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तुलसी प्रज्ञा TULSI PRAJNA
Jain Vishva Bharati Institute Research Journal
जैन विश्वभारती संस्थान शोध पत्रिका
Vol. XIX
Number Three
(Oct.-Dec., 1993
जैन विश्वभारती संस्थान Jain Vishva-Bharati Institute Deemed University, Ladnun-341 306
For Private Personal Use Only
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Volume XIX
तुलसी प्रज्ञा
TULSI PRAJNĀ
अनुसंधान - त्रैमासिकी
Research Quarterly
JAIN VISHVA-BHARATI INSTITUTE RESEARCH JOURNAL
Number Three
Jain Vishwa-bharati Institute, (Deemed University), Ladaun-341 306 (Raj.) INDIA
Oct.-Dec., 1993
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संरक्षक डॉ० रामजी सिंह, कुलपति
संपादक-मण्डल डॉ० दशरथ सिंह अहिसा एवं शांति-शोध विभाग डॉ. देवनारायण शर्मा प्राकृत-भाषा एवं साहित्य विभाग डॉ० के० कुमार जीवन विज्ञान एवं प्रेक्षाध्यान विभाग डॉ० राय अश्विनी कुमार जैन विद्या विभाग
संपादक डॉ० परमेश्वर सोलंकी
Patron Dr. Ramjee Singh, Vice-chancellor
Editorial Board Dr. Dashrath Singh Deptt. of Non-Violence &
Peace Research Dr. Devanarayan Sharma Deptt. of Prakrit Language and
Litrature Dr. K. Kumar
Deptt. of Jivan Vigyan &
Preksha-Meditation Dr. Rai Ashwini Kumar Depit. of Jainology
Editor Dr. Parmeshwar Solanki
Note : The views expressed and the facts stated in this journal
are those of the writers. It is not necessary that the editors and the Institute agree with them. The decision of the editors about the selection, of manuscripts for publication shall be final:. .
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१. णमोकार मंत्र में 'ण' वर्ण का महत्त्व जयचन्द्र शर्मा
२. जैन दर्शन में पंच परमेष्ठी का स्वरूप जगमहेन्द्रसिंह राणा
अनुक्रमणिका / Contents
३. अभिज्ञानशाकुन्तलम् में 'अभिज्ञान' शब्द गोपाल शर्मा
४. 'अश्रुवीणा' का गीतिकाव्यत्व
राय अश्विनीकुमार : हरिशंकर पाण्डेय
५. जैन दर्शन में मोक्षवाद
साध्वी श्रुतयशा
६. रात्रि भोजन - विरमण व्रत : विभिन्न अवधारणाएं
साध्वी सिद्धप्रज्ञा
७. समराइच्चकहा : एक धर्मकथा सुश्री निर्मला चोरड़िया
८. महाकवि भिक्षु के क्रान्तिकारी आयाम हरिशंकर पाण्डेय
९. विश्वशांति के पुरोधा : आचार्यश्री तुलसी परमेश्वर सोलंकी
१०. जैन आगमों में हुआ भाषिक स्वरूप परिवर्तन
सागरमल जैन
११. जीवन विज्ञान के प्रयोग : मनुष्य का क्रूरतापूर्ण आचरण
बन्द हो सकता है ? समणी स्थितप्रज्ञा
१२. पुस्तक समीक्षा :
धम्म परिक्खा
(i)
(ii) णाणसायर
(iii) शोध- समवेत :
(iv) अनुसंधान
(v) प्राकृत एवं जैन विद्या शोध संदर्भ
14. Non-violent Model of Economic Development
Shiv Prakash Panwar
15. Book Reivew : (i) Concept of Pratikramana
(ii) Sattaka Literature: A Study (iii) Tridosha
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English Section
13. Cultural Relations of India with Tibet and China 163
Narendra Kumar Dash
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लेखक
Contributors १. डॉ० जयचन्द्र शर्मा- निदेशक, संगीत-भारती, संगीत महा
विद्यालय, औद्योगिक क्षेत्र, रानी बाजार,
बीकानेर । २. डॉ० जगमहेन्द्र सिंह राणा -- प्राध्यापक (संस्कृत), राजकीय महाविद्या
लय, महम (रोहतक) हरियाणा । ३. श्री गोपाल शर्मा
प्रवक्ता : संस्कृत, आर्टस्-कॉमर्स कॉलेज,
कपड़वंज (खेड़ा) गुजरात । ४. राम अश्विनी कुमार- आचार्य एवं अध्यक्ष, जैन विद्या विभाग,
जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं । ५. गं० हरिशंकर पांडेय- व्याख्याता, प्राकृत-विभाग, जैन विश्व
भारती संस्थान, लाडनूं । ६. साध्वी श्रुतयशा
शिष्या आचार्यश्री तुलसी ७. साध्वी सिद्धप्रज्ञा-- ८. मुश्री निर्मला चोरड़िया --- शोध-छात्रा, प्राकृत विभाग, जैन विश्व
भारती संस्थान, लाडनूं ९. डॉ परमेश्वर सोलंकी ----- संपादक, तुलसी प्रज्ञा, लाडनूं १०. डॉ. सागरमल जैन -. निदेशक, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध
संस्थान, वाराणसी-५ ११. समणी स्थितप्रज्ञा -- प्रवक्ता, जीवन-विज्ञान विभाग, जैन
विश्व-भारती संस्थान, लाडनूं 12. Dr. Narendra Kumar Dash-Research Scholar, Surashree
Pally, Bolpur (W. B.)-731204 13. Shri Shiv Prakash Panwar-Assistant Professor, Dept. of
Non-Violence & Peace,
JVBI, Ladnun. 14. Dr. Dashrath Singh- Professor & Head, Dept. of
Non-Violence and Peace
____Research, JVBI, Ladaun. 15. Dr. Parmeshwar Solanki- Editor, Tulsi Prajna, Ladnun.
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णमोकार-मंत्र में 'ण'-वर्ण का महत्त्व
- जयचन्द्र शर्मा
जीवन में अनेक प्रकार के प्रश्न व समस्याएं आती रहती हैं, जिनका समाधान हम अपने तरीके से कर लेते हैं पर कुछ प्रश्न व समस्याएं ऐसी होती हैं, जिनका समाधान गहन अध्ययन, चिन्तन अथवा योग्य गुरुओं के द्वारा ही सम्भव हो सकता है। विशेषतः किसी भी धर्म से सम्बन्धित विषय पर कलम उठाना तो उक्त धर्म के विद्वानों का ही कार्य है ।
जहां तक 'नमस्कार-मंत्र के, केवल 'ण-वर्ण' की ध्वनि के महत्व पर प्रकाश डालने का प्रश्न है, वह संगीत के स्वर एवं ध्वनि-विज्ञान से भी सम्बन्धित है । अतः इस विषय पर सांगीतिक दृष्टि से प्रकाश डाला जा रहा है, जो मंत्र-साधकों के लिए लाभप्रद होगा--ऐसी पूर्ण आशा है।
सभी जानते हैं कि मंत्र में शक्ति होती है। विभिन्न शक्तियों की साधनार्थ विभिन्न प्रकार के मंत्र हैं। पांच पदों वाले णमोकार-मंत्र में भी शक्ति है ! जैन-सम्प्रदाय का यह प्रमुख मंत्र है। इसकी साधना करने वालों का कल्याण होता है--ऐसा विश्वास है। इसीलिए श्रावक की पूर्ण आस्था व श्रद्धा होती है । उस पर किसी प्रकार का संशय व संदेह करने का प्रश्न ही नहीं उठता।
उक्त मंत्र के अर्थ को समझाने के लिए जैनाचार्यों एवं विद्वानों ने अनेक उपयोगी पुस्तकें व ग्रन्थ लिखे हैं, जिनमें मंत्र का अर्थ व साधना के तरीकों पर प्रकाश डाला गया है। ऐसा ही एक ग्रन्थ अमृत-कलण' है। (संपादिकाएं ---साध्वी जिनप्रभा एवं साध्वी स्वर्ण रेखा) । उसे देखने का अवसर प्राप्त हुआ। उक्त ग्रन्थ के पृ० ३ व ४ पर उक्त मंत्र की साधना-विधि पर जिस प्रकार से प्रकाश डाला गया है, वास्तव में वह महत्वपूर्ण तथा उपयोगी होने के साथ-साथ चिन्तन का विषय भी है।
प्रत्येक मंत्र की साधना के लिए उसके शब्दों का सही उच्चारण, जप करने की विधि, उदात्तादि स्वरों के अनुसार उसका पठन, बैठने का आसन, श्वास क्रिया, भावार्थ, प्रभाव आदि का ज्ञान साधकको होना आवश्यक है।
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नमस्कार महामंत्र णमो अरहंताण णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं णमो उवज्झायाणं
णमो लोएसव्वसाहूणं उपर्युक्त मंत्र के प्रत्येक पद के प्रारम्भ और अन्त में 'ण-वर्ण' आया है । अन्तर केवल बिन्दु का है। बिना बिन्दु का 'ण' ध्वनि को गति प्रदान करता है और बिन्दु वाला 'ण' ध्वनि को रोकता है।
मंत्र के अन्तर्गत पांच बिना बिन्दु वाले और पांच बिन्दु वाले कुल दस 'ण' हैं । 'ण' के स्थान पर न का प्रयोग किया जा सकता था पर जैनाचार्यों व विद्वानों ने 'ण-वर्ण' की ध्वनि को प्रधानता दी है, इसके पीछे कोई न कोई गूढ़ रहस्य होना चाहिए ।
हमारे देश के मनीषियों तथा योगियों ने 'नाद' से उत्पन्न होने वाली ध्वनि को 'ब्रह्म' की संज्ञा दी है। 'शब्द-ब्रह्म' की साधना करने वाले साधकों के ज्ञान व अनुभवों का लाभ उठाने वाले श्रावक 'शब्द-ब्रह्म' की शक्ति के गूढ़ रहस्य को समझें या न समझे पर उनके द्वारा बताये गए मार्ग पर कदम बढ़ाते हुए हजारों वर्षों से चले आ रहे हैं और चलते रहेंगे।
बोल-चाल अथवा कई पुस्तकों में 'ण' के स्थान पर न' लिखा हुआ मिलता है पर मंत्रोच्चारण के अवसर पर साधकगण 'ण' व्यञ्जन का ही प्रयोग करते हैं।
इन दोनों व्यञ्जनों (ण और न) के अर्थ शब्दानुसार, भावानुसार, विषयानुसार पृथक-पृथक हैं । 'न' के नमन, नमस्कार, नमो नारायण आदि अर्थ होते हैं वहां-ना, नहीं, निष्क्रीय निट्ठलू, नमक-हराम जैसे शब्दों व भावों की जानकारी भी मिलती है, जबकि 'हिन्दी शल्द कोष' में 'ण' प्रथम आया हो ऐसा शब्द नहीं मिलता है अतः यह केवल ध्वनि प्रधान व्यंजन
वर्तमान में सांगीतिक दष्टि से 'न-वर्ण' का महत्व अधिक है। गायक जब रागालाप करता है तो-ता नूम, तननन का उच्चारण करता है। तराना-गायन-शैली में 'न' का प्रयोग विशेष तौर पर किया जाता है। तबला व पखावज के बोलों की रचनाएं 'न' पर आधारित मिलेगी तथा कत्थकनृत्य की रचनाओं में भी 'न-वर्ण' का खुल कर प्रयोग किया जाता है । संगीत कला के अन्तर्गत आने वाली तीनों विधाओं (गायन, वादन, नर्तन) में 'ण' का प्रयोग पखावज, तबला और नृत्य की कुछ रचनाओं में देखने को मिलता है, जब कि संगीत के प्राचीन ग्रन्थों का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि
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उस युग में अनिवद्ध - गान करते समय 'ण' का प्रयोग किया जाता था । सन् १९४१ में एक महात्मा गुणिजनपुरी ( प्रज्ञा चक्षु) द्वारा राग स्वरूप प्रकट करते समय ऐसा गान लेखक ने सुना था जो अत्यन्त प्रभावशाली तथा वैदिक संगीत शैली के अनुरूप लगता था । ऐसी ओजपूर्ण व मधुर ध्वनि प्राणी मात्र को प्रभावित व तरंगित करने वाली थी ।
योगियों ने मानव शरीर को बीणा की संज्ञा दी है । वीणा के मुख्य तीन तारों की भांति मानव शरीर में तीन नाड़िया ( इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना ) हैं। आयुर्वेदाचार्यों के मतानुसार ये नाड़ियां वात, पित्त, कफ इन त्रिदोषों से सम्बन्धित हैं । संगीत के स्वर भी त्रिदोषों से संबंधित हैं । बाईस श्रुतियों पर स्थापित सप्त स्वरों को तीन श्रेणी में विभाजित किया गया है । चार श्रुति वाले शब्द सा म, प तीन श्रुति वाले स्वर रे, ध और दो श्रुति वाले स्वर ग और नि । सामवेद में उदात्तादि स्वर भेद का जो उल्लेख किया गया है वे स्वर, ये ही हैं ।
वीणा के तारों पर जब मिजराव से आघात करते हैं तो तारों की कहा जाता है । यहां
विद्वानों का मत है कि अक्षर की ध्वनि का
।
कार होती है । इस भंकार को झणणण या झननन 'न' और 'ण' दो व्यञ्जनों का प्रयोग किया गया है 'ण' के स्थान पर 'न' का प्रयोग करने पर भी उक्त उद्देश्य पूरा हो जाता है ।
हिन्दी वर्णमाला के कुछ शब्दों में 'ण' के स्थान पर 'न' का प्रयोग अखरता नहीं है पर जिन शब्दों में 'ण' की ध्वनि का महत्व है वहां 'ण' को उच्चारण करना ही होगा तभी सम्बन्धित शब्द का सही स्वरूप स्पष्ट होगा क्योंकि 'न' दन्ति व्यञ्जन है और 'ण' टक्कर से उत्पन्न होता है । 'न' की ध्वनि सूक्ष्म है और 'ण' बृहद् ध्वनि वाला अक्षर है ।
णमोकार मंत्र, में 'नमो' के उच्चारण से ध्वनि उत्पन्न होती है वह स्वरमय एवं 'न' व्यंजन से बृहद् होने से साधक के शरीर की हृदय तंत्री को अधिक समय तक तरंगित करती है। इससे मंत्रोच्चारण करने वाले साधक का ध्यान इधर-उधर नहीं होकर अपने लक्ष्य की ओर निश्चित गति से अग्रसर होता हुआ सफलता प्राप्त करता है ।
मंत्र के प्रारम्भ में 'नमो' शब्द के 'ण' की ध्वनि गतिमान होती हुई शरीर के रोम-रोम को झंकृत कर देती है और अन्तिम 'णं' उक्त ध्वनि को रोकता है | रोकने का कार्य बिन्दु के कारण होता है। मंत्र के पांचों पदों का क्रम इसी प्रकार चलता है । अगर 'नमो' के स्थान पर नमो और अन्तिम ताणं के स्थान पर तानं के रूप में उच्चारण किया जाए तो अजीब सा लगता
है ।
'नमो' शब्द का जब मुख वीणा द्वारा उच्चारण करें तो श्वास क्रिया
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का किस प्रकार उपयोग किया जाय की जानकारी 'अमृत कलश-१' में देखें । प्रत्येक मंत्र का जाप स्वरमय, लययुक्त तथा श्वास-क्रिया के आधार पर किया जावे तो उसका फल शीघ्र होता है। 'ण' व्यञ्जन की ध्वनि 'न' से अधिक वजनदार व प्रभावी है जो शरीर-वीणा के समस्त स्नायुओं को तरंगित करती हुई एक प्रकार का विशिष्ठ आनन्द प्रदान करती है। इस प्रकार हम अनुभव करते हैं कि संगीतकला की दृष्टि से 'न' व्यञ्जन से 'ण' व्यञ्जन अधिक महत्वपूर्ण व प्रभावशाली है।
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जैन दर्शन में पंच परमेष्ठी का स्वरूप
- जग महेन्द्रसिंह राणा
आत्मा को आच्छादित करने वाले अष्टकर्मों में प्रबल एवं गुणघातक मोह ही सर्वप्रधान है। इसका प्रहाण करने के लिए ही जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी-अपहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं सर्व साधु के स्वरूप का स्मरण, चिन्तन एवं मनन करने पर अधिक बल दिया गया है। परमेष्ठी की शरण में जाने से, उनकी स्मृति एवं चिन्तन से रागद्वेष-प्रवृत्ति अवरुद्ध हो जाती है, पुरुषार्थ की वृद्धि होने लगती है और आत्मा में रत्नत्रयगुण-सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र आविर्भूत हो जाते हैं ।
परमेष्ठी की अर्चना-भक्ति किसी अन्य परमात्मा अथवा शक्ति विशेष की आराधना नहीं है, प्रत्युत् वह अपनी आत्मा की ही उपासना करना है । ज्ञानदर्शन में अखंड चैतन्य आत्मा के स्वरूप का अनुभव कर अपने अखंड साधक स्वभाव की उपलब्धि ही भव्य सत्य का परम लक्ष्य है।
परमेष्ठी के स्मरण एवं स्तवन में इतनी बड़ी शक्ति है कि इसके साक्षात्कार होते ही सम्यक्त्व और केवलज्ञान सहज ही उत्पन्न हो जाते हैं । निश्चयनय की अपेक्षा सम्यक्त्व और कैवल्य आत्मा में सदैव विद्यमान रहते हैं कारण कि ये आत्मा के स्वभाव हैं। परमेष्ठी उससे भिन्न नहीं हैं, स्वयं आत्मस्वरूप हैं। इस तरह आत्म कल्याण अथवा स्वयं परमेष्ठी बनने में स्वयमेव उपादान और निमित्त कारण हैं। विशद एवं विशुद्ध आत्मा परमात्मा, परमज्योति ही परमेष्ठी हैं ।
जैन दर्शन में अरहन्त की कल्पना प्राक्-वैदिक है। भव्य-जीव किसी जन्म में तीर्थंकर बनने का प्रणिधान करता है और वही साधना के चरमोत्कर्ष पर पहुंच कर भविष्य में अरहन्त तीर्थंकर बन जाता है। जिन, केवली और सर्वज्ञ भी यही कहलाता है।
बौद्ध दर्शन में भी अरहन्त का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यहां अर्हत्व और निर्वाण में कोई भेद नहीं है।' बौद्धों के अनुसार रागद्वेष एवं मोह मादि के क्षीण हो जाने पर अर्हत्व की उपलब्धि होती है । अर्हत्वलाभ ही प्राणिमात्र का लक्ष्य है। यह प्रारम्भिक बौद्धानुयायी स्थविरों की मान्यता है किन्तु महायान दर्शन में बोधिसत्व सम्यग्सम्बोधि प्राप्त करने का प्रणिधान करता है
खण्ड १९, अंक ३
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और सम्बोधिलाभ के होते ही वह कृतकृत्य हो जाता है तथा जन्म, जरा और मरणरूप भावचक्र से सदैव के लिए छूट जाता है।
जैन वाङमय में अरहन्त के लिए अरिहन्त, अरह, अरहो, अरुह तथा अरुहन्त आदि शब्दों का प्रयोग भी मिलता है। आत्मकल्याण में निरत भव्य साधक तप-साधना के द्वारा गुणघातक-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय
