रमी की हैं। दूसरी प्रति को डा. भास्कर ने
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तुलसी प्रज्ञा
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