और अन्त राय इन चार घातिया कर्मों का विप्रणाश करता है और आध्यात्मिक विकास के तेरहवें गुणस्थान में आते ही कैवल्य को धारण करता है। कैवल्य और सर्वज्ञत्व यहां एकार्थक हैं। इसी को योगकेवली भी कहा जाता है।
- वीतरागी तीर्थंकर देव जैनों के अनुसार २४ माने गए हैं जो अनन्तज्ञान-दर्शन-चारित्र एवं वीर्यरूप अनन्तचतुष्टय, अशोक वृक्ष आदि अष्टमहाप्रातिहार्य तथा नौतीस अतिशय । इस प्रकार छियालीस गुणों से सम्पन्न होते हैं । इन्द्रादि देवों के द्वारा इनके पंचकल्याणक महोत्सव मनाए जाते हैं। तीर्थंकर के लिए इन्द्र समवसरण की भी रचना करता है। इस समवसरण में सम्पूर्ण जगत् के चराचर प्राणी अरहन्त तीर्थकर के दिव्यध्वनि रूप सद्धर्मामृत का पान करते हैं।
___अरहन्त केवली के योग का अभाव होते ही अयोगकेवली अवस्था प्रगट हो जाती है। इस निराकार अवस्था को सिद्ध कहा जाता है। सिद्ध अष्टकर्मरूपी ईंधन को जलाकर भस्म करने वाले होते हैं। वे क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक ज्ञान से सम्पन्न परमेष्ठी समस्त पापकर्मों से विरहित होते हैं । ये शिव, अचल, अरुज, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध रूप सिद्ध अनन्तचतुष्टय से ओत-प्रोत रहते हुए लोक के अग्रभाग 'सिद्धशिला' पर स्थित रहते हैं।
ऐसे इन सिद्धों को अरहन्त भी नमन करते हैं। अतः सर्वपूज्य तो सिद्ध होते ही हैं किन्तु भव्य जीवों के लिए मोक्षमार्ग प्रदर्शक होने से अरहन्त को ही प्रधानता दी गई है।
जैन दर्शन की मान्यतानुसार पृथ्वी लोक पर अवसर्पिणी का पंचमकाल दुप्पमा चल रहा है और अरहन्त इससे पूर्व दुष्षमा-सुषमा नामक चतुर्थकाल में ही होते हैं । वर्तमान में अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी का तीर्थकाल चल रहा है और श्रमण संघ ही उनका प्रतिनिधित्व कर रहा है।
जैन श्रमण संघ के अधिपति आचार्य, गुरु उपाध्याय और साधु-ये तीन प्रमुख अंग हैं । साधु हो तप, साधना और ज्ञान में अध्यात्म विकास कर क्रमश: उपाध्याय और आचार्य बनते हैं।
__ आचार्य व उपाध्याय दोनों ही प्रतिष्ठित पद हैं । आचार्य बत्तीस गुणों से और उपाध्याय पच्चीस गुणों से सम्पन्न होते हैं। धर्मगुरु आचार्य वर्तमान में तीर्थकर तुल्य होते हैं। धर्म की मर्यादा बनाए रखना उनका प्रमुख कार्य
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पञ्चेन्द्रियों को वश में करने वाले, नव ब्रह्मचर्य की गुप्तियों के धारक, क्रोध आदि चार कषायों से मुक्त, अहिंसा आदि पंच महाव्रतों एवं ज्ञानाचार आदि पंचाचारों के पालन में समर्थ, पांच समिति एवं तीन गुप्तियों के धारक आचार्य अपनी श्रुत आदि अष्टसम्पदाओं से श्रमण-संघ की शोभा बढ़ाते हैं।
प्रकृष्टज्ञानी श्रुतगुरु उपाध्याय अज्ञानरूपी अंधकार में भटके हुए सत्त्वों का ज्ञान-प्रदीप-प्रकाश प्रदान करते हैं। उपाध्याय द्वादशांग के अध्येता और ज्ञानदाता होते हैं। वे करण-चरण सप्तति व रत्नत्रय से सम्पन्न तथा आठ प्रकार की प्रभावना को बढ़ाने वाले होते हैं। ऐसे पच्चीस गुणों के धारी उपाध्याय गुरु को आगम में शंख, काम्बोजाश्व, वद्धहस्ती, धौरेय वृषम आदि उपमाओं से विभूषित करते हुए उनके स्वरूप पर विशद प्रकाश डाला गया है ।
अरहन्त के लिए साधु होना परमावश्यक है। साधुत्व ही अर्हत्त्वलाभ पात्रता को प्रगट करता है। साधुत्व धारण करने पर साधक को पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति, पंचेन्द्रियनिग्रह षडावश्यक आदि जिसमें प्रमुख हैं ऐसे सत्ताईस नियमों का निर्दोष पालन करना होता है जो उनके गुणों के नाम से जाने जाते हैं।
साधु के आचरण में सामाचारी, उपकरण, भिक्षाचर्या एवं उसकी कठोर तपश्चर्या का भी विशेष महत्त्व है। वाङमय में साधु को कांस्य-पात्र, शख, कच्छप, स्वर्ण, कमलपत्र आदि इकतीस उपमाएं देकर उसके गुणों एवं स्वरूप को समुचित रूप से स्पष्ट किया गया है।
जैन आचार्य, उपाध्याय एवं साधु के प्रति की गई अर्चा-पूजा एवं वैयावृत्त्य महान फल प्रदान करने वाली होती हैं। इनके प्रति समभाव से की गई भक्ति तीर्थकरत्व की उपलब्धि में मूलहेतु है ।
इस तरह पंच परमेष्ठी का संकीर्तन करने से सत्त्व को मानसिक शुद्धि तो प्राप्त होती ही है साथ ही उसके जीवन में एक विचित्र परिवर्तन भी होता है । सदाचरण के परिणाम स्वरूप उसकी कर्म ग्रंथी भंग हो जाती है जिससे वह भेदविज्ञानी बन जाता है । एकमात्र ज्ञान, केवलज्ञान, सर्वज्ञत्व, अर्हत्त्व की उपलब्धि ही भव्य सत्त्व का उद्देश्य जो है।
१. यो खो आवुसो रागक्खयो दोसक्खयो मोहक्खयो इदं, वुच्चति अरहन्तं । सं०नि० ३.२५२ यो खो आवुसो रागक्खयो दोसक्खयो, इदं वुच्चति निव्वान । वही, ३.२५१
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"अभिज्ञान शाकुन्तलम्" में 'अभिज्ञान' शब्द
0 गोपाल शर्मा
"अभिज्ञान शाकुन्तलम्'' (अभि---ज्ञा+ल्युट) का अर्थ शकुन्तलाया: अभिज्ञानम् अर्थात् शकुन्तला की पहचान है। नाटक के अभिधान से सिद्ध होता है कि यह कृति प्रेम-परक नहीं है। कालिदास की दृष्टि में यदि इस कृति का आत्मा प्रेम होता तो, कदापि इस कृति के अभिधान में "अभिज्ञान" शब्द का प्रयोग नहीं करते । इस बात की पुष्टि सानुमती के इस कथन से होती है-अथवेदशोऽनुरागोऽभिज्ञानमपेक्षते । कथमिवैतत् । अर्थात् इस प्रकार के प्रेम को पहचान की आवश्यकता होती है ? यह कैसे ?' यह सच है कि सानुमती दुर्वासा के शाप से बेखबर है। पर, यह भी सच है कि यदि प्रेम में प्रेमी एक-दूसरे को ही भूल जाए तो वह प्रेम कैसा ? ऐसा प्रेम तो शारीरिक प्रेम या भ्रमरवृत्ति वाला प्रेम ही हो सकता है। भ्रमर प्रसंग के द्वारा कवि ने सूचित कर दिया है कि दुष्यन्त का प्रेम भ्रमर-पुष्प के प्रेम का सा है। हंसपदिका के गीत से भी सिद्ध होता है कि दुष्यन्त भ्रमर-वृत्ति का है और स्त्रियों से प्रेम करके अपनी अनुकूलता के अनुरूप उन्हें भूल जाने की उसकी आदत है।' भ्रमर कहां याद रखता है कि उसने अकेले में कब किस पूष्प से प्रेम किया, कब किस पुष्प का रसास्वादन किया। जिस तरह खजूर से ऊबे हुए व्यक्ति की इमली खाने की इच्छा होती है, उसी प्रकार राज-प्रासाद के रत्न-रानियों के आस्वाद से ऊबा हुआ दुष्यन्त इमली सी शकुन्तला को पाने के लिए लालायित है। दुष्यन्त के इस स्वभाव से प्रियम्वदा एवं अनसूया भी परिचित है तभी तो वह पूछ बैठती है---"वयस्य बहुवल्लभा राजानः श्रूयन्ते ।" दुष्यन्त स्वयं स्वीकार करता है कि वह शकुन्तला से तहदिल से प्रेम नहीं करता है। और उसकी इस चालाकी का ज्ञान द्वितीय अंक में ही हो जाता है कि वह अन्तःपुर की रानियों से डरता है ! विदूषक शकुन्तला विषयक प्रेम की बातें कहीं राजप्रासाद में जाकर न कह दें, इसीलिए तो वह कहता है कि शकुन्तला के प्रति मुझे अनुराग नहीं है... ... मजाक में कही गई बड़-बड़ को सत्य मत मान लेना।"" दुर्वासा-शाप के वशीभूत होते हुए भी दुष्यन्त की विलासी-वृत्ति तो वहीं की वहीं है कि वह
खण्ड १९, अंक ३
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गर्भा शकुन्तला के सौन्दर्य को देखकर लालायित हो उठा है और उसकी
अन्दर से भरे बर्फ वाले छोड़ सकता है ।" यहां
अयोग्य ( पात्र ) करार वाला डाकू कहा है ।'
दशा उस भौंरे के सदृश हो गई जो प्रभात के समय कुन्द (पुष्प) को न तो भोग सकता है और न ही तक कि शार्ङ्गरख दे तो दुष्यन्त को शकुन्तला के लिए दिया और उसे शकुन्तला का चोरी-चोरी स्पर्श करने शकुन्तला की बात में विश्वास न करने वाले दुष्यन्त को शार्ङ्गरव व्यंग्य में कहता है कि जिसे जन्म से लेकर आज तक दुष्टता नहीं सिखाई गई, उस ( शकुन्तला ) का वचन प्रमाण रहित है और जो विद्या मानकर दूसरे को धोखा देने का अध्ययन करते हैं वे सत्यवादी हो सकते हैं ।" और दुष्यन्त द्वारा सम्पूर्ण स्त्री जाति पर अविश्वास, प्रत्युत्पन्नमति एवं चालाकी के आरोप लगाने पर स्वयं शकुन्तला क्रोध से भर उठती है- " मैं यहां बहुत स्वच्छन्दचारी (आवारा) बनाई गई हूं, जो पुरु-कुल के विश्वास से इनके, जिनके मुंह में शहद और हृदय में विष है, हाथ में पड़ गई हूं।""
इन उपर्युक्त तथ्यों से सिद्ध होता है कि "अनाघ्रातपुष्पम" शकुन्तला दुष्यन्त को हृदय दे बैठी या यूं कहूं कि एक राजा ने मुग्धा तापस कन्या को अपनी विलासी वृत्ति का भोग बनाया है । और कहने में हम यह कह लें कि कर्त्तव्य से च्युत होने से दुर्वासा के शाप की वजह से दुष्यन्त शकुन्तला को भूल गया है । पर मेरा मानता है कि प्रेम मंगलकारी होता है और यहां तक कि "ढाई अक्खर प्रेम का पढ़े सो पण्डित होय" तो निसर्ग शकुन्तला को ही यह ढाई अक्खर अंगूठी में क्यों ले डूबा ? शकुन्तला की भूल तो सिर्फ इतनी है कि उसने सच्चे दिल से प्रेम किया है और प्रेम करना कोई गुनाह नहीं है । प्रेम तो कुदरत की देन है । शकुन्तला की तो उम्र भी है, पर दुष्यन्त तो परिणीत है, राजा है और कई प्रेम प्रकरणों के दौर से गुजर चुका है। फिर भी कवि ने मुख्यतः दुर्वासा शाप एवं शकुन्तलाप्रत्याख्यान प्रसंग में विदूषक की अनुपस्थिति योजना से दुष्यन्त के चरित्र की रक्षा करने का जरूर प्रयत्न किया है साथ ही इस कृति में ऐसे कई प्रसंग ( उपर्युक्त ) रख दिए हैं जो राजा दुष्यन्त की चरित्रगत दुर्बलताओं को उजागर करते हैं । यदि शकुन्तला को उसके कर्त्तव्य से च्युत होने का शाप मिला है तो कर्तव्य से च्युत तो दुष्यन्त पहले हुआ है कि उसने एक राजा हो करके तपोवन में प्रवेश कर कण्व मुनि की अनुपस्थिति में इस मुग्धा तापस कन्या को अपने प्रेम जाल में फंसाया है । दूसरी दुर्वासा ऋषि इतने ज्ञानी है कि शकुन्तला किसी के विचारों तो उन्हें यह ज्ञान होना भी संभव था कि वह किस व्यक्ति के खोई हुई है ? क्यों खोई हुई है ? तो उस दुष्यन्त को शाप देना चाहिए था कि इस मुग्धा के उसके प्रेम में पड़ने से ही उनका अतिथि सत्कार नहीं हुआ है ।
बात यह है कि
में
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तुलसी प्रज्ञा
की
परन्तु
खोई हुई है
विचारों में
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पर, कालिदास मानते हैं कि निर्दोष ही बेवजह मारे जाते हैं और दुःख के भागी होते हैं । दुष्यन्त का तो क्या ? शाप मिला तो वह शकुन्तला को भूल गया, उसे कोई दुःख नहीं। शाप-मुक्ति हुई तो पुनः उसे शकुन्तला मिल गई। पर सम्पूर्ण नाटक में मूल रूप में दुःख तो निर्दोष कन्या शकुन्तला को ही भोगना पड़ा।
प्रेम का सम्बन्ध हृदय से होता है । हर एक सांस में प्रेम का अहसास हो, वही सच्चा प्रेम है। जहां अंगूठी और रूमाल जैसी भौतिक वस्तुएं प्रेम की पहचान बनते हैं वह प्रेम कदापि प्रेम नहीं हो सकता है। यहां दुष्यन्त को शाप कवच के रूप में पहनाया गया है। नाटक में से शाप को निकाल देने पर प्रेम की जो छवि सामने होगी, वह शारीरिक-आकर्षण से उपजी दुष्यन्त की विलासी वृत्ति की ही होगी। और बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि शाप भी कैसा अजीब ? कि जिसकी वजह से दुष्यन्त शकुन्तला के साथ किए गये सहवास में आरोपित अपने तेज को तो भूल गया, परन्तु अपनी विलासी-वृत्ति को नहीं भूला और उसे स्वयं की ही अंगूठी देख लेने मात्र से शकुन्तला का स्मरण भी हो आया। यहां तक कि सानुमती एवं धनमित्र के प्रसंग में भी दुष्यन्त की प्रेम-निष्ठा परिलक्षित नहीं होती है। शकुन्तला का स्मरण हो आने के बाद भी वह एक प्रेमी के रूप में शकुन्तला के लिए दुःखी नहीं है। उसे तो दुःख सिर्फ इतना है कि राजा होकर के उसने निर्दोष शकुन्तला का त्याग कर दिया । शकुन्तला को भी अन्य रानियों की तरह अन्तःपुर में रखा जा सकता था और उसके कोई संतान न होने की स्थिति में सगर्भा शकुन्तला का त्याग करके, वह संतान-सुख से वंचित रह गया है।१३
अतः कालिदास के ऋतुसंहार, मेघदूत के अतिरिक्त कृतियों में कवि का हृदय एवं मस्तिष्क समतुल्य रहे हैं । परंतु मेघदूत कवि की हृदयाप्लावित कृति है । जो हृदय से निकली आह कविता बनी, वही प्रेम की कविता हुई और वह मेघदूत है, जिसके अक्षर-अक्षर में हृदय की धड़कन है, जहां प्रेम की आग दोनों के दिलों में यौवन पर सुलग रही है । मेरे खयाल में तहदिली मुहब्बत को बयां करने के लिए ही कवि ने मेघदूत की रचना को होगी या यं कहूं कि यह मुहब्बत में पकी हुई कविता एकाएक "मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः...' की तरह कण्ठ से फूटी होगी या "वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान'... वाली कविता रही होगी। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि "अभिज्ञान शाकुन्तलम्' को दुष्यन्त एवं शकुन्तला की प्रणय-कथा वाला नाटक नहीं कहना चाहिए। यह तो कालिदास के राज्याश्रित होकर भी राजा के चरित्र को उजागर करने वाला क्रांतिकारी नाटक है । और इसीलिए कवि ने कृति के अभिधान में सविशेष "अभिज्ञान' शब्द
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का प्रयोग करके दुष्यन्त की प्रेमगत चरित्रिक-दुर्बलता को कहा है। वस्तुतः राजा कभी भी प्रेमी नहीं हुए । राजा सिर्फ राजा ही होते हैं और वे विलासी होते हैं। यदि वे प्रेमी होते तो कभी भी राजा नहीं हुए होते। कालिदास की कृतियों में सच्चा प्रेमी तो मात्र मेघदूत का यक्ष है और प्रेमिकाएं हैंयक्षिणी, शकुन्तला, पार्वती, उर्वशी और मालविका ! सन्दर्भ : १. अभिज्ञानशाकुन्तलम्, सुबोधचंद्र पंत, मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी,
१९७०, अंक-६, पृ. ५८४ २. वही, प्रथम अंक, पृ. १२८-"हला परित्रायथां मामनेन दुविनीतेन
दुष्टमधुकरेणपरिभूममानाम् ।" ३. वही, ५.१ ४. वही, ५.१ ५. वही, द्वितीय अंक, पृ. २६८, "यथा कस्यापि पिण्डखजूरैरुद्ध जितस्य तिन्तिण्यामभिलाषो भवेत् तथा स्त्रीरत्नपरिभाविनो भवत इयमभ्यर्थना ।" ६. वही, तृतीय अंक, पृ. ३५६ ७. वही, पृ. ३०८; २.१८ ८. वही, ५.१९-इदमुपनतमेव रूपमक्लिष्टकान्ति
प्रथमपरिगृहीतं स्यान्न वेति व्यवस्यन । भ्रमर इव विभाते कुन्दमन्तस्तुषारं
न च खलु परिभोक्तुं नैव शक्नोमि हातुम् ॥ ९. वही, ५.२० :
कृताभिमर्शामनुमन्यमानः सुतां त्वया नाम मुनिर्विमान्यः ।
मुष्टं प्रतिग्राह्यता स्वमर्थं पात्रीकृतो दस्युरिवासि येन ।। १०. वही, ५.२५ :
आजन्मनः शाठ्यमशिक्षितो यस्तस्यप्रमाणं वचनं जनस्य ।
परातिसंधानमधीयते यैविद्य ति ते सन्तु किलाप्तवाचः ।। ११. वही, पंचम अंक, पृ. ५०८ :
सुष्ठु तावदत्र स्वच्छन्दचारिणी कृतास्मि ।
याहमस्य पुरूवंशप्रत्ययेन मुखमधोर्ह दयस्थितविषस्य हस्ताभ्याशमुपगता। १२. वही, षष्ठ अंक, पृ. ५८०-६१७ १३. वही, ६.२४-२५
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अश्रवीणा का गीतिकाव्यत्व
Oरायअश्विनी कुमार D हरिशंकर पाण्डेय
'समत्व के सौम्य-सरोवर से निःसृत गांगेय धारा का नाम है-- गीतिकाव्य । विरह, वेदना, भक्ति या श्रद्धा से जब वैयक्तिक स्थिति व्यक्तिगत न रहकर सांसारिक हो जाती है तब कहीं 'ललित-लवंग-लता-परिशीलनकोमल-मलय-शरीरे", रूप गीत-लहरियां लुलित होने लगती हैं। जहां स्वकीयत्व-परकीयत्व का सर्वथा अभाव हो जाता है, जहां 'क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैति', ही शेष रहता है, वही स्थान गीतोदय के लिए उपयुक्त माना जाता है। चाहे विरह-विदग्धा-भागवती गोपियों की गीत-सरणि हो या भक्त कवि जयदेव की मनोमय-स्वर-लहरियां या विरही यक्ष के कारुणिक-उद्गार हों या अश्र वीणा की चन्दना का श्रद्धा-संचार, सबके सब दर्द की आह से ही निःसृत हुए हैं । आशाबल्लरी जब सूखती नजर आती है, सामने से ही उसका जन्म-जन्मान्तरीय काम्य तिरोहित हो जाता है, तब कहीं उस अक्षत-यौवना गीताङ्गना का धरा पर अवतरण होता है । तब रूप राम का स्थान ले लेता है । काम का ग्राम शील का धाम बन जाता है ।
गीति-काव्य का रचयिता भी कोई सामान्य नहीं होता । जिसने हृदयनगर को देख लिया है, जिसके नेत्र हमेशा अपने प्रियतम के दर्शन के लिए लालायित रहते हैं, जो प्रेमी के लिए, आहें भरते-भरते 'हरिमवलोकय सफलय-नयने' को गुजारित कर सम्पूर्ण संसार को हरिमय किंवा आत्ममय बना देता है । उसी की अंगुलियों में गीति-वीणा के तार को झकृत करने की शक्ति होती हैं। जिसने दर्द की आहें नहीं भरी, जहां करुणा के आंसू तरंगायित नहीं हुए, वह जीवन सुख से वंचित ही माना जाएगा।
____ लोक एवं शास्त्र में जो सार्वजनीन विभूति के रूप में अधिष्ठित हो चका है, व्यास की तरह गोपीगीत का, कालिदास की तरह मेघदूत का और जयदेव की तरह गीत गोविन्द की विरचना कर सकता है। विवेच्य गीतिकाव्य 'अश्र वीणा' का कवि भी इसी समरसता के धरातल पर अधिष्ठित है। महाप्रज्ञ के सार्थक अभिधान से विभूषित इस श्रमण कवि ने अवश्य ही अपनी
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कल्पना-नगर के श्रद्धा-गृह में स्थित होकर अपने आराध्य चरणों में आंसुओं को पुष्पांजलियां चढ़ाई होंगी। वे ही अंजलियां बाद में शब्दांजलि बनकर अश्रु वीणा के रूप में अक्षरित दृग्गोचर हुई। चन्दन बाला की मुक्ति का कथानक ग्रहण कर महाकवि महाप्रज्ञ ने अश्र वीणा का निर्माण तो किया, साथ ही अपनी मुक्ति-प्राप्ति की वेदना को भी शब्दायित करने से पीछे नहीं रहे । अस्तु ।
___'गीति-काव्य' अंग्रेजी लिरिक' शब्द का हिन्दी रूपान्तर है । पाश्चात्य काव्य-समीक्षा में अन्तत्तिनिरूपक अथवा स्वानुभूति-अभिव्यंजक काव्य को 'लिरिक' कहा जाता है। यह विधा अन्तर्जगत के नाना-व्यापारों को बाह्याभिव्यक्ति प्रदान करने के लिए उत्कृष्ट एवं सफल साधन है। इसमें वृत्तियां अन्तर्मुख हो जाती हैं और आत्मावस्था का प्रकाशन ही मुख्य होता है । अनुभूति और भावना की अजस्त्र-धारा में वस्तु-तत्त्व न जाने बहकर कहाँ चला जाता है । कवि या कलाकार तूष्णीभाव से प्रकृति के कार्य-कलापों का अवलोकन करता होता है कि अचानककोई घटना घट जाती है जिसके फलस्वरूप उसका अन्तर्मन उद्वेलित हो जाता है और तब जन्म-जन्मान्तरीय संचित भावमाएं शब्दों की सुन्दर-माला के माध्यम से अभिव्यक्ति पा जाती हैं, उसे ही साहित्य-लोक में गीति-काव्य कहा जाता है ।।
___ सुप्रसिद्ध सौन्दर्य-शास्त्री 'जाफ्राय' ने गीतिकाव्य को काव्य का पर्यायार्थक मानते हुए स्वात्मानुभूति एवं आह्लादजन्यता आदि को उसका प्रमुख तत्त्व स्वीकार किया है। हेगेल के अनुसार गीति-काव्य में शुद्ध कलात्मक रूप से आंतरिक-जीवन के रहस्यों, उसकी आशाओं, उसमें तरंगायित आह्लाद, वेदना, प्रलाप या उन्माद का चित्रण होता है। अर्नेस्ट राइस ने हृदयगत भावों की संगीतमय-अभिव्यक्ति को गीति-काव्य माना है। राइस महोदय के अनुसार गीतिकाव्य में अनुभूति, कल्पना और संगीत-तीन तत्त्वों का होना आवश्यक है। कवि के स्वान्तःकरण में स्थित मार्मिक भावों की शाब्दिकअभिव्यक्ति गीतिकाव्य है। जब कवि की स्वात्मानुभूति सुख-दुःख या अन्तबेदना स्वाभाविक स्वर-लहरियों से युक्त होती हैं तब गीतिकाव्य का जन्म होता है । महादेवी वर्मा के अनुसार जब भावावेश अवस्था में स्वात्मगत सुखदुःख की अभिव्यक्ति होती है तो गीतिकाव्य बनता हैं। कभी-कभी वे क्षण आते हैं जब सफल व्यक्तित्व-सम्पन्न पुरुष की, अपने प्रिय को याद कर या उसके प्रति श्रद्धा भक्ति से अथवा अन्य किसी कारण से, आंखें थम जाती हैं । वह कुछ प्रलाप करने लगता है। वह प्रलाप ही गीति-काव्य है । अश्र वीणा का कवि भी अवश्य ही इस अवस्था से गुजरा होगा। 'अश्र वीणा' में ये सभी अभिव्यक्तियां परिलक्षित होती हैं:
१. श्रद्धा की पूर्ण अभिव्यक्ति-उस सोतस्विनी का प्रारम्भ श्रद्धा के
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धरातल से ही होता है । जब किसी प्रेमी या उपास्य के प्रति श्रद्धा की अतिरेकता हो जाती है, श्रद्धा के वशीभूत हो कवि संसार से अलग हटकर तन्मयत्व
स्थिति में चला जाता है, तब वह इतना विगलित होता है कि कभी वह श्रद्धा की परिभाषा देता है तो कभी श्रद्धा को ही सर्वस्व मान बैठता है:
श्रद्धे ! मुग्धान् प्रणयसि शिशून् दुग्धदिग्धास्य दन्तान् भद्रानज्ञान् वचसि निरतांस्तर्कवाणैरदिग्धान् । विज्ञांश्चापि व्यथितमनसस्तर्क लब्धावसादातर्केणामा न खलु विदितस्तेऽनवस्थानहेतुः ॥
ऐसा लगता है जैसे कोई महाकवि संसार को मनोविज्ञान की शिक्षा दे रहा है । यह तथ्य भी है कि सत्य, काव्य में सुन्दर का रूप धारण कर लेता है, जो अपने पूर्व रूप से अधिक रमणीय होता है। श्रद्धा आनन्द की माधवी स्फुरणी है, तो द्वैध - विलय का धाम भी है। वहां सम्पूर्ण विषमताएं मिलकर सरस हो जाती हैं, इसीलिए श्रद्धा का स्वाद सर्वश्रेष्ठ है । जिसने इसको नहीं चखा उसका जन्म ही वृथा है
सत्सम्पर्का दधति न पदं कर्कशा यत्र तर्का:, सर्वद्वैधं व्रजतिविलयं नाम विश्वासभूमी | सर्वे स्वादा: प्रकृतिसुलभा दुर्लभाश्चानुभूताः, श्रद्धा-स्वादो न खलु रसितो हारितं तेन जन्म ।।
श्रद्धा का पात्र कोई सामान्य नहीं हो सकता । गोपियों के श्रद्धा पात्र कृष्ण हैं जो सार्वभौम अधिपति के रूप में स्वीकृत हैं । कालिदास की श्रद्धास्पदा विधाता की आद्या सृष्टि है । युवाचार्य महाप्रज्ञ के श्रद्धापात्र भगवान् महावीर हैं। श्रद्धा का निवास भी महाप्रज्ञ जैसे विरल - साधक में ही होता है - श्रद्धापात्रं भवति विरलस्तेन कश्चित्तपस्वी ॥
२. आत्माभिव्यक्ति -- गीति काव्य का कवि अलग से कुछ नहीं कहता है । अपने जीवन की सुख-दुःख की अनुभूति, अपने विश्वास और उद्देश्य को ही गीत के रसमय स्वरों में अभिव्यक्त करता है । कहा जाता है कि कालिदास विरह की ज्वाला में जले थे । इसलिए उन्होंने यक्ष पर विरह-वेदना आरोपित कर मेघदूत की रचना की । व्यास भक्त थे इसलिए अपनी शब्दाञ्जलियाँ प्रभु श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित कर उन्हीं के हो गए । कवि महाप्रज्ञ भी इसी सरणि में प्रतिष्ठित हैं । इन्होंने भगवान् महावीर के चरणों में व्याप्त अपनी अविच्छिन्न आस्था, श्रद्धा और समर्पण को चन्दना के आँसुओं के माध्यम से व्यक्त किया । कवि बार-बार चन्दना के आंसुओं के व्याज से प्रभु चरणों में अपनी व्यथा-कथा को समर्पित करता दिखाई पड़ रहा । ऐसा लगता है कि विवेच्य कवि संसार के भंझावात से आहत हो चुका है । अनगिनत रथिकों के क्रूरकर्म से उसका हृदय विदीर्ण हो
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चुका है। यही तथ्य आँसुओं से चन्दना कह रही है।
अन्तस्तापो बत भगवते सम्यगावेदनीयो, युष्मद्योगः सुकृत सुलभः संशये किंतु किंचित् । नित्याप्रौढा: प्रकृतितरला मुक्तवाते चरन्तः,
शीतीभूता ह्यपि च पटवः किं क्षमाभाविनोऽत्र ॥
३. समर्पण की भावना-गीतिकाव्य में यह भावना बलवती होती है। उपास्य या प्रेमी के प्रति सब कुछ समर्पित कर दिया जाता है। कर्मअकर्म सब कुछ समर्पित कर जब भक्त तदाकारत्व की स्थिति में आ जाता है तभी गीत का प्रस्फुरण होता है। वहां भौतिक-सम्पदाएं निर्मूल्य हो जाती हैं । अपने हृदय को खोलकर रख दिया जाता है। यही तो उसका वैभव है। चन्दना कहती है--श्रद्धा के आंसू, प्रकृति की कोमलता हृदय का उद्घाटन और आहे-ये नारी के वैभव हैं, इन्हें भी मैं प्रभु-चरणों में समर्पित कर चुकी
श्रद्धाश्रूणि प्रकृतिमृदुता मानसोद्घाटनानि । निःश्वासाश्चाखिलमपि मया स्त्रीधनं विन्ययोजि ॥
ये न केवल नारी-समाज के वैभव हैं बल्कि सम्पूर्ण सचेतन-प्राणियों के एकमात्र अवलम्ब भी हैं। जहां प्रापञ्चिक जगत् उपरत हो जाता है-वहां केवल ये ही शेष रहते हैं जो अपने उपजीव्य-संगति की प्राप्ति में सहायक भी होते हैं।
४. रमणीयता--रमणीयता, परात्परता, रोमांचकता, अधीरता आदि गीतिकाव्य के प्राण तत्त्व हैं । जब तक कवि अधीर नहीं होता उसका धैर्य टूट नहीं जाता तब तक गीतिकाव्य का प्रादुर्भाव कहां? इस अधीरता का एक मात्र कारण अपने प्रियतम की प्राप्ति में व्यवधान ही है। शापवशात् यक्ष प्रियतमा से अलग हुआ। आषाढ़ के प्रथम दिवस में मेघ को देखकर अधीर हो गया। प्रियतमा की यादें उसे सताने लगी। बस इतना ही काफी हैहृदय की समस्त भावनाएं बहि त हो निकलने लगी।१ वैसी शाब्दिक अभिव्यक्ति में रमणीयता, रोमाञ्चकता आदि सहज ही विद्यमान हो जाती हैं। अधीर चन्दनबाला की भी यही अवस्था है-भगवान् भिक्षा लेने के लिए प्रस्तुत थे । चन्दनबाला की आखें उनकी प्रतीक्षा में अधीर हो रही थीं---
भिक्षां लब्धं प्रसृतकरयोः सम्प्रतीक्षापटुभ्यां,
तच्चक्षुभ्यां हसितमियताऽपूर्व हर्षोदयेन ।१२
भगवान् के पुनरागमन से चंदनबाला का ताप, शीतलता और पावनता में बदल गया। सब कुछ रमणीय हो गया क्योंकि उसकी साध पूर्ण हो रही है। उसकी आंखों में अवशिष्ट आंसूओं की बूंदें भिक्षा-विधि में दाता और ग्रहीता का दृश्य देखने के लिए उत्सुक हैं....
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सा संरुद्धा विरलतनवः केवलं बिन्दवस्ते,
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तस्थुभिक्षा ग्रहण - सरणि स्वामिनो द्रष्टुमुत्काः ।
५. पूर्व निरीक्षण -- हर्ष या विषाद जब चरमावस्था पर पहुंच जाते हैं तब व्यक्ति अपने पूर्व जीवन का स्मरण करने लगता है । विरही जीवन के लिए तो पूर्वकृत स्मरण अंधे की लकड़ी के समान होता है । साहित्य की भाषा में इसे पृष्ठावलोकन शैली कहते हैं । यक्ष पूर्वकृत स्मरण कर ही जीवन धारण किए हुए हैं ।
हर्षाधिक्य में भी ऐसी ही स्थिति होती है। दुःख के बाद सुख की प्राप्ति कितनी आनन्ददायक होती है इसका अनुभव युवाचार्य महाप्रज्ञ जैसे सफल सचेतन कवि को ही हो सकता है । 'भक्त नहीं जाते कहीं, आते हैं भगवान्' की उक्ति सफल हुई तो, चन्दनबाला अपने पूर्व जीवन का स्मरण कर दुःख के दिनों को याद कर गदगद हो गयी 'प्रभु आ गए' अब कुछ प्राप्तव्य शेष नहीं रहा । *
६. सुख-दुःख का द्वन्द्व - गीति काव्य में आद्योपांत सुख-दुःख का द्वन्द्व चलता रहता है । ऐसा इसलिए होता है कि कवि के व्यक्तिगत जीवन की अभिव्यक्ति ही गीति काव्य का प्रधान तत्व होता है । कभी सुख और कभी दुःख | यह सृष्टि का सार्वभौम विधान है । इसका काव्य में रसात्मक विनिवेशन ही गीति काव्य का प्राण होता है । यक्ष अपनी प्रियतमा को आश्वासन देने के क्रम में सृष्टि के इस शाश्वत विधान का निरूपण करने लगता है-
जाता है
नन्वात्मानं वहुविगणयन् आत्मनि एवावलम्बे
तत्कल्याणि ! त्वमपि नितरां मा गमः कातरत्वम् ।
कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा, नीचैर्गच्छति उपरिचदशा चक्रनेमिक्रमेण ॥
१५
वह कभी अनिष्ट से इष्ट की प्राप्ति होने पर आनन्द का पात्र बन
--
इष्टे वस्तुन्युपचितरसाः प्रेमराशि भवन्ति ॥
X
X
इष्टेऽनिष्टाद् व्रजति सहसा जायते तत्प्रकर्षो । लब्ध्वाऽर्हन्तं प्रतिनिधिरिवाद्याऽऽबभौ सम्मदानाम् ॥ ७
तो कभी सुख के बाद दुःख की प्राप्ति होने पर मूर्च्छा की भी सामना करनी पड़ती है । वहां केवल आंसू ही जीवनाङ्क होते हैं
वाणी वक्त्रान्न च बहिरगाद् योजितो नापि पाणी, पाञ्चालीवाऽनुभवविकला न क्रियां काचिदार्हत् ।
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सर्वैरङ्गः सपदि युगपन्नीरवं स्तब्धताऽऽप्ता,
वाहोऽश्रूणामविरलमभूत् केवलं जीवनाङ्कः ॥१८
७. आशावाद-गीति-काव्य का कवि पूर्णतया आशावादी होता है । घोर विपत्ति में भी वह आशा-दीपक को थामकर जीवित रहता है, संसार को जीवित रहने की सीख भी देता है । आशा-वादिता की चिरन्तन चिनगारी विरहियों एवं विवद्ग्रस्तों की सहारा होती है और उन्हें अपने गन्तव्य तक पहुंचा देती है। वह चिनगारी स्वयं में प्रदीप्त होती है, बाह्यजगत् में उसका कोई सहारा नहीं होता । मेघदूत का 'नन्वात्मानं वहुविगणयन्' द्रष्टव्य है । अश्रुवीणा की चन्दना जब टूट गयी थी, उसे आश्वासन देने वाला कोई दूसरा न मिला। फिर अपनी कार्य-सिद्धि के लिए उसमें जोश उमड़ा और वह उसके लिए पूर्णतया प्रतिबद्ध हो गयी
मूर्छा प्राप्य क्षणमिह पुनर्लब्धचित्तोदयेव, दिक्षु भ्रान्ता दशसु करुणं साशयं सा निदध्यौ । नाश्वासाय व्यथितहृदया प्राप्तकञ्चिद द्वितीयं,
सद्यः सिद्धय स्फुरित जवनाऽऽमन्न्य वाष्पावुवाच ।।"
८. प्रभु या प्रियतम में चित्त की प्रतिष्ठापना-चित्त की एक संस्थान संस्थापना, गीतिकरण का प्रमुख तत्व होता है। जब तक कवि सर्वात्मना अपने प्रिय के चरणों में प्रतिष्ठित नहीं हो जाता तब तक गीतिकाव्य का प्रादुर्भाव नहीं होता । प्रियतम के साथ अखण्ड-चरण-चञ्चरीकता गीति-काव्य का आधार है। जब इन्द्रिय वृत्तियां संसार से उपरत होकर प्रभुमय बन जाती हैं, तब गीति-काव्य का प्रादुर्भाव होता है। सती-चंदना सर्वात्मना उसी के चरणों में अपने आप को स्थापित कर धन्य हो गयी । तभी तो अश्रुवीणा झंकृत हुई।
९. वेदनापूर्ण सिसकियां--ये गीति-काव्य में उद्भावन में समर्थ होती हैं। सिसकियों में, रूदन में, समस्त वातावरण को झकझोर देने की शक्ति होती है । यक्ष के अरण्य-रूदन से सम्पूर्ण रामगिरि पर्वत रो रहा है । करुणा हो वन देवियां भी आंसूगिरा रही हैं
मामाकाश प्रणिहित भुजं निर्दयाश्लेषहेतोः
मुक्ता स्थूलास्तरुकिसलयेष्वश्रुलेशाः पतन्ति ॥२०
पार्वती का रुदन इतना विस्फारण और विकास को प्राप्त हो चुका है कि सम्पूर्ण जड़-चेतन प्राणी शिव-शिव करने लगे। सब कुछ शिव-मय बन गया
उपात्तवर्णे चरिते पिनाकिनः सवाष्पकण्ठस्खलित: पदैरियम् । अनेकशः किन्नरराजकन्यका वनान्तसङ्गीतसवीररोदयत् ॥२१
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वैसे ही चन्दना की सिसकियों से समस्त आकाश व्याप्त हो गया । महावीर जैसे सर्वस्व त्यागी पुरुष भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहे ।
ध्येयं सम्यक् क्वचिदपि न वा न्यून-सज्जा भवेत, घोषा: पुष्टा बहुलतुमुलास्ते पुरश्चारिण: स्युः । आकर्षे युर्गमन-नियतं ये प्रभोानमत्र, यन् मूकानां न खलु भुवने क्वापि लभ्या प्रतिष्ठा ।२२
१०. आंसू का गीत-अश्रुवीणा आंसू का गीत है । प्राप्तव्य की प्राप्ति का श्रेष्ठ एवं सशक्त माध्यम आंसू हैं। बिना रोए प्रितम मिलता कहां है ? जिसने रोया उसी ने पाया । प्रियतम की शय्या उस टापू में स्थित है, जिसके चारों तरफ आंसूओं का समुद्र लहराता है। पार्वती ने आंसू के इस महासमुद्र को पारकर शिवजी को पाया। पार्वती की शिवध्वनि और अश्रुधारा ने सम्पूर्ण वन-प्रदेश को रुला दिया। यक्ष रोया। उसके रूदन से वन्य-प्रान्त भी रोने लगा। गजेन्द्र, कुन्ती, द्रौपदी, भीष्म, गोपियां आदि सब रोये । सूर, मीरा, तुकाराम, चैतन्य महाप्रभु आंसुओं की धारा पर बैठकर ही प्रभु के घर जा सके।
चन्दनबाला को भी प्रभु कैसे मिलते ? जब तक उसकी निठोली आंखों से मांस की तरंगिनी तरंगातीत नहीं हुई -- प्रभु कहां मिले ?
__ चाहे शकुन्तला-दुष्यन्त मिलन हो या भवभूति की सीता का रामगृह पुनरागमन । सबनेआंसू का ही सहारा लिया । आंसू जीवन के लिए महदुपकारक हैं। जब सब कोई साथ छोड़ देते हैं तब आंसू ही साथ होते हैं । २४ गोपियों की दशा भी कृष्ण के वियोग में कुछ ऐसी ही हो गयी थी---
पादो पंदं न चलतस्तव तब पादमूलात् । यामः कथं व्रजमथो करवाम किं वा ।।२५ आंस ही विपत्काल के मित्र हैंसार्थञ्चैकोऽनुभवति विपद्भारमोक्षश्च युष्माल्लब्ध्वा नान्यो भवति शरणं तत्र यूयं सहायाः ॥५
आंसू अमोघशक्ति सम्पन्न हैं । जिसे संसार की कोई शक्ति नहीं रोक सकती वे भी आंसू की धारा में बह जाते हैं । भक्तिमती चन्दना कहती हैहे आंसू ! जिन्हें कोई रोक नहीं सकता वे भी तुम्हारे लघु-प्रवाह में सहसा डूब जाते हैं । तुम्हारे अन्दर में कोई अद्भुत शक्ति हैं इसे सब जानते हैं
चित्राशक्तिः सकलविदिता हन्त ! युष्मासु भाति, रोद्धं यान्नाक्षमत पृतना नापि कुन्ताग्रमुग्रम् । खातं गर्ता गहनगहनं पर्वतश्चापगाऽपि,
मग्नाः सद्यो वहति विरलं तेऽपि युष्मत्प्रवाहे ।। आंसू हृदय को आर्द्र करते हैं और आर्द्र हृदय के सजीव भाव अनुलङ ध्य
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होते हैं ।
आंसू का हृदय के साथ पूर्ण योग होता है। हृदय ही आंसू के रूप में बहने लगता है । वह बहाव कितना सशक्त होता है उसे महाप्रज्ञ या महावीर जैसे व्यक्ति ही समझ सकते हैं।
११. दूत की कुलीनता एवं उसके सामर्थ्य पर विश्वास-प्रायः सभी गीति-काव्यों में दौत्यकार्य का निरूपण होता है । गीति-काव्य का पात्र विरहवेदना के कारण साधारणीकरण को भूमिका में पहुंचकर चेतनाचेतन विभेद में प्रकृतिकृपण हो जाता है । वहां पशु जगत्, रात्री, मेघ या आंसू आदि से दौत्य कार्य करवाया जाता है । वहां शङ्का का स्थान नहीं होता है । दूत की कुलीनता एवं उसके सामर्थ्य पर पूर्ण विश्वास होता है। महाकवि कालिदास का यक्ष मेघ को दूत बनाता है। उसका मेघ धूम, ज्योति-सलिल-मरुतादि का सन्निपात मात्र नहीं बल्कि वह इन्द्र का प्रधान-पुरुष है, प्राणियों का जीवनदाता है। उसका जन्म श्रेष्ठ पुष्करावर्त कुल में हुआ है। यक्ष को पूर्ण विश्वास है कि उसका दूत उसके सन्देश को उसकी प्रियतमा के पास ले जाएगा तथा प्रिया के कुशल-क्षेम के द्वारा प्रातः कुन्द-प्रसव के समान शिथिल यक्ष-जीवन को भी सहारा देगा ।“ अश्रुवीणा की नायिका अपने आंसू को ही दूत बनाती है । आपत्काल में आंस के अतिरिक्त उसके पास कुछ अवशेष था ही कहां? उसका दूत समर्थ है, पवित्र है । उसको पाकर अकेला व्यक्ति भी विपत्ति के भार से मुक्त हो जाता है । उसमें अद्भुत शक्ति है। वह अपने दूत से कहती है—हे आंसू ! यह ठीक है कि यति-पति पवित्र हैं और पवित्रता में विश्वास करते हैं। तुम भी कम पवित्र नहीं हो। उस प्रभु को विश्वास दिलाना कि हमारा जन्म भी पवित्र स्रोत से हुआ है.----
स्मर्तव्यं तद्यतिपतिरसी पूतभावैकनिष्ठो नेयस्तस्मादृजुतमपथैः पावनोत्स प्रतीतिम् ।। साहाय्यार्थं हृदयमखिलं सार्थमस्तु प्रयाणे,
तस्योदघाटः क्षणमपिचिरं कार्यपाते न चिन्त्यः ।। २१,
कवि दौत्यकार्य मनोविज्ञान की पृष्ठभूमि पर करवाता है। दूत के उच्चकुल का वर्णन कर उसके सामर्थ्य की ओर भी ध्यान आकृष्ट कराया जाता है। हनुमान को उनके सामर्थ्य की याद नहीं दिलायी जाती तो वे अलध्य समुद्र को कैसे लांघ जाते ? कालिदास का यक्ष और महाप्रज्ञ की चन्दनबाला भी इसी पद्धति का आश्रयण करती है।
१२. बिम्बात्मकता---यह गीति-काव्य का प्रमुख वैशिष्ट्य है। कवि वर्णनीय विषय का अपनी कला के द्वारा स्पष्ट चित्र अंकित कर देता है। अश्रुवीणा में बिम्बात्मक-चारूता पद-पद में विद्यमान है । श्रद्धा और तर्क का बिम्ब द्रष्टव्य है----
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अन्धा श्रद्धा स्पृशति च दृशं तर्क एषाऽनता धीः, श्रद्धाकाञ्चिद् भजति मृदुतां कर्कशत्वञ्च तर्कः । श्रद्धा साक्षात् जगति मनुते कल्पितामिष्टमूति, तर्क: साक्षात् प्रियमपिजनं दीक्षते संदिहानः ।।
-~-(द्रष्टव्य 'अश्रुवीणा में बिम्ब योजना) १३. छन्दोजन्य माधुर्य-गीति-काव्य के लिए छंद-बद्धता आवश्यक मानी गयी है । 'चादयति आह्लादयतीति छंद' कर्थात् जो आह्लादित करे, उसे छंद कहते हैं । मधुरिम-छंदों में ही गीति-लताएं लहलहाती हैं। मन्दाक्रान्ता, शिखरिणी, इन्दिरा आदि छन्द गीति-काव्य के लिए उपयुक्त माने गए हैं। विश्ववन्ध कवि कालिदास का मेघदूत मन्दाक्रान्ता छन्द में निबद्ध है। विवेच्य काव्य-ग्रन्थ का छंद भी मन्दाक्रान्ता ही है, जिसका लक्षण इस प्रकार
मन्दाक्रान्ताऽम्बुधिरसनगर्मो भनौ तौ ग युग्मम ।२
अर्थात् जिसके प्रत्येक चरण में मगण, भगण, तगण, नगण और अन्त में दो गुरु वर्ण होते हैं । चार, छः एवं सात वर्णों पर यति होती है । भावों की मञ्जुलता और कल्पना की कमनीयता आदि के लिए मन्दाक्रान्ता को सबसे अधिक उपयुक्त माना जाता है । अश्रुवीणा में भक्ति, श्रद्धा, समर्पण आदि भावों के चित्रण में मन्दाक्रान्ता का सफल प्रयोग हुआ है। उदाहरण द्रष्टव्य है--जिनकी आंखें पवित्र आंसू से प्रक्षालित हो गयी है उन्हीं की अन्तःकरण की सहज वृत्तियां दूसरे को जगा सकती हैं....
चक्षुर्युग्मं भवति सुभगः क्षालितं यस्य वाष्पैः, तस्यैवान्तःकरणसहजा वृत्तयः प्रेरयेयुः । पल्याः कोष्णः श्वसनपवनरश्रुधाराभिषिक्तै
र्धन्येनाऽहो भवजलनिधेर्दुस्तरं वारितीर्णम् ॥
१४. काव्य गुणों का साम्राज्य-काव्य की आत्मा रस है और गुण आत्मभूतरस के उत्कर्षाधायक होते हैं। जैसे शौर्यादि गुण आत्म-शोभासंवर्द्धक होते हैं उसी प्रकार काव्य-गुण रस रूपी आत्मा के विकास में सहायक होते हैं 'उत्कर्ष हेतवस्ते स्यु रचलस्थितयो गुणाः ।" माधुर्य, ओज और प्रसाद तीन गुण प्रमुख हैं । ३५ रसाभिभूत सामाजिकों के चित्त की तीन अवस्थाएं होती हैं - द्रुति, विस्तार और विकास । द्रुति, विस्तार और विकास में क्रमश: माधुर्य, ओज और प्रसाद की स्थिति मानी जाती है।
दुति-शृंगार, करुण और शान्तरस में 'द्रुति' चित्तावस्था को स्वीकार किया गया है। अश्रु वीणा में शान्तरस की प्रधानता है । भक्ति आद्योपान्त कलित है अतएव माधुर्यगुण की छटा स्वतः विद्यमान है। सामने आकर भी चन्दना के हृदयेश लौट गए। उसका आशा-महल ढह गया। वह
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पुत्तलिकावत हो गई। आंसू मात्र से ही उसके जीवन की सूचना मिल रही थी।" आंसू, स्तब्धता, मूर्छा, विषाद, श्रद्धा एवं निर्वेदादि द्रुति के लक्षण हैं । अश्र वीणा में ये सभी विद्यामान हैं।
विस्तार-बीर, रौद्र और बीभत्स रस में विस्तार (ओजगुण) की स्थिति स्वीकृत है .३८ भव्यता, महानता, उदात्तता आदि इसके गुण माने जाते हैं : अश्रु वीणा में यद्यपि रौद्र, बीभत्सादि रसों का सर्वथा अभाव है लेकिन उदात्त, भव्य आदि गुण तो विद्यमान हैं ही। उपास्य के माहात्म्य का ज्ञान, उसकी महनीयता का आभास भक्ति का मूल है, अन्यथा प्रेम जारवत हो जाता है । ऋषि नारद के शब्द प्रामाण्य हैं -तत्रापि न माहात्म्यज्ञानविस्मृत्यपवादः । तद्विहीनं जाराणामिव । अश्र वीणा की नायिका को दैन्यावस्था में भी अपने प्रभु की महनीयता एवं उदात्तता का ज्ञान है। वह आंसू से कहती है हे आंसू ! उस प्रभु को कोई सेना नहीं रोक सकती है। वह सबसे शक्तिमान् है । वह यति-पति पवित्रता में विश्वास करता है। अन्तर्वेदी तथा प्रकरण पटु है । वह पवित्र महर्षि आलोक की आधार-भूमि है। यह प्रसंग चित्त विस्तार में समर्थ है । अतएव भव्य और उदात्त की उपस्थिति होने से यहां ओज गुण की स्थिति मानी जा सकती है ।
विकास-चित्त-विकास प्रसाद गुण का मूल है । आनन्द वर्धन के अनुसार प्रसाद गुण सभी रसों में पाया जाता है-'स प्रसादो गुणोज्ञेयः सर्वसाधारणक्रियः ।" मम्मट ने कहा है कि सूखे इंधन में अग्नि और धुले वस्त्र में स्वच्छ जल के समान जो सहसा चित्त में व्याप्त हो जाए, वह सभी रचनाओं एवं रसों में रहने वाला प्रसाद गुण है ।१२ आचार्य भरत ने स्वच्छता, सहजता, सरलता आदि को प्रसाद-गुण के प्रधान तत्त्व के रूप में स्वीकार किया है । ये तत्त्व चित्त-विकास में सहायक होते हैं। चन्दनबाला की स्वच्छता एवं सहजता तथा महावीर की पवित्रता आदि को सुगंधि अश्र वीणा में सर्वत्र व्याप्त है। स्वच्छता का दृश्य द्रष्टव्य है.----
आलोकाग्रे वसतिममलामाश्रयध्वेऽपि यूयमालोकानामधिकरणभूरेषः पुण्यो महर्षिः ।।
१५. वैदर्भी का सौन्दर्य-गीति-काव्य के लिए वैदर्भी रीति सबसे उपयुक्त मानी जाती है। कालिदास के मेघदूत एवं जयदेव के गीत-गोविन्द में वैदर्भी का एकाधिपत्य है। वैदर्भी में माधुर्गगुण व्यंजकवर्ण, ललित पद एवं अल्प समास या समासाभाव होता है ।४५ अश्र वीणा के प्रत्येक पद्य में वैदर्भी का ललित-सौन्दर्य विद्यमान है । एक उदाहरण द्रष्टव्य है। भक्ति के उद्रेक से चन्दना की स्थिति का वर्णन
भक्त्युद्रेकात् स्मृतिमपि तनुं नाप्यकार्षीत् क्षुधाया, वाञ्छापूत्यै सघनमनसा स्थैर्यमालम्भि तस्याः ।
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सन्देहेनाऽनुपलमुदयं गच्छताऽमूच्छल्था वाक्,
सर्वेसूक्ष्माः परमगुरुताऽभूत् प्रतीक्षा-क्षणानाम् ॥ प्रतीक्षा के क्षण कितने कष्टकर होते हैं । यह सर्वविदित है ।
१६. सूक्ति-सौन्दर्य--अन्य काव्य-विधाओं की अपेक्षा गीति-काव्य में सूक्तियों का अधिक विनियोजन होता है। जब कवि भावना, कल्पना एवं संगीत के माध्यम से आत्माभिव्यंजना में संलग्न हो जाता है तब सूक्तियों का उद्भावन अपने आप होने लगता है। इसके लिए कवि अलग से कोई आयास नहीं करता बल्कि उसका व्यक्तिगत अनुभव ही शब्दों के माध्यम से स्फारणता को प्राप्त करता है । अश्रु वीणा का प्रत्येक पद्य उत्कृष्ट-सूक्ति का निदर्शन है। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं
१. श्रद्धा-स्वादो न खलु रसितो हारितं तेन जन्म ॥४॥
जिसने श्रद्धा का स्वाद नहीं चखा उसका जन्म वृथा है । २. श्रद्धा-पात्रं भवति विरलस्तेन कश्चित्तपस्वी ।।५।।
श्रद्धा का उपयुक्त पात्र कोई विरला साधक ही होता है। ३. भक्त्युद्रेकाद् द्रवति हृदयं द्रावयेत्तन्न कं कम् ।।७।।
भक्ति के उद्रेक से भक्त का हृदय पिघल जाता है और दूसरे के हृदय
को भी आर्द्र कर देता है । ४. आशास्थानं त्वमसि भगवन् ! स्त्री जनानामपूर्वम् ।।१४।। स्त्रियों (अशरण जीवों) के लिए भगवान् ही एकमात्र आशास्थान होते
५. प्रत्यासत्त्या भवति निखिलाऽमीष्टसिद्धेनिमितम ॥१५॥ निकट में की गई महापुरुषों की उपासना इष्टसिद्धि का निमित्त बनती
है, भले वह कसे ही की जाए। ६. अन्त साराः सहजसरसा यच्च पश्यन्ति गूढानन्तर्भावान् सरसमरसं जातु नो वस्तु जातम् ।।१६।।। जो व्यक्ति स्वभाव से सरस तथा आत्मा में ही सारभूत तत्वों का अनुभव करने वाले होते हैं वे दूसरों के गूढ़ अन्तर्भावों को महत्त्व देते हैं । सरस-नीरस बाह्य पदार्थों का उनकी दृष्टि में कोई मूल्य नहीं होता है। 5. इष्टेऽनिष्टाद् व्रजति सहसा जायते तत्प्रकर्षों ।।१७।। जब व्यक्ति अनिष्ट से सहसा इष्ट को प्राप्त करता है तो उसे अपूर्व
हर्ष का अनुभव होता है। ८. कार्यारम्भे फलवति पलं न प्रमादो विधेयः, सिद्धिर्वन्ध्या भवति नियतं यद विधेयश्लथानाम् ।।२७।। कार्यारम्भ में प्रमाद करना ठीक नहीं होता है क्योंकि जो व्यक्ति
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अपने कर्तव्य में जागरूक नहीं होते उन्हें सफलता नहीं मिलती है। ९. यद् दुर्भेद्यप्ति मिरनिचयो नास्ति तादृक् त्रिलोक्याम् ।।२८॥
चाटुकार जैसा कोई दूसरा दुर्भध निविड़ अन्धकार तीन लोक में भी
नहीं होता है। १०. त्राणं यस्मात् भवति न च भूःक्षीणमूलान्वयानाम् ।।३०।।
जिनकी वंश परम्परा विलुप्त हो चुकी है उन्हें पृथ्वी भी त्राण नहीं
दे सकती है। ११. यन मूकानां न खलु भुक्ने क्वापि लभ्या प्रतिष्ठा ।।३१।।
मूक-जनों को संसार में प्रतिष्ठा नहीं मिलती है। १२. कश्चिच्चित्रो भवति भुवने यन्महात्म-प्रभावः ॥३५।।
संसार में महात्माओं का अद्भुत प्रभाव होता है। १३. सोत्साहास्तं परमपरतो योगमाप्त्वा तरन्ति ।।३६।।
उत्साही व्यक्ति दूसरों का पर्याप्त सहयोग पाकर सभी बाधाओं को
पार कर जाते हैं। १४. प्रारब्धव्यो लघुरथ गुरूर्वा विधिः संविमृश्य ।३९॥
कार्य छोटा हो या बड़ा, उसका प्रारम्भ विचार पूर्वक ही होना
चाहिए। १५. यन्नोपेक्ष्या ध्रुवमतिथयः सङ्गमार्थाः प्रबुद्धः ।।४०।।
प्रबुद्ध व्यक्ति मिलने के लिए आए हए अतिथियों की उपेक्षा नहीं
करते। १६. चिन्तापूर्व कृतपरिचया एव सख्यं वहेरन् ॥४१॥
सोच विचार कर मैत्री करने वाले ही उसका निर्वाह कर पाते हैं। १७. नासंभाव्यं किमपि हि भवेद पूतवंशीदयानाम् ।।५।।
पवित्रता में जन्म पाने वालों के लिए कोई कार्य असम्भव नहीं होता
इस प्रकार "अश्रु वीणा" एक श्रेष्ठ गीति-काव्य है ।
सन्दर्भ १. गीत-गोविन्द ३.१ २. शिशुमालवध महाकाव्य ४/१७ ३. इनसाइक्लोपीडिया क्रिटेनिका खण्ड १२, पृ० १८१ ४. तत्रैव खण्ड १२, पृ०१८१ ५. अश्रु वीणा १ ६. तत्रैव ४ ७. मेघदूत २/२१
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८. अश्रु वाणी ५ ९. तत्रैव २९ १०. तत्रैव ४६ ११. मेघदूत १२. अश्र वीणा १८ १३. तत्रैव ६३ . १४. तत्रैव ५६, ५७ १५. मेघदूत-उत्तर० ४६ १६. तत्रैव-उत्तर० ४९ १७. अश्रु वीणा १५ १८. तत्रैव २१ १९. तत्रैव २२ २०. मेघदूत - उत्तर० ४३ २१. कुमार सम्भव ५.५६ २२. अश्र वीणा ३१ २३. उत्तरराम चरित-तृतीय अंक २४. अश्रु वीणा २१ २५. भगवत महापुराण १०/२९/३४ २६. अश्रु वीणा २३ २७. तत्रैव २४ २८. मेघदूत २९. अश्र वीणा २६ ३०. तत्रैव ७३ ३१. तुलसी प्रज्ञा खण्ड १८, अंक १, पृ० ४१-४९ ३२. छन्दोमञ्जरी पृ० ८७ ३३. अथ वीणा ८४ ३४. काव्य प्रकाश ८.८७ ३५, तत्रैव ८.८९ ३६. काव्य प्रकाश पर वामन झल कीकर टीका, पृ० ४७४ ३७. अश्रु वीणा २१ ३८. काव्य प्रकाश, बामन झलकीकर टीका, पृ० ४७४ ३९. नारदभक्तिसूत्र (प्रेमदर्शन) २२,२३ ४०. अश्र वीणा २६-२८ ४१. ध्वन्यालोक २.१० ४२. काव्यप्रकाश ८.७०-७१
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४४.
४३, नाट्यशास्त्र १७.९८ अश्र वीणा २८ ४५. साहित्य दर्पण ९.२ ४६. अश्रु वीणा ८७
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जैन दर्शन में मोक्षवाद
साध्वी श्रुतयशा
भारतीय दर्शन मूल्यपरक दर्शन है । मूल्यों को भारतीय दर्शन में पुरुषार्थ नाम से अभिहित किया जाता है। धर्म, अर्थ काम और मोक्ष-इस पुरुषार्थ चतुष्टयी में प्रथम युग्म साधनमूल्य है और अपर साध्यमूल्य । जिनमें क्रमशः प्रथम लौकिक और द्वितीय लोकोत्तर है । यही कारण है कि भारतीय दर्शन में मोक्ष को सर्वोच्च मूल्य माना गया है। जहां पश्चिमी दार्शनिक, नैतिकता, सामाजिकता या जनकल्याण पर आकर अपनी विचार श्रेणी को विराम देते प्रतीत होते हैं वहां भारतीय मनीषियों को दुःखचक्र का आत्यन्तिक विनाश और भव परम्परा का सर्वथा अभाव करना अभीष्ट है।
समस्त भारतीय दार्शनिक परम्पराएं, चाहे वे नास्तिक हों या आस्तिक, वैदिक हों या अवैदिक, मोक्षविषयक विचार सभी में उपलब्ध होते हैं। इसलिए मोक्ष के विषय में जैन दर्शन की मान्यता प्रस्तुत करने से पूर्व अन्य दार्शनिकों के तद्विषयक विचारों का विहंगावलोकन अपेक्षित प्रतीत होता है। विभिन्न भारतीय दर्शनों में मुक्ति का स्वरूप
आधुनिक समाज का जीवनगत दर्शन है चार्वाक दर्शन । चार्वाक प्रत्यक्ष प्रमाणवादी होने के कारण आत्मा, पुनर्जन्म, कर्म, स्वर्ग नरक, मोक्ष आदि परोक्ष प्रमेयों को नहीं मानता अतः उसके मोक्ष विषयक विचार अत्यल्प मात्रा में ही मीमांसित होते हैं तथापि सर्वदर्शनसंग्रह में उस पर संक्षेप में विचार हुआ है। चार्वाक के अनुसार 'पारतन्त्र्यं बन्धः, स्वातन्त्र्यं मोक्षः।' अर्थात् परतन्त्रता बन्ध और स्वन्त्रता मोक्ष है।
___ न्यायदर्शन के अनुसार आत्मा के सर्वदुःखों का आत्यन्तिक उच्छेद होना ही मोक्ष है । 'तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः । चूंकि सासारिक सुख भी विषानुषक्त मधु के समान दुःख रूप ही है। उसमें सातिशयता, सदृशता, अर्जन, रक्षण आदि में क्लेशवहुलता और दुःखों के साथ अविनाभाव आदि बुराइयां उन्हे दुःख के सामान हेय बना देती है अतः मोक्ष में सुख भी नहीं ! न्याय का ही समानतन्त्र वैशेषिक दर्शन चैतन्य को आत्मा का स्वाभाविक नहीं, किन्तु औपाधिक गुण मानता है । उसके अनुसार बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म खण्ड १९, अंक ३
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और संस्कार ये नौ गुण आत्मा में समवाय सम्बन्ध से रहते हैं। अतः मोक्ष में इनका सद्भाव सम्भव नहीं । उनके अनुसार मोक्ष का अभिप्राय है
'तदभावे संयोगाभावोऽ प्रादुर्भावश्च मोक्षः ।
अर्थात् शरीरधारक मन, कर्म आदि का अभाव होने से शरीर का संयोगाभाव एवं नए शरीर का अनुत्पाद ही मोक्ष है। इसी का वर्णन करते हुए आचार्य मल्लिषेण कहते हैं
तदेवं धीषणादीनां नवानामपि मूलतः गुणाना मात्मनो ध्वंसः सोऽपवर्ग:प्रतिष्ठितः ।। ननु तस्यामवस्थायां कीदशात्मा वशिष्यते । स्वरूपैक प्रतिष्ठानः, परित्यक्तो ऽखिलैर्गुणः ॥
सांख्य और योग दर्शन द्वैतवादी दर्शन हैं। उसके अनुसार सृष्टि के घटक तत्त्व दो हैं- प्रकृति और पुरूष । पुरूष जब प्रकृति को अपना मान लेता है तब उसमें पड़ने वाले सुखदुःखात्मक प्रतिबिम्बों के प्रति उसकी अहं बुद्धि हो जाती है तब प्रकृति उपरत हो जाती है और पूरूष अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित । यही मोक्ष है-'प्रकृतिपुरूषान्यत्व ख्याती प्रकृत्युपरमे पुरूषस्य स्वरूपेणावस्थानं मोक्षः।५ इसी को योग की भाषा में ऐसे कहा जा सकता हैं
__ "पुरूषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तेरिति ।"
अर्थात् पुरूषार्थ शून्य गुणों का पुनः उत्पन्न न होना (सांसरिक सुखदुखों का आत्यन्तिक उच्छेद) और स्वरूप में प्रतिष्ठित होना ही मोक्ष है । इस विवेकख्याति का अधिष्ठान स्वयं प्रकृति है क्योंकि पुरूष तो नित्य शुद्ध,कूटस्थ एवं पुष्करपलाशवत् निर्लेप है। इसीलिए ईश्वर कृष्ण कहते हैं-'संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृति ।'
मीमांसा दर्शन में स्वर्ग की चर्चा जितनी अधिक मात्रा में है मोक्ष उतना ही कम चचित रहा है। फिर भी कुछ वेदवाक्य 'सोऽश्नुते सर्वकामान् सह ब्रह्मणा विपश्चितः । -मोक्षविषयक माने जाते हैं। तदनुसार नित्य, निरतिशय सुखों की अभिव्यक्ति को ही मीमांसा सम्मत मोक्ष का स्वरूप कहा जा सकता है।
'नित्यनिरतिशयसुखाभिव्यक्तिर्मुक्तिः ।,
वेदान्त अद्वैतवादी है अतः उसके अनुसार ब्रह्म ही सत्य है, जगत् मिथ्या है। वस्तुत: न जीव है न कर्म, न बन्ध है न मोक्ष। फिर भी अनादि अविद्या एवं अध्यास के कारण जीव स्वयं को ब्रह्म से भिन्न मानने लगता है अतः इस अज्ञान, अध्यास या भ्रमपूर्ण तादात्म्य का दूर होना ही मोक्ष है। मुक्तावस्था में आत्मा और ब्रह्म का भेद समाप्त हो जाता है। अद्वैत ब्रह्म ही
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प्रतीत होता है।
. बोद्ध दर्शन जैन दर्शन के समान श्रमणदर्शन है। कर्म, पुनर्जन्म और परिनिर्वाण में उसका विश्वास है । क्षणिकवादी होने के नाते वह आत्मा को क्षणिक विज्ञान एवं दुःख हेतु मानता है अत: उसके अनुसार शरीर के समान अात्मा भी उच्छेद्य है। माध्यमिक बौद्धों के अनुसार 'आत्मोच्छेदो मोक्षः" और विज्ञानवादियों के अनुसार 'धमिनिपृन्ती निर्मल ज्ञानोदयो महोदयः ---मोक्ष स्वरूप है ।
मोक्ष के लिए बौद्ध वाङमय में निर्वाण शब्द का अधिक प्रचलन है जिसका अभिप्राय हैं --बुझ जाना, पुनर्जन्म के रास्ते को छोड़ देना, सभी दुःखों के निदानभूत कर्मसंस्कारों से मुक्ति, पांच स्कन्धों एवं तीन अग्नियोंकाम द्वेष और अज्ञान से छुटकारा । मूलतः भगवान् बुद्ध नैतिक समस्याओं के विषय में इतने सजग थे कि संसार की तात्त्विक समस्याओं, बन्ध और निर्वाण के विषय में वे प्रायः मौन रहे।
जैन दर्शन का मोक्षवाद इन सबसे विलक्षण है वह न आत्मा की पूर्ण स्वन्त्रता में विश्वास करता है और न ईश्वर के कर्तत्व में । न एकान्त द्वैतवादी है और न सर्वथा अद्वैत का प्रतिपादन कर जगत को मिथ्याख्यापभास बताता है । उसके अनुसार सारा जगत मुख्यतः दो खेमों में बंटा है- जीव और अजीव । जीव अनादि काल से संसरण कर रहा है और तब तक करता रहेगा जब तक वह कर्म पुदगलों के चंगुल से सर्वथा मुक्त नही हो जाता। जैनदर्शन का जीव स्वभावतः शुद्ध, अनन्त चतुष्टय का स्वामी, अपने कर्मों का कर्ता और भोक्ता है । ऊर्ध्वगमन उसका स्वभाव है । संसारी अवस्था में वह जिस शरीर में रहता है उसका सहविस्तारी बन जाता है। कर्म केवल मानसिक या शारीरिक क्रियाएं नहीं, वस्तुगत सत्ताएं हैं। अत: मुक्तावस्था में भावजगत् और वस्तुजगत् दोनों में परिवर्तन होता है। वह अपने पुरूषार्थ के द्वारा पूर्वकृत कर्मों का निर्जरण एवं भावाश्रवों का संवरण करता हुआ सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, निरन्तराय बन जाता है, जन्म मरण के चक्र से सर्वथा मुक्त हो अपुनर्भवी हो जाता है। मोक्ष का स्वरूप बताते हुए आचार्य उमास्वाति कहते
"कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः।१०
प्रश्न हो सकता है कि जब आत्मा स्वभावतः शुद्ध है तो वह बन्धन में कैसे पड़ता है। जैनदर्शन के अनुसार बन्धन का कारण है मिथ्यादर्शन, मिथ्या ज्ञान और मिथ्या चारित्र । इसके विपरीत सम्यक् श्रद्धान ज्ञान और अचरण ही मोक्ष का मार्ग है----सम्यक् दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः।"
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यह त्रिविध साधनामार्ग एक महान मनोवैज्ञानिक सूझ का परिचायक है क्योंकि मानवीय चेतना के मुख्यतः तीन आयाम (पक्ष) हैं-ज्ञान, भाव और संकल्प । चेतना के भावात्मक पक्ष को सही दिशा में नियोजित करने के लिए सम्यक् दर्शन, ज्ञानात्मक पक्ष के नियोजनार्थ सम्यक ज्ञान और संकल्पात्मक पक्ष के समायोजनार्थ सम्यक् चारित्र का प्रावधान है। इसी को हम बौद्ध दर्शन की भाषा में क्रमशः समाधि, प्रज्ञा और शील१२, गीता के शब्दों में भक्ति, ज्ञान और कर्म अथवा प्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा", हिन्दू परम्परा में परमसत्ता के तीन रूप सत्यं, शिवं, सुन्दरम् और उपनिषद् की भाषा में श्रवण, मनन और निदिध्यासन कह सकते हैं ।
स्पष्ट है कि जैन साधना पद्धति न शंकर के समान एकान्त ज्ञानयोग को स्वीकार करती है और न रामानुज आदि के समान एकान्त भक्तियोग को उसके अनुसार ज्ञानकर्म और भक्ति को समवेत साधना से आत्मा उस मुक्तावस्था को प्राप्त करती है जहां बौद्धों के समान आत्मा का एकान्ततः उच्छेद नहीं होता, केवल उसकी संसारी (अशुद्ध) अवस्था का विनाश होता है। क्योंकि आत्मारूपी धर्मी की निवृत्ति हो जाएगी तो ज्ञान धर्म का अधिकरण कौन होगा ? चेतना के निराधारत्व का प्रसंग आ जाएगा। जैन दर्शन की मुक्ति में न्यायवैशेषिकों की मुक्ति के समान ज्ञान गुण का विनाश भी नहीं होता क्योंकि ज्ञान और आनन्द रहित आत्मा तो पाषाण कल्प हो जाएगी। कौन प्रज्ञावान् वैसी मुक्ति हेतु पुरुषार्थ करेगा ?
सांख्य दर्शन भी बुद्धि का प्रकृति का विकार एवं आनन्द को सत्त्वगुण का विकार मानता है तथा पुरुष को नित्य शुद्ध मुक्त मानता है । त्रिगुणातीत पुरुष में ज्ञान व आनन्द नहीं हो सकता इसलिए जैन दर्शन उससे भी पूर्णतः सहमत नहीं । जैन दर्शन में मोक्ष-सुख का वर्णन करते हुए कहा गया है
जं देवाणं सोक्खं सव्वद्धा पिडियं अणंतगुणं । ___ण य पावइ मुत्ति सुहं गताहिं वग्गवग्गूहिं ।।१४ जैन दर्शन के इस अभिमत की पुष्टि स्मृतियों से भी होती है-
सुखमात्यन्तिकं यत्र बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् । __तं वै मोक्षं विजानीयाद् दुष्प्रापमकृतात्मभिः ॥५
मुक्तात्माएं अपुनर्भवी होती है तीर्थनिकार या धर्म हानि से उनका पुनरवतार होना जैन दर्शन को अभीष्ट नहीं। वे मुक्तावस्था में भी ईश्वर या ब्रह्म में लीन नहीं होती। उनका अस्तित्व स्वतंत्र बना रहता है।
जैन दर्शन के अनुसार मुक्तात्मा अमूर्त, शब्दातीत, तर्कातीत चेतना है । वह वर्णातीत, गंधातीत, स्पर्शातीत, संस्थानातीत, शरीरातीत, लिंगातीत और संगातीत सत्ता है। वह न स्थूल है न सूक्ष्म, न अणु है न क्षुद्र, न विशाल । न द्रव है न ठोस, न तम है, न छाया है, न वायु, आकाश या संग ।
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बृहदारण्यक उपनिषद् के अनुसार शुद्धात्मा अरस, अगंध, अवाक्, अनेत्र, अकर्ण, अमन, अतेज, अप्राण, अमुख, अनन्तर और अबाह्य है।
यहां हम ब्रह्मसूत्र में वणित मुक्तात्मा के स्वरूप से जैन दर्शन के मुक्तात्मा के स्वरूप की तुलना भी कर सकते हैं --...
'इदं तु पारमार्थिक कूटस्थनित्यं, व्योमवत् सर्वव्यापि सर्वक्रिया विरहितं नित्यतृप्त, निरवयवं, स्वयं ज्योतिः स्वभावं यत्र धर्माधमौं सह कार्येण कालत्रयं च नापवर्तते ।१७ वेदान्त के उपर्युक्त स्वरूप से जैन दर्शन 'सर्वव्यापी और निरवयव' को छोड़कर पूर्ण सहमत है। सिद्धों के स्वरूप का वर्णन करते हुए उत्तराध्ययन में कहा गया है--
अरूविणो जीवघणा, नाणदंसणसन्निया ।
अडलं सुहं संपत्ता, उवमा जस्स णत्थि उ ।।१८ अर्थात् सिद्ध अरूपी, सघन (एक-दूसरे से सटे हुए) ज्ञान दर्शन में सदा उपयुक्त, निरूपम, सुख सम्पन्न, संसारसमुद्र से निस्तीर्ण. भवप्रपंचमुक्त और सर्वश्रेष्ठ गति को प्राप्त होते हैं।
यद्यपि मुक्तात्मा का स्वरूप वाणी से अगम्य और वाच्य वाचक भाव से परे हैं अतः उसके स्वरूप वर्णन में नेतिवाद और अज्ञेयवाद का सहारा लिया जाता है१९ फिर भी उसके विधेयात्मक स्वरूप का प्रतिपादन अनेक तथ्यों--पर्यायवाची नाम, प्रकार या भेद, स्थान, गति, अवगाहना आदि के आधार पर किया जा सकता है ! पर्यायवाची नाम
पर्यायवाची नामों के द्वारा भी किसी वस्तु या व्यक्ति के स्वरूप का ज्ञान किया जा सकता है । भगवती सूत्र में मुक्तात्मा के आठ पर्यायवाची नाम उपलब्ध होते हैं--- सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, पारगत, परम्परागत, परिनिवृत्त अंतकृत और सर्वदुःखप्रहाण । १. सिद्ध--जो आत्मसाधना के सिद्धिकाल को प्राप्त है वह सिद्ध कहलाता है। भगवती वृत्ति में इसके अनेक प्रकार के निरुक्त उपलब्ध होते हैं---- १. सितं-बद्धमष्टप्रकारं कर्मेन्धनं ध्मातं-दग्धं, ज्वाजल्यमानशुक्ल
ध्यानानलेन येस्ते निरुक्तविधिना सिद्धाः । २. बिधु-सराद्धौ इति वचनात सिध्यन्ति निष्ठितार्थाभवन्ति स्म । ३. बिधु-गतौ इति वचनात् सेधन्ति स्म अपुनरावृत्या निर्वृत्तिपुरी
मगच्छन् । ४. विधुञ्–शास्त्रे मांगल्ये च इति वचनात् सेधन्ति स्म शासितारोऽभूवन्,
मांगल्यरूपतां चानुभवन्ति स्मेति सिद्धाः । ५. सिद्धा:-नित्या: अपर्यवसानस्थितिकत्वात् प्रख्याता वा भव्य रूपलब्ध
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गुणसंदोहत्वात् । इन्हीं सारे अर्थों का संकलन करते हुए कहा है---
ध्मातं सितं येन पुराणकर्म, यो वा गतो निर्वृत्तिसौधमूनि । .
ख्यातोऽनुशास्ता परिनिष्ठितार्थो, यः सोऽस्तु सिद्धः कृतमंगलो मे ॥" इस दृष्टि से देखा जाये तो चरमशरीरी भी भावी नय की अपेक्षा
सिद्ध हो सकता है पर बुद्ध नहीं। २. बुद्ध-केवलज्ञानेन बोधति स्म इति बुद्धः । जो केवलज्ञान के द्वारा विश्व को जानता है वह बुद्ध होता है। बुद्ध का प्राकृत रूपान्तरण होता है बुज्झ उसका अर्थ है-जो शरीरादि से प्रशान्त होता है। इस प्रकार बुद्ध में चारों घातीकर्मों का अभाव होने पर भी भवोपग्राही कर्म अवशिष्ट रहते हैं। ३. मुक्त-मुचण --मोचने और मुच्लन्ज-मोक्षणे धातुओं से निष्पन्न मुक्त शब्द का अर्थ है--कर्मों से सर्वथा मुक्त। इसमें केवल विदेहमुक्त ही आते हैं क्योंकि उनके भवोपग्राही कर्म भी नहीं होते। ४. पारगत-पारगए त्ति पारगतः संसारसागरस्य भाविनि भूतवदित्युपचारात् । अर्थात् संसारसमुद्र को पार करने वाला पारगत कहलाता है। ५. परम्परागत-पारम्पर्येण गतो भवाम्भोधिपारं प्राप्तः परम्परागतः । अर्थात् जो सम्यक् दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र के क्रम से मोक्ष प्राप्त करता है वह परम्परागत है। ६. परिनिवृत्त-स्पन्दनरहित को परिनिवृत्त कहते हैं। जैसे-जैसे कर्मक्षीण होते हैं, शीतलता-----अनुद्वेग की प्राप्ति होती है। ७. अन्तकृत्-अन्तं करोति स्म भवोपग्राहिकर्मणाम् । भवोपग्राही कर्मोंवेदनीय, आयुष्य, नाम और गौत्र का क्षय करने के कारण सिद्ध अन्तकृत कहलाते हैं। ८. सर्वदुःखप्रहीण-भव के अन्त में सारे दुःखों को क्षीण करने के कारण सिद्ध सर्वदुःखप्रहीण कहलाते हैं । १२
___औपपातिक सूत्र में मुक्तात्मा के लिए आठ विशेषण आए हैं-सिद्ध, बुद्ध, पारगत, परम्परागत, उन्मुक्तकर्मकवच, अजर, अमर और असंग ।
सिद्ध त्ति य बुद्ध त्ति य पारगयत्ति य परंपरगयत्ति य । उम्मुक्ककम्मकवया, अजरा, अमरा असंगा य ॥२३
इसी प्रकार अन्य भी अनेक विशेषण प्रयुक्त हुए हैं-निश्छिन्नसर्वदुःखा, जातिजरामरणबंधविप्रमुक्ता आदि ।२४
__ इस प्रकार ऐसे अनेक विशेषण या पर्यायवाची शब्द हैं जिनमें व्युत्पत्तिगत एवं क्रमिक पर्यायों की अपेक्षा से कुछ भिन्नता होते हुए भी वे सभी सिद्ध के स्वरूप के प्रतिपादक होने से ऐदम्पर्य की दृष्टि से अभिन्न हैं। प्रकार या भेद
यद्यपि सिद्ध कर्ममुक्त होते हैं। वर्तमान अवस्था में स्वरूप की दृष्टि
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से उनमें कोई भेद नहीं होता । एक सिद्ध का ज्ञान दूसरे सिद्ध के ज्ञान से अंशमात्र भी कम या ज्यादा नहीं होता । एक सिद्ध चाहे इस समय का हो और दूसरा असंख्य समय ( अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी) पूर्व का, परन्तु दोनों का आनंद समकक्ष होगा। सभी में केवलज्ञान, केवलदर्शन, असंवेदन, आत्मरमण, अटल- अवगाहन, अमूर्तिकपन और अगुरुलघुपन इन कर्मक्षय से होने वाले आठ गुणों मे तिलमात्र भी भिन्नता नहीं, किन्तु सिद्धावस्था से पूर्व वे भी संसारी थे । उनके भी शरीर था, शरीर की अवगाहना, लिंग आदि थे अतः उस अपेक्षा से उनमें भी अनेक प्रकार के भेद किए जा सकते हैं । पूर्वावस्था की अपेक्षा नन्दी सूत्र में उनके पन्द्रह भेदों का वर्णन मिलता है
तीर्थातीर्थ तीर्थंकरातीर्थंकर स्वान्यगृहस्त्रीपुंनपुंसकलिंग स्वयंबुद्ध प्रत्येकबुद्ध बुद्धबोधितैकानेकभेदात् पञ्चदशधा ।
२५
उत्तराध्ययन" में सिद्ध के चौदह भेदों का भी वर्णन मिलता है जिनमें पांच भेदस्थान सापेक्ष हैं, जहां से उन्होंने शरीरत्याग किया | तीन भेद व्यक्त शरीरवर्ती लिंग-पुल्लिंग आदि के आधार पर है तथा अन्य तीन वेशभूषा ( जिस वेश में जैन साधु, तापस आदि अन्य परम्पराओं या गृहस्थ वेश ) और तीन भेद शरीर की अवगाहना के आधार पर किए गए हैं ।
अवगाहना
दार्शनिक हैं वे मुक्त जीव का मानने वाले हैं वे ब्रह्मलीनता होना नहीं भी मानते हैं वे भी
भारतीय दर्शनों में जो ईश्वरवादी ईश्वर में लीन होना मानते हैं और जो ब्रह्म को मानते हैं । तथा जो ईश्वर और ब्रह्म में लीन आत्मा को निरंश, निरवयव व अमूर्त मानते हैं अतः अवगाहना की वहां कोई चर्चा उपलब्ध नहीं होती । जैन दर्शन इस विषय में एक विलक्षणता लिए हुए है वह आत्मा को अमूत्तं मानते हुए भी सावयव मानता है । आत्मा ही नहीं, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय भी अमूर्त होते हुए भी प्रदेशी है | स्पष्ट है जैन दर्शन के अनुसार अमूर्त्तत्व एवं सावयवत्व में कोई सहानवस्थान विरोध नहीं और न सावयवत्व और अनित्यत्व में अविनाभाव, जैसा कि अन्य दर्शन मानते हैं । प्रत्येक आत्मा चैतन्यमय परमाणुओं का अविभाज्य स्कंध है । उसके प्रदेश संख्या में असंख्य तथा धर्मास्तिकाय; अधर्मास्तिकाय और लोकाकाश के बराबर है । आत्मा, संसारी अवस्था में सदा शरीर युक्त रहता है अतः जब जैसा छोटा, बड़ा शरीर उसे प्राप्त होता है वह उतना ही सिकुड़ या फैल जाता है । १००० योजन प्रमाण वाले मत्स्य और अंगुल के असंख्यातवें भाग जितने सूक्ष्म जीव में आत्मप्रदेशों की दृष्टि से कोई भिन्नता नहीं, भिन्नता है उसके शरीर की भिन्नता है उस शरीर के निदानभूत कर्म - नामकर्म की । अब, मुक्त होने पर न जीव के शरीर हैं और
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न नामकर्म तो उसकी अवगाहना (परिमाण) रहे या न रहे, रहे तो कितनी रहे क्योंकि अवगाहना--अवगाहन्ते यस्यां प्राणिनः साऽवगाहना तनुरितिका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ होता ह शरीर । अवगाहना विषयक प्रश्न को समाहित करते हुए उत्तराध्ययन में कहा गया है ----
उस्सेहो जस्स जो होइ भवम्मि चरमम्मि उ ।
तिभागहीणा तत्तो य सिद्धाणोगाहणा भवे ॥"
प्रश्न हो सकता है कि शरीररहित हो जाने पर आत्मा की अवगाहना त्रिभागहीन (3) क्यों हो जाती है ? वह सारे लोकाकाश में फैल क्यों नहीं जाता ? समाधान की भाषा में कहा जा सकता है कि यद्यपि आत्मा हमारे शरीर की सहविस्तारी है, तथापि शरीर में जहां पोला भाग है, रिक्तस्थान है वहां आत्मा नहीं होती अतः मुक्तावस्था में वह भाग कम हो जाता है। आत्मा सम्पूर्ण लोकाकाश में नहीं फैलता क्योंकि विसर्पण का कारण होता है नामकर्म और उसका वहां अभाव है-नामकर्मसम्बन्धात् संहरण विसर्पण धर्मत्वं प्रदीपप्रकाशवत् । सिद्ध होने वाले जीवों की उत्कृष्ट अवगाहना ५०० धनुष्य और जघन्य अवगाहना २ हाथ होती है अत: सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना८३३३ धनुष्य, एक हाथ, आठ अंगुल तथा जघन्य अवगाहना एक रत्नी (मुडा हाथ) और आठ अंगुल होती है। अनन्त सिद्ध हैं और प्रत्येक की अपनी अवगाहना भी है तथापि वे एक दूसरे से प्रतिहत नहीं होते जैसे एक ही दीपक जिस कक्ष को प्रकाशित करता है उसी कक्ष में सैकड़ों दीपकों का प्रकाश भी व्याप्त हो सकता है।
स्थान
मुक्त आत्माओं के स्थान के विषय में चिन्तन करने से पूर्व उनके परिमाण के विषय में विमर्श करना जरूरी है क्योंकि जो न्याय, वैशेषिक सांख्य और अद्वैत वेदान्त आदि दर्शन आत्मा को विभु या सर्वव्यापक मानते हैं उनके लिए इस चर्चा का कोई अवकाश नहीं । अणु आत्मवादियों में भी मुक्तात्माओं के निवास स्थान की चर्चा की गई है--ऐसा ज्ञात नहीं। जैन दर्शन मुक्तात्माओं के लिए एक मुक्तालय, सिद्धालय या सिद्धक्षेत्र की व्यवस्था की है-ईषतप्राग्भारा पृथ्वी तन्निवास: ।° मुक्त जीवों का निवास स्थान ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी है। इसका अपरनाम सीता है। औपपातिक सूत्र में इसके ईषत्, ईषत्प्राग्भारा, तनू, तनतन् आदि बारह नाम भी आए हैं ।
जैनेतर दर्शनों में मुक्ति के लिए बैकुण्ठधाम, विष्णुलोक, गोलोक आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है पर वह कहां अवस्थित है ? उसकी क्षेत्रपरिधि क्या है आदि के विषय में उनमें कुछ विमर्श हुआ हो-ऐसा प्रतीत नहीं होता जबकि जैन दर्शन में इसका सविस्तार वर्णन मिलता है।
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जैन दर्शन के अनुसार लोक के अधोभाग में नरकादि, मध्य में मनुष्यतिर्यंच आदि तथा ऊर्ध्व भाग में देवों का निवास स्थान हैं। उनमें सबसे ऊपर सर्वार्थसिद्धि नामक अनुत्तर विमान है । उस देवलोक की स्तूपिका के अग्रभाग से बारह योजन की दूरी पर सिद्धशिला है जिसकी लम्बाई चौड़ाई ४५ लाख योजन और परिधि का घरा ८२३०२०० योजन से कुछ अधिक है । इसकी मोटाई मध्य में आठ योजन है और आगे यह हीन होती हुई मक्षिका के पंख से भी पतली हो जाती है । इसका वर्ण श्वेत स्वर्णमय है । यह स्वच्छ, श्लक्ष्ण, मसृण, नीरज और निष्पंक है। उससे एक योजन ऊपर लोकान्त है । उस योजन के छठे भाग में अनगिनत सिद्धात्माएं एक ही प्रदेश में निर्बाध रूप से रहती हैं जैसे सूई की नोक पर टिके लक्षपात अर्क की एक बिंदु में लाखों औषधियां । इसका बहुत ही अच्छा विवेचन हुआ है। 52
२
लोकाग्र में प्रतिष्ठित यही एक ऐसा स्थान है जहां न जन्म है, न मृत्यु, न जरा है, न रोग या शोक । इसीलिए इसे निर्वाण, अव्याबाध क्षेम, शिव आदि नामों से पुकारते हैं। आवश्यक सूत्र के प्रणिपात सूत्र में इसे 'सिवमयलमरुममणं तमब्बाबाहमपुणरवित्ति सिद्धिगई' कहकर सम्बोधित किया है क्योंकि यह बाधा, पीड़ा एवं दुःख से रहित होने से शिव, स्वाभाविक और प्रायोगिक चंचलताओं से मुक्त, द्रव्य और भाव सब रोगों से मुक्त, अविनश्वर, अक्षय अव्याबाध और अपुनर्भवी है ।
गति
मुक्त जीव अशरीर हैं, कर्ममलरहित हैं तो उनकी गति क्यों होती है ? वह जहां शरीर त्याग करता है वहीं अवस्थित क्यों नहीं हो जाता ? यदि गति करता है तो ऊपर ही क्यों जाता है ? ऊपर जाता है तो लोकाग्र में अटक क्यों जाता है ? वह अलोक में क्यों नहीं जाता ? ३४ अलोक में न जाने के पीछे क्या कारण है ? इत्यादि प्रश्नों का समाधान देते हुए जैनदर्शन का कहना है कि जीव स्वभावतः ऊर्ध्वगति है । कर्मों के संयोग से वह कभी अधः कभी ऊर्ध्व तो कभी तिर्यग्गति करता है किन्तु ढेले, वायु आदि के समान वह स्वतः अधोया तिर्यग्गति नहीं । इसलिए जब वह कर्ममुक्त हो जाता है तो अधोया तिर्यग्गति नहीं करता । अलोकाकाश में धर्मास्तिकाय का अभाव होने से वहां भी नहीं जा सकता और अधर्मास्तिकाय के अभाव में वहां ठहर भी नहीं सकता अतः वह शरीर त्याग करते ही लोकान्त में पहुंच जाता है। मुक्त जीव धुएं के निर्लेप और मुच्यमान एरण्ड की फली के समान ऊर्ध्वगति करते हैं । भगवान् ने अकर्मा की गति के कहा
एक समय वाली ऋजुगति से
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समान हल्के, तूंबे के समान बन्धनरहित होने के कारण हेतुओं का वर्णन करते हुए
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'गोयमा ! निस्संगयाए, निरंगणयाए, गतिपरिणामेणं, बंधणछेदणयाए, निरिधणयाए पुव्वपओगेणं अकम्मस्स गती पण्णायति ।' जिस प्रकार सूखे हुए निश्छिद्र, निरुपहत, दर्भ कुश आदि से वेष्टित, तूंबे को आठ बार लिप्त कर, बार-बार सूखाकर जल में डाला जाए तो वह अपने भारीपन के कारण पृथ्वीतल तक पहुंच जाता है किन्तु उन लेपों के उतर जाने पर वह पुनः जल के ऊपर तैरते लगता है, वैसे ही अष्टविध कर्मलेप से मुक्त जीव संसारसमुद्र के ऊपरी तल पर पहुंच जाता है। किन्तु जैसे वह तूंबा जल से बाहर नहीं निकल पाता वैसे ही जीवलोक से बाहर अलोक में नहीं जाता। निस्संगता और नीरागता क्रमश: निलेपता और मोहराहित्य का प्रतीक है जीव के नाना गति रूप विकार के कारणभूत 'नोकर्म' का अभाव होने से वह वायुसम्बन्ध रहित दीपशिखा के समान ऊर्ध्वगमन करता है। बन्धन छेद के लिए भगवान ने विभिन्न फलियों-~-मटर, एरण्डफली आदि के दृष्टान्त दिए हैं। निरिन्धनता के लिए धुएं का तथा पूर्वप्रयोग के लिए कुम्भकार की चाक या धनुष से छूटे बाण का दृष्टान्त दिया गया है ।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मोक्ष यद्यपि भारतीय दर्शनों का बहचित विषय है पर व्यवस्थित एवं विस्तृत स्वरूप निरूपण की दृष्टि से जैन दर्शन का मोक्षवाद विलक्षण है यह कहना अत्युक्ति नहीं ।
सन्दर्भ १. सर्वदर्शनसंग्रह, वेदान्त दर्शन २. न्या० सूत्र ११११२२ ३. वैशेषिक सूत्र ५।२।१८ ४. स्याद्वादमनरी
६. योगसूत्र ४।३४ ७. सर्वदर्शनसंग्रह
०,
१०. तत्त्वार्थसूत्र १०।३ ११. " ११ १२. सुत्तनिपात २८१८ १३. गीता ३४।४, ४।३९ १४. औपपातिक सूत्र १९५।१४ १५. स्यादवाद मंजरी १६. बृहदारण्यक उपनिषद् ३।८।८
तुलसी प्रज्ञा
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१७. ब्रह्मसूत्र, शांकरभाष्य १।१०४
१८. उत्तराध्ययन ३६।६६ १९. आयारो ५।१२३-१३५ २०. भगवती सूत्र २।१७ २१. भगवती वृत्ति पत्र ३
११२
"
२२.
२३. औपपातिक सूत्र १९५२०
31
27
२४.
२५. नन्दी सूत्र (सवृत्ति) सूत्र ३१
२६. उत्तराध्ययन सूत्र ३६ २७. वही ३६+६४
२८. औपपातिक सूत्र १९५०५
"
२९. वही १९५६
३०. जैन सिद्धांत दीपिका
३१. औपपातिक सूत्र १९३
३२.
१९४-१९५
३३. उत्तराध्ययन २३८१, ८३
३४. औपपातिक सूत्र १९५२ उत्त० ३६ । ५६
३५. तत्त्वार्थवार्तिक १०।९।१४,१६
३६ । भगवती ७।११
३७.
१९५।२१,२२
""
खण्ड १९, अंक ३
७।१२-१५
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रात्रि भोजन-विरमण वत: विभिन्न
अवधारणाएं
साध्वी सिद्धप्रज्ञा
नाणस्स सारं आयारो' ज्ञान का सार है-आचार-यह कथन आचार की गरिमा को उजागर करता है । आचार के पांच प्रकार है-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य । रात्रि भोजन विरमण का चारित्राचार में समावेश होता है । चारित्राचार के तेरह भेद है--पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति।
आचारचूला' स्थानांग भगवती ज्ञातृधर्मकथा और प्रश्नव्याकरण में जहां-जहां प्रव्रज्याग्रहण या अन्तिम आराधना-आलोचना के प्रसंगों में पांच महाव्रतों का उल्लेख है, वहां रात्रि भोजन विरमण का स्वतंत्र रूप से कोई उल्लेख नहीं है। किंतु आचारचूला' और प्रश्नव्याकरण में अहिंसा महाव्रत की पांच भावनाओं में एक भावना है---आलोकितपान भोजन जो रात्रि भोजन विरमण का अर्थ लिए हुए है। सर्वप्रथम सूत्रकृतांग में पांच महाव्रत के साथ रात्रिभोजन विरमण की स्वतंत्र व्यवस्था प्राप्त होती है
'परमा महव्वया अक्खाया सराइभोयणा'8- भगवान महावीर ने रात्रि भोजन विरमण सहित पांच महाव्रतों का निरूपण किया। समवायांग में प्रतिपादित आचार के अठारह स्थानों में पांच महाव्रतों के पश्चात् रात्रि भोजन विरमण को छठा व्रत गिनाया गया है---- . वयछक्कं कायछक्कं, अकप्पो गिहिभायणं ।
पलियंक निसेज्जा य सिणाणं सोहवज्जणं ।। दसवैकालिक सूत्र में भी यही गाथा निर्यढ है, किंतु चूर्णिकार अगस्त्यसिंह और जिनदासगणी तथा वृत्तिकार हरिभद्र ने इसे नियुक्ति गाथा (२६८) माना है ।" इस सूत्र के चतुर्थ अध्ययन में पांच महाव्रतों के पश्चात् स्वतंत्र रूप से यह छठे व्रत के रूप में प्रतिपादित है.---'अहावरे छ8 भंते ! वए राईभोयणाओ वेरमणं ।' 'इच्चेयाइं पंचमहव्वाई राईभोयणवेरमणछट्टाई१२ इसी सूत्र के तीसरे अध्ययन में रात्रिभोजन की गणना बावन अनाचारों में की गई है।
खण्ड १९, अंक ३
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१४
उत्तराध्ययन के 'मियापुत्तिज्ज' अध्ययन में मां अपने पुत्र को पांच महाव्रतों के साथ रात्रिभोजन विरति की दुष्करता बताती है । ४ तथा 'नवमग्गगई' अध्ययन में प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह और रात्रिभोजन से विरत जीव को अनाश्रव कहा गया है। किंतु जहां कुमार श्रमण केशी और गौतम का संवाद हुआ है, वहां अर्हत् पार्श्व के चातुर्याम धर्म और श्रमण महावीर के पंचशिक्षात्मक धर्म का ही उल्लेख है । " नंदी" और आवश्यक सूत्र में भी केवल पांच महाव्रत प्रज्ञप्त हैं । आचार्य भद्रबाहु का भी यही प्रतिपाद्य है । १३
आचार्य वट्टकेर ने मूलाचार में रात्रिभोजन विरति ( एक भुक्त) को मूलगुण माना है ।" इसी ग्रन्थ की २९५ वीं गाथा में इसे पांच महाव्रतों की रक्षा का हेतु बताते हुए उत्तरगुणों में और गाथा ३३७ में अहिंसा महाव्रत की भावना में शामिल किया गया है ।
२१
चारित्रपाहुड" तत्त्वार्थं सूत्र तथा सर्वार्थसिद्धि में भी यह अहिंसा महाव्रत की भावना के अन्तर्गत है । भाष्यकार जिनभद्रगणी ने एक स्थान पर पांच महाव्रतों को तथा दूसरे स्थान पर छह व्रतों को मूलगुण माना है तथा श्रावक के लिए इसे उत्तरगुण कहा है।
२३
इस संदर्भ में चूर्णिकार अगस्त्य सिंह स्थविर ने अपना मंतव्य स्पष्ट करते हुए लिखा है—' रात्रिभोजन विरति वस्तुतः उत्तरगुण ही है पर यह सब मूलगुणों की रक्षा का हेतु है, इसलिए इसका मूलगुणों के साथ प्रतिपादन हुआ है ।" अर्हत् ऋषभ और महावीर के शासनकाल में ऋजुजड़ तथा वक्रजड़ मुनियों की अपेक्षा यह मूलगुण है । मध्यम बाईस अर्हतों के शासनकाल में ऋजुप्रज्ञ मुनियों की अपेक्षा यह उत्तर गुण है— चूर्णिकार जिनदासगणी और वृत्तिकार हरिभद्र ने यह विमर्श प्रस्तुत किया है।
२५
सोमतिलकसूर ने इसी तथ्य की पुष्टि की हैमूलगुणेसु उ दुण्ह सेसाणुत्तरगुणेसु निसिमुत्तं ॥
२६
अकलंक ने लिखा है -रात्रिभोजन विरमण को स्वतंत्र रूप से छठा व्रत मानने की अपेक्षा नहीं हैं, अहिंसा व्रत की भावना में ही इसका अंतर्भाव हो जाता है ।
२७
आचार्य अमृतचन्द्र ने रात्रिभोजन का हिंसा में अन्तर्भाव किया है-'रात्रिभोजन में हिंसा अनिवार्य है । जो रात्रिभोजन का त्याग करता है, वह निरन्तर अहिंसा का पालन करता है । " चारित्रसार और आचारसार में छठे अणुव्रत तथा श्रावक की छठी प्रतिमा के रूप में इसका उल्लेख हुआ है । 28 श्री मज्जयाचार्य ने अन्तिम आराधना के समय पांच महाव्रतों के पश्चात् छठे रात्रिभोजन विरमण व्रत के उच्चारण का निर्देश दिया है 138
निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि अर्हत् पार्श्व ने चातुर्याम
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धर्म का प्रतिपादन किया और भगवान् महावीर ने शिष्यों की बुद्धिक्षमता को जानकर स्त्रीत्याग और रात्रिभोजन विरति इन दोनों को स्वतंत्र स्थान दिया --- ब्रह्मचर्य को अपरिग्रह महाव्रत से तथा रात्रिभोजन विरति को अहिंसा महाव्रत से पृथक कर दिया - यह आचार शास्त्रीय विकास है ।
संदर्भ
१. आचारचूला १५ / ४२
२. स्थानांग ५ / १ ९/६२ ३. भगवती २ / ६६; १५/१०९,१६५
४. ज्ञातृधर्मकथा १/१/२०४
५. प्रश्नव्याकरण ६ / ६
६. आचारचूला १५/४४ ७. प्रश्नव्याकरण ६/१६/२०
८. सूत्रकृतांग १ । । ५६
९. दशवेकालिक ६१७
१०. दशवैकालिक अगस्त्य चूर्णि पृ १४४; जिनदासचूर्णि पृ २१६; हारि
"
भद्रीयवृत्ति, पत्र १९६
११. दशवं कालिक ४ / सूत्र १६, १७
१२ . वही ३/२
१३. उत्तराध्ययन १९ / ३०, ३० / २
१४. वही २३ / २३ : चाउज्जामो य जो धम्मो, जो इमो पंचसिक्खिओ देसिओ वद्धमाणेण, पासेण य महामुनी ॥
२३/८७ : पंचमहव्वयधम्मं पडिवज्जइ भावओ पुरिमस्स पच्छिमम्मी, मग्गे तत्थ सुहाव
१५. नंदी गाथा ७
१७. आवश्यकसूत्र ४ / ३,८,९, ५/२
१६. आवश्यक नियुक्ति ३४० उप्पण्णम्मि अणते महत्वया पंच पण्णवए ।
१८. मूलाचार गाथा ३, ३५
१९. चारित्र पाहुड़ ३१ २०. तत्त्वार्थसूत्र ७/४
२१. सर्वार्थसिद्धि ७/१/३४३
२२. विशेषावश्यक भाष्य १२३९-१२४५, १८२९
२३. दशवेकालिक अगस्त्यचूर्णि पृ० ८६
२४. दशवैकालिक जिनदासचूर्णि पृ १५३; हारिभद्रीय वृत्ति पत्र १५० २५. सप्ततिशत स्थान गाथा २८७
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२६. तत्त्वार्थराजवार्तिक ७/१/१५ २७. पुरुषार्थसिद्धयुपाय १२९,१३४ २८. चारित्रसार १३/३; पञ्चधाणुव्रत रात्यभुक्तिः षष्ठमणुप्रतिम
आचारसार ५/७०७१ २९. आराधना २/१२,१३;
फुन रात्रीभोजन प्रति पचखू, निशीभोजन नां नेमो जी रे। तीन करण ने तीन जोग करि जीवजीव लग एमो रे ॥ पंच महाव्रत फुनव्रत छठो, अन्त समय अणगारो जी रे ।
इहविधि उचरै समभावे करि, आणी हरस अपारो रे ।। ३०. सूत्रकृतांग १/६/२८ : से वारिया इस्थि सराइमत्तं
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समराच्चकहा : एक धर्मकथा
सुश्री निर्मला चोरडिया
प्राकृत आगम साहित्य में धार्मिक आचार, आध्यात्मिक तत्त्व चिंतन तथा नीति और कर्तव्य का प्रणयन कथाओं के माध्यम से किया गया है । वेदों और पालि त्रिपिटक की भांति जैनों के अर्ध-मागधी आगम ग्रन्थों में भी छोटी-बड़ी सभी प्रकार की अनेक कहानियां मिलती हैं। उनमें दृष्टांत, उपमा, रूपक, संवाद एवं लोक कथाओं द्वारा संयम, तप और त्याग का विवेचन किया गया । जैनागमों के नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि एवं टीका ग्रंथों में तो अपेक्षाकृत विकसित कथा-साहित्य के दर्शन होते हैं 1
___ कथा के भेदों का निरूपण करते हुए आगमों में अकथा, विकथा तथा कथा-ये तीन भेद किए गए हैं। इनमें कथा उपादेय है, शेष त्याज्य । विषय की दृष्टि से चार प्रकार की कथाएं होती हैं- अर्थकथा, कामकथा, धर्मकथा और मिश्रकथा । जैनाचार्यों ने अधिकतर धर्मकथा को उपादेय माना है। जैन कथाओं का उद्देश्य जैन आचार-विचार अर्थात् कर्मवाद संयम, व्रत, उपवास, दान, पर्व, तीर्थ आदि के माहात्म्य को प्रकट करना है।
समराइच्चकहा--जो प्राकृत कथा साहित्य का सशक्त ग्रन्थ है, आचार्य हरिभद्रसूरि ने लगभग ८ वीं शताब्दी में चित्तौड़ में इस ग्रंथ की रचना की थी। यह एक धार्मिक काव्य है । कथा के माध्यम से धर्मोपदेश देना इसका उद्देश्य है । इसलिए इसमें कथारस गौण और धर्मभाव प्रधान है। आत्मज्ञान, संसार की नश्वरता, विषय-त्याग, वैराग्य भावना, श्रावकों के आचार आदि का प्रतिपादन तथा नैतिक जीवन की उन्नति के लिए आदर्शों की योजनाइस कृति के मुख्य विषय हैं। कथा के माध्यम से प्राणी की राग-द्वेष और मोहात्मक प्रवृत्तियों के जन्म-जन्म व्यापी संस्कारों का जो सजीव चित्रण किया है, वह अपने भाप में अनूठा है। इस कथाग्रन्थ में दो ही आत्माओं के नौ मानवभवों का विस्तृत एवं सरल वर्णन है। समराइच्च कहा को हरिभद्र ने धर्मकथा के नाम से अभिहित किया है, जिसकी विषय-वस्तु देव-मानुषिक है-'दिव्व माणुसवत्थुगयं धम्मकहं चेव' ।'
धर्मकथा क्या है ? धर्मकथा के लक्षण दर्शाते हुए कहा है जिनमें
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धर्म का उपादान कारण या साधन दृष्टिगत हो, क्षमा, सहनशीलता, मार्दवकोमलता, आर्जव ऋजुता, सरलता, मुक्ति, तपस्या, संयम, सत्य, पवित्रता, अकिंचनता अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य का मुख्यतया निरूपण हो, अणुव्रत, दिग्व्रत, अनर्थदण्ड विरति, सामायिक, पौषधोपवास, उपभोग- परिभोग की मर्यादा तथा अतिथि संविभाग का विवेचन हो, अनुकम्पा, अकाम - निर्जरा आदि विषय वर्णित हो
जिन कथाओं में धर्मं तत्त्व का विशेष निरूपण रहता हो तथा वह आत्मकल्याणकारी और संसार के शोषण तथा उत्पीड़न को दूर कर शाश्वत सुख को प्रदान करे, ऐसी सत्कथा धर्मकथा ही है ।
उद्योतनसूरि ने नाना जीवों के नाना प्रकार के भाव-विभाव का निरूपण करनेवाली कथा धर्मकथा बतलायी है । इसमें जीवों के कर्म विपाक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भावों की उत्पत्ति के साधन तथा जीवन को सभी प्रकार से सुखी बनाने वाले नियम आदि की अभिव्यंजना होती है । धर्मकथाओं में शील, संयम, तप, पुण्य और पाप के रहस्य के सूक्ष्म विवेचन के साथ मानव जीवन और प्रकृति के यथार्थ धरातल को प्रकट किया जाता है । धर्मकथाओं में शाश्वत सत्य का निरूपण रहता है साथ ही जीवन निरीक्षण, मानव की प्रवृत्ति और मनोवेगों की सूक्ष्म परख, अनुभूत रहस्यों और समस्याओं का समाहार पाया जाता है ।
उद्योतनसूरि ने कुवलयमाला में धर्मकथा को चार भागों में विभाजित किया है—-आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदिनी और निर्वेदिनी । धवला टीकाकार वीरसेनाचार्य ने धर्मकथा के इन्हीं भेदों का निरूपण करते हुए कहा है. आक्षेपणी कथा में छह द्रव्य और नव पदार्थों का स्वरूप, विक्षेपिणी कथा में प्रथमत: दूसरों की मान्यताओं का निराकरण, तदनन्तर पादन | संवेदनी में पुण्य-पाप के फलों का विवेचन कर जाया जाता है। निर्वेदनी में संसार, शरीर और भोगों में जाती है । "
उक्त लक्षणों के आधार पर धर्मकथा के मानक रूप हम समराइच्चकहा में पाते हैं।
।
मानव जीवन के लिए क्या उपादेय और क्या हेय है, इसका आचार्य हरिभद्र ने समराइच्चकहा कृति में लेखाजोखा प्रस्तुत किया है. जो धर्मकथा का एक महत्त्वपूर्ण आयाम है । यहां उदाहरण, दृष्टांत, उपमा, रूपक, संवाद और लोकप्रचलित कथा कहानियों द्वारा संयम, तप और त्याग के उपदेश पूर्वक धर्मकथा का विवेचन किया गया है। यह एक धर्मकाव्य है जिसमें विभिन्न आयामों के माध्यम से बड़ी मार्मिक भाषा में त्याग और वैराग्य का
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स्वमत का प्रतिविरक्ति की ओर ले विरक्ति उत्पन्न की
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उपदेश दिया है।
___समराइच्चकहा की कथा का मूल आधार अग्निशर्मा एवं गुणसेन के जीवन की घटना है । अपमान से दु:खी होकर अग्निशर्मा प्रतिशोध की भावना मन में लाता है - 'एयस्स वहाये पइजम्मं होज्ज मे जम्मो' ' इस निदान के फलस्वरूप नौ भवों तक वह गुणसेन के जीव से बदला लेता है। वास्तव में समराइच्चकहा को कथावस्तु सदाचार और दुराचार के संघर्ष की कहानी है। प्रथम भव में गुणसेन और अग्निशर्मा की कथा कही गई है । अग्निशर्मा अपने बाल्यावस्था के संस्कार और हीनत्व की भावना के कारण हो गुणसेन द्वारा पारण के दिन भूल जाने के कारण उसके ऊपर क्रुद्ध हो जाता है और जन्म-जन्मांतर तक बदला लेने की भावना लेकर मृत्यु को प्राप्त होता है। परिणामतः एक अपने पूर्वभवों के पापो का पश्चात्ताप, क्षमा, मैत्री आदि भावनाओं द्वारा उत्तरोत्तर विकास करता है और अंत में परमज्ञानी और मुक्त हो जाता है तो दूसरा प्रतिशोध की भावना लिए संसार में बुरी तरह फंसा रहता है। इसी मुख्य विषय का आचार्य हरिभद्र ने विविध रूपों में पल्लवन किया है। उसके परिपार्श्व में पनपने वाले, पलने वाले कलुषित कर्मों का भयावह चित्र उपस्थित किया है और उनसे बचने का मार्ग भी। इस प्रकार सद्-असद् हेय-उपादेय का ज्ञान करानेवाली, संसार और मोक्ष का विवेचन करने वाली समराइच्कहा धर्मकथा के रूप में अद्वितीय कही गई है।
ग्रंथ के प्रारंभ में लेखक ने धर्म का निरूपण किया है"----धर्म से उत्तम कुल में जन्म मिलता है, दिव्य सुन्दर रूप प्राप्त होता है। धन-वैभव तथा विस्तृत व्यापक यश मिलता है । इतना ही नहीं 'धम्मो मंगलम उलं ओसहमउलं च सव्वदुक्खाणं'--धर्म अनुपम मंगल है, सब दुःखों के लिए वह अतुल्य औषध है, वह विपुल विशाल बल है, त्राण तथा शरण है । समस्त प्राणिलोक में मन एवं इन्द्रियों को जो प्रिय लगनेवाला है, वह सब धर्म है। धर्म स्वर्ग प्राप्त कराता है तदनन्तर उत्तम मनुष्य योनि उससे मिलती है और अंततः वह शीघ्र ही मोक्ष की प्राप्ति करता है। यों प्रारंभ में धर्म के गुणों की प्रतीति करा धर्म के अनुरागी जिन्हें जन्म, बुढ़ापा तथा मृत्यु संबंधी चिंतन के कारण वैराग्य उत्पन्न हो गया है, पाप के लेप से जो प्रायः छूट चुके हैं, कामभोग से जिन्हें विरक्ति हो गई है, जो जन्मान्तर में भी अपना कुशल कल्याण सोचते हैं तथा जो जीवन लक्ष्य सिद्धि के निकटवर्ती हैं, ऐसे सात्विक कोटि के व्यक्तियों को धर्मकथा का अधिकारी बताया है-'ते सत्तिया उत्तिम पुरिसा.. धम्मकहा चेव अणुसज्जन्ति ।"
. समराइच्चकहा में प्रतिशोध की भावना विभिन्न रूपों में व्यक्त हुई है। अग्निशर्मा ने निदान किया था कि गुणसेन से अगले भवों में बदला लूंगा।
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जैनदर्शन में कमों के संदर्भ में 'निदान' शब्द का प्रयोग आता है। निदान का आशय किसी ऐहिक व पारलौकिक फल विशेष का संकल्प कर तपस्या आदि कर्म करना । अग्निशर्मा इसी आशय को कहता है-'जइ होज्ज इमस्स फलं मए सुचिण्णस्स वयविसेसस्स ।" मन में जिस कोटि का रागात्मक या द्वेषात्मक-कषाय-प्रसूत-भाव होता है, तदनुरूप वह पुरुष निदान करता है। यह निदान अनेक जन्मों तक वर्तमान रहकर व्यक्ति के जीवन को रुग्ण, नाना गतियों में भ्रमण का पात्र बना देता है। अग्निशर्मा गुणसेन के प्रति तीव्र घृणा के कारण निदान बांधता है, यह घृणा ज्यों की त्यों आगे भवों में दिखलायी पड़ती है। अग्निशर्मा का निन्द्याचरण क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह आदि विभिन्न प्रवृत्तियों के रूप में व्यक्त हो जाता है और वह पुनः पापाचरण करके भावी कर्मों की निन्द्य परम्परा का अर्जन करता है। इस प्रकार धर्म आराधकों के गुणों और विराधकों-धर्म विरुद्ध चलनेवालों के दोषों पर इस ग्रंथ में विशेषत: प्रकाश डालते हुए अवन्ती के राजा समरादित्य के चरित्त का वर्णन किया है, जो मोक्षाधिकारी प्राणियों को वैराग्य की ओर प्रेरित करता है।
समराइच्चकहा में संसार से विरक्ति के कारणों का उल्लेख किया है। गुणसेन अग्निशर्मा से पूछता है-आपके इस महादुष्कर तपश्चरण का कारण क्या है ? तपस्वी अग्निशर्मा ने अपने वैराग्य का कारण बताया-दरिद्रता का दुःख, दूसरे से तिरस्कार, कुरुपता तथा गुणसेन नामक कल्याण मित्र-जो धर्म के लिए प्रेरित करता है-'चोएइ य जो धम्मो ।१० इसी ग्रंथ में आगे विजयसेनाचायं वैराग्य का कारण जो इस संसार में सुलभ है, इंगित करते हैं-नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवयोनी में भटकते हुऐ जीवों को जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था के भय के सिवाय क्या कुछ सुख है 'किमत्थि किंचि सुहं आगे ओर कहा है-महासमुद्र के मध्य में पड़े हुए रत्न की तरह चिंतामणि जैसा यह मनुष्य जन्म यहां दुर्लभ है 'दुल्लभं माणुसत्तणं"२ तथा जीवन क्षणभंगुर है । समृद्धि शरद् ऋतु के बादल, स्त्री के कटाक्ष, हाथी के कान तथा बिजली के समान चंचल है । तथा 'केण ममेत्थप्पत्ती' मेरी यहां उत्पत्ति कैसे हई, मैं यहां से फिर कहां जाऊंगा, जो इतना भी सोचता है, वह कौन यहां विरक्त नहीं होता। इस प्रकार संसार को ही वैराग्य का कारण बताया है । साथ ही जैन परम्परा के अनुसार सांसारिक क्लेश (जन्म-मरण-रोग-शोक-संयोगवियोग) के कारण ही सम्पूर्ण दु:खों के मोचक श्रमणत्व को ग्रहण करने का उल्लेख है।
समराइच्चकहा में कर्मतरु को काटकर सभी प्रकार के बंधनों से छुटकारा पाने के लिए प्रव्रज्यारूपी महाकुठार को परलोक गमन में सहायक बताया है । शुभ परिणाम योग से प्रव्रज्या ग्रहण करना तथा चारित्र पालन
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करते हुए आगम - विधि से देह त्याग कर सुरलोक की प्राप्ति में विश्वास प्रकट किया है । समराइच्चकहा की ही भांति उत्तराध्ययन सूत्र में प्रव्रज्या ग्रहण करने का कारण जीवन की क्षणभंगुरता तथा दुःख बताया गया है । कर्मफल सभी को भोगना पड़ता है, इसमें बंधु-बांधव तथा सगे-संबंधी आदि कोई भी योग नहीं दे सकता । जैनधर्म के अनुसार सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र - तीनों मिलकर मोक्ष मार्ग का निर्माण करते हैं । तत्त्वार्थ सूत्र के अनुसार - 'सम्यक् दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः, अतः हरिभद्र काल में भी श्रमणत्व का पालन परम-पद का साधक तथा सुख का सार माना गया है ।
इस ग्रंथ में प्राकृत की गद्य-पद्य की अनेकविध सूक्तियां विराग एवं विरक्त जीवन के महात्म्य से द्योतित हैं, उदाहरणार्थं कुछ सूक्तियां दर्शनीय हैं
१. विचित्त संधिणो हि पुरिसा हवन्ति । १४ २. सच्चपइन्ना खु तवस्सिजणो हवन्ति । "
३. सव्वहा न मंदपुण्णाणं गेहेसु वसुहारा पडन्ति । " ४. तवइ अकज्जं कयं पच्छा ।"
५. सव्वं पुब्वकयाणं क्रम्माणं पावए फलविवागं ।" कहीं-कहीं तो सम्पूर्ण श्लोक ही सूक्ति के रूप में हैं६. एयं करेमि एहि एयं काऊण इमं कल्लं ।
काहिम को णु मन्नइ सुविणयतुल्लम्मि जियलोए ॥ "
?
७. धी जियलोय सहावो जहियं नेहाणुरायकलिया वि ।
जे पुण्त्रण्हे दिट्ठा, ते अवरण्हे नदीसंति 19
८. किं वा तवस्सिजणो पियं वज्जियं अन्नं भणिउ जाणइ । मियङ्कबिम्बाओ अङ्गारवुडीओ पडन्ति ।
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समराइच्चकहा में धर्मकथा के विविध आयामों के साथ श्रावकश्रावकाचार का भी उल्लेख मिलता है। श्रावक को श्रमणों की उपासना करने से श्रमणोपासक भी कहा गया है। उन्हें अणुव्रती, देशविरत. देशसंयमी की भी संज्ञा से उपमित किया गया है । श्रमण श्रमणी के आचार-अनुष्ठान की ही भांति श्रावक-श्राविका के आचार धर्म की अनिवार्य अपेक्षा बताते हुए गृहस्थाश्रम में रहते हुए श्रावक के लिए अणुव्रतों के पालन का विधान है । अणुव्रत पांच बताए हैं -स्थूल प्राणातिपात विरमण, स्थूल मृषावाद विरमण, स्थूल अदत्तादान विरमण, स्थूल मैथुन विरमण, स्थूल परिग्रह विरमण । श्रावकों के आचार का प्रतिपादन सूत्रकृतांग, उपासकदशांग आदि आगम ग्रंथों में बारह व्रतों के आधार पर किया गया है। समराइच्चक हा में गृहस्थ श्रावकों के लिए कुछ अतिचारों को गिनाया है । सांसारिक भ्रमण अथवा सांसारिक दुःखों के कारणभूत अतिचार बंध, वध, छविच्छेद"
... आदि हैं, जो एक
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श्रावक के लिए अनावरणीय हैं- 'नो खलु समायरइ इमे अइयारे । "
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ग्रंथ में आगे श्रमणों के आचरण संबंधी कुछ नियमों का भी उल्लेख है । दस प्रकार के साधु- धर्म - यथा - क्षमा, मार्दव आदि का विवेचन है। आचरित नियम ये हैं - शत्रु-मित्र को समभाव से देखना, प्रमाद से झूठा भाषण न देना, रात्रि भोजन न करना, पांच महाव्रतों, तीन गुप्तियों एवं पांच समितियों का सम्यग् पालन, प्रायश्चित्त, विनय आदि बाह्य तथा आंतरिक तप विधान, मासादिक अनेक प्रतिमा स्वीकार करना । समराइच्चकहा की भांति भगवती सूत्र, दशवैकालिक एवं उत्तराध्ययन सूत्र में साधु धर्म के आचरण योग्य विधानों का उल्लेख है । तप, संयम आदि के द्वारा सम्यग् ज्ञान की प्राप्ति ही श्रमणत्व का सार माना गया है | श्रमणत्व आचरण के प्रभाव से ही नागरिकों द्वारा श्रमणों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। उन्हें कष्ट पहुंचाने वाले को समाज में घृणा की दृष्टि से देखा जाता है । तथा उन्हें अपने दुष्कृत्यों के लिए श्रमणों से क्षमायाचना करनी पड़ती है ।
धर्म चर्चा में श्रमण और श्रमणचर्या के अतिरिक्त समराइच्चकहा में कुछ दार्शनिक विचारों का भी विवेचन किया गया है जिसके अंतर्गत लोकपरलोक, जीवगति, कर्मगति आदि का विश्लेषण किया गया है । जीव के सुख-दुःख तथा पाप-पुण्य आदि का कारण कर्म परिणति बताया गया है । इस संसार में व्यक्ति पूर्वकृत कर्म के प्रभाव से ही क्लेश का भाजन बनता है | दारिद्र्य, दुःख का अनुभव करता अथवा सुख समृद्धि का हेतु बनता है । कर्म की महत्ता स्वीकार करते हुए आचार्य हरिभद्र ने आठ मूल कर्म प्रकृतियां बतायी हैं -- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय "आदि ।" कर्म के संयोग से दुःख तथा कर्म की निवृत्ति से सुख की प्राप्ति बताया गया है । कर्म भेदन के परिणामस्वरूप जीव सम्यक्त्व को प्राप्त होता है तथा वह बहुकर्म-मल मुक्त होकर अपने स्वरूप भाव को प्राप्त करता है - 'सुहायपरिणामरूवं सम्मत्तं पाउणइ ।"
जीव-स्वरूप की चर्चा में जीव का स्वभाव मल एवं कलंक मुक्त स्वर्ण की भांति शुद्ध बताया गया है । इस प्रकार का जीव स्वभाव से उचित कर्मों के विपाक को जानकर अपराध करने वाले पर भी उपशम भाव के कारण कभी क्रोध नहीं करता - 'अवरद्ध विण कुप्पइ उवसमाओ ।'
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जीव दो प्रकार के माने गए हैं-संसारी जीव और मुक्त जीव । संसारी जीव चार प्रकार के कहे गए हैं-नारक, तियंच, मनुष्य और देव । इन चारों विभेदों से समराइच्चकहा में परलोक की सत्ता स्पष्ट होती है । हर प्राणी की मृत्यु के पश्चात् उसका चैतन्य रूप जीव परलोकगामी होता है । पाप कृत्य करनेवाले प्राणी नरक लोक में अपने कृत्यों का परिणाम भोगते हैं तथा शुभ प्रवृत्ति करनेवाले प्राणी स्वर्गलोक में जाते हैं ।
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समराइच्चकहा में व्यक्ति का महानतम लक्ष्य परमार्थ सिद्धि बताया गया है। इसके लिए दान, शील और तप-ये तीन प्रमुख साधन माने गए हैं । दान देनेवाले तथा दान लेनेवाले के गुण-अगुण का उल्लेख भी यहां मिलता है। इसी कथा प्रसंग में दान के तीन भेद गिनाए गए हैं-ज्ञानदान, अभयदान और धर्मोपग्रह दान । साथ ही स्वर्गलोक एवं नरकलोक में विश्वास प्रकट किया गया है । स्वर्ग एवं नरकलोक का विस्तृत वर्णन मिलता है।
अस्तु, इस कथा प्रसंग को पढ़ने से लगता है कि ग्रंथ की कथावस्तु हमारे बाह्य और आंतरिक जीवन में घटित होनेवाली घटनाओं में समन्वित हैं। गुणसेन की समस्त पर्यायों में भावनाओं का उत्थान-पतन मानव की मूल प्रकृति में व्यस्त मनोवैज्ञानिक संसार को चित्रित करता है। क्रोध, घणा आदि मौलिक आधारभूत वृत्तियों को उनकी रूप व्यक्ति और संस्थिति में रखना आचार्य हरिभद्र की सूक्ष्म संवेदनात्मक पकड़ का परिचायक है। यह कथावृति किसी व्यक्ति विशेष का इतिवृत्त मात्र नहीं है किंतु जीवन चरित्रों की सृष्टि को मानवता की ओर ले जानेवाली है।
इस कथावृति का प्राकृत में वही महत्त्व अंकित किया जाता है जो संस्कृत में बाण की कादम्बरी का । अन्तर यही किया जाता है कि कादम्बरी प्रेमकथा है और यह धर्मकथा । विलास, वैभव, प्रकृति एवं वस्तुओं के भव्य चित्रण दोनों ग्रंथों में प्रायः समान हैं ।
इस प्रकार उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि समराइच्चकहा विविध गुणों से समलंकृत हरिभद्र-ज्ञान-सागर से निःसृत भव्य जीवों के लिए संवेगकर धर्मकथा है।
संदर्भ सूची १. दस० गा० १८८ पृ. २१२ २. समराइच्चकहा, डा. छगनलाल शास्त्री, पृ. ६ ३. वही पृ.४ ४. प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, डा० नेमिचंद्र,
शास्त्री पृ. ४४६ ५. धवलाटीका पुस्तक १ पृ. १०३ ६. समराइच्चकहा, पृ. ३६ ७. वही पृ. ६ ८. वही पृ. ६ ९. वही पृ. ३६ १०. वही पृ. २२ ११. वही पृ. ५०
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१२. वही पृ. ७० १३. वही पृ. ५० १४. वही पृ. ४० १५. वही पृ. ४०
१६. वही पृ. ४१ १७. वही पृ. ६२ १८ वही पृ. ४० १९. वही पृ. २४
२०. वही पृ. २४
२१. वही पृ. २२
२२ . वही पृ. ६४
२३. वही पृ. ६४
२४. वही पृ. ६०
२५. वही पृ. ६० २६. वही पृ. ६२ २७. वही पू. ६२
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महाकवि भिक्षु के क्रान्तिकारी आयाम
- हरिशंकर पाण्डेय
कवि यथार्थ वर्णयिता होता है। विविधात्मिका सष्टि से प्राप्त विलक्षण अनुभवों को कल्पना, भावना और चर्वणीयता से पुटित कर शाब्दिक अभिव्यक्ति प्रदान करने वाला कवि कहलाता है। वह आनन्द मात्र का विधायक होता है । भारतीय-साहित्य में कवि को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है । 'कुङ शब्दे' और 'कवणे' धातु से कवि शब्द निष्पन्न होता है। राजशेखर के शब्दों में-कवि शब्दश्च 'कवृवणे इत्यस्य घातो:'।' 'कौति शब्दायते विमृशति रसभावानिति कवि:' अर्थात् कवि रस एवं भावों का विमशंक होता है । आचार्य मम्मट ने कवि के अलौकिक-सामर्थ्य की ओर निर्देश किया है। भट्टतौत कवि को वर्णना-निपुण मानते हैं । आनन्दवर्द्धन ने कवि को प्रजापति एवं काव्य संसार को उसकी सृष्टि के रूप में वर्णित किया
अपारे काव्य संसारे कविरेक: प्रजापतिः ।
यथास्मै रोचते विश्वं तथा विपरिवर्तते ॥' उसकी वाणी सम, प्रसन्न, मधुर, उदार और ओजस्वी होती है।
वैदिक वाङमय में विश्वनियन्ता, सृष्टि-स्रष्टा को काव कहा गया है- कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूः५ अर्थात् वह सर्वद्रष्टा, सर्वज्ञ एवं सर्वोपरि विद्यमान होता है तथा स्वेच्छा से प्रकट होता है ।
कोशकारों ने कविशब्द का अर्थ सर्वज्ञ, प्रतिभाशाली, चतुर, विचारवान्, प्रशंसनीय, ज्ञानविज्ञान सम्पन्न एवं काव्यकार आदि किया है ।
प्रस्तुत संदर्भ में तेरापंथ धर्मसंघ के आधाचार्य कवि भिक्षु (भीखण स्वामी) के विभिन्न आयाम एवं उनकी शेमुषी प्रतिभा के विषय में विचार का विनम्र प्रयास किया गया है।
__ यद्यपि एक तरफ महान् व्यक्तित्व भीखण स्वामी और दूसरी तरफ अल्पसत्त्व प्राणी मैं-इस परिस्थिति में महान-व्यक्तित्व के बारे में लिखना उपहास का विषय ही होगा, परन्तु 'संतो निसर्गात उपकारिणोयत्' सन्त स्वभाव से उपकारी होते हैं ऐसा विश्वास कर उन्हीं का ध्यान कर उनके
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बारे में लेखनी प्रवृत्त हो रही है, उन्हीं के शब्द, उन्हीं को समर्पित ।
आचार्य भिक्षु का अवतरण उस समय हुआ था जब भारत के राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक सभी क्षेत्रों में उथल-पुथल मचा हुआ था, प्रजारंजक कहलाने वाला नृपति-वर्ग विलास में आकण्ठ निमज्जित हो चुका था । धर्म-रक्षक साधु-संन्यासी भी, जो केवल आचार-पालन, जीव-मंगल आदि को ही अपना सर्वस्व मानते थे, अपने मूल रूप से हट गए थे।
आचार्य भीखण एक तरफ क्रांतिकारी आचार्य थे तो दूसरी तरफ काररित्री भावयित्री प्रतिभा सम्पन्न कवि भी थे। उन्होंने एक नवीन मार्ग की स्थापना की जिसका अभिधान हुआ-'तेरापंथ' ।
प्राचीन काल से ही यह परम्परा रही है कि आचार्य, सम्प्रदायप्रवर्तक, उपदेशक जीव-जीवनोद्धारक संत-महात्मा आदि अपने जीवन-दर्शन या अपने पूज्य के जीवन-दर्शन को आस्तिक जनता तक पहुंचाने के लिए काव्य का आश्रयण करते हैं क्योंकि उपदेश के लिए त्रिविध उपदेश पद्धति में (प्रभुसम्मित, मित्रसम्मित और कान्तासम्मित) कान्तसम्मित उपदेश पद्धति, जिसे काव्य कहते हैं, श्रेष्ठ और प्रभावक माना गया है।" कवि अश्वघोष विमलसूरि, आचार्य हरिभद्र आदि ने अपने उपास्य या पंथ-प्रधान के उपदेश को संसार में प्रसृत करने के लिए काव्य का सहारा लिया । सौन्दरनन्द महाकाव्य एवं 'समराइच्चकहा' उदाहरण हैं। इसी सरणि में तेरापंथ के आद्याचार्य स्वामी भीखणजी भी हैं।
संस्कृत-साहित्याचार्यों ने विभिन्न आधारों पर कवि-प्रकार की चर्चा की है। उन्हीं विवेचनाओं का आधार प्रस्तुत संदर्भ में स्वीकार्य है।
आचार्य राजशेखर ने काव्यमीमांसा में काव्य-विषय की दृष्टि से कवियों के तीन प्रकार बताये हैं-- शास्त्रकवि, काव्यकवि और उभयकवि ।' शास्त्रकवि काव्य में रस सम्पत्ति का समावेश करता है, काव्यकवि शास्त्र के तर्क-कर्कश कथन को मनोरम बनादेता है तथा उभय कवि दोनों विषय में सुदक्ष होता है। आचार्य-भिक्षु उभय-कवि के महनीय गुणों से मण्डित थे। दर्शन और आचार-शास्त्र के कठोर-नियमों को उन्होंने स्वभाव रमणीय तो बनाया ही, उसमें काव्य तत्त्वों का चारु निवेशन भी किया है । भिक्षु-दृष्टांत" इसका उत्कृष्ट उदाहरण हो सकता है । इसमें विभिन्न दृष्टांतों के माध्यम से वर्णनीय का सुन्दर उपन्यास किया गया है । 'नवपदार्थ' में जैन-दर्शन के जीव अजीव, पुण्य पाप, आश्रव संवर, बंध, निर्जरा और मोक्ष आदि का सुन्दर विवेचन किया गया है । इसमें श्रुति-मधुर शब्दों एवं ताल-लय समन्वित-छंद-बंध के आश्रयण से श्रेष्ठ काव्यवत् रमणीयत्व का प्रभूत उपस्थापन हुआ है । उदाहरण द्रष्टव्य है
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जीव- अजीव ओलख्यां विनां, मिटें नहीं मन रो भर्म । समकत आयां विण जीव नें, रूके नहीं भवतां कर्म ॥
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सासतो जीव द्रव्य साख्यात, कदे घटे नहीं तिलमात | तिणरा असंख्यात प्रदेस घटे बधे नहीं लवलेस || "
भिक्षु ग्रन्थ रत्नाकार के द्वितीय भाग के भरत चरित, जंबूकुमारचरित, सुदर्शन चरित" आदि काव्य की उदात्त - परम्परा में निसर्ग - रमणीया राजस्थानी भाषा के ललित - लावण्य से मंडित हैं । उपर्युक्त विवरण आचार्य भिक्षु के उभय - कवित्व शक्ति का उद्घाटन करते हैं । आचार्यश्याम- देव ने उभयकवि को ही श्रेष्ठ माना है- तेषामुत्तरोत्तरीयो गरीयान् इति श्यामदेवः । अवस्था के आधार पर कवियों के दस प्रकार बताए गए हैं । काव्यविद्यास्नातक, हृदयकवि, अन्यापदेशी, सेविता, घटमान, महाकवि, कविराज आशिक, अविच्छेदी और संक्रामयिता ।
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जो विभिन्न विद्याओं का अध्ययन गुरुकुल या गुरु के पास बैठकर करता है वह काव्यविद्यास्नातक, अपनी रचना को संकोचवशात् प्रकाशित न करने वाला हृदयकवि, अपना दोष दूसरों पर लगा देने वाला अन्यापदेशी, प्राचीन कवियों की छाया ग्रहण कर कविता करने वाला सेविता, फुटकल काव्यकार घटमान, प्रबन्धकाव्य रचनाकार महाकवि, अनेक भाषाओं में रचना करने वाला कविराज, आवेश वशात् काव्यकर्ता आवेशिक, इच्छानुसार काव्य - रचयिता अविच्छेदी एवं मंत्र-तंत्र के प्रभाव से दूसरे किसी व्यक्ति से काव्य - निर्माण करवा लेने वाला कवि संक्रामयिता कहलाता है ।
उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य में आचार्य भिक्षु काव्यविद्या स्नातक और महाकवि की श्रेणी में प्रतिष्ठित दृग्गोचर होते हैं, क्योंकि उन्होंने अपने गुरु से विभिन्न विद्याओं का अध्ययन किया तथा अनेक प्रबन्ध-काव्यों की रचना की है । फुटकल काव्यों की रचना करने से उन्हें घटमान- कवि भी कहा जा सकता है ।
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काव्य- कला की उपासना की दृष्टि से कवि के चार प्रकार माने जाते हैं - असूर्यपश्य, निषण्ण, दत्तावसर और प्रायोजनिक | 24
सूर्य को देखे बिना गर्भ गृह में काव्योपासना करने वाला असूर्य पश्य, रसावेश की स्थिति में काव्यकार निषण्ण, जीविकोपार्जन के लिए काव्यरचयिता दत्तावसर तथा किसी प्रयोजन विशेष की सिद्धि के लिए काव्यकला की उपासना करने वाला कवि प्रायोजनिक कहा जाता है ।
आचार्य भिक्षु प्रायोजनिक कवि थे । वे भगवान् महावीर के अमृतसंदेश को निसर्ग जनता के प्रति पहुंचाने, निर्वाण मार्ग की प्रतिष्ठापना एवं संसार - सागर में फंसे जीवों के उद्धार के लिए काव्य रचना में प्रवृत्त हुए ।
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उनके ग्रन्थों के अवलोकन से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है।
प्रतिभा के आधार पर कवि के तीन भेद माने गए हैं। सारस्वत, आभ्यासिक और औपदेशिक । जो जन्मान्तरीय संस्कार वशात् काव्यरचना में प्रवत्त होता है वह सारस्वत, अभ्यास के बल पर काव्यरचना में प्रवीणता प्राप्त करनेवाला आभ्यासिक तथा गुरु-उपदेश एवं तंत्र-तंत्र की सहायता से काव्य-विरचक औपदेशिक-कवि कहा जाता है।
आचार्य-भिक्षु को यहां सारस्वत-श्रेणी में उपस्थापित किया जा सकता है, क्योंकि ऐसी प्रसिद्धि है कि उन्हें प्राक्तन संस्कार वशात् काव्य-चातुर्य या सिद्ध-सरस्वती की प्राप्ति हुई थी। तेरापंथ-प्रबोध के गीतकार ने स्वामीजी को औत्पत्तिकी-प्रतिभा का अवतार माना है--
'होनहार विरुवान चीकणापात' बात विख्यात है," 'उगंतो ही तपै तेज रवि' उदाहरण नवजात है,
हो सन्तां ! प्रतिभा उत्पत्तिया पाई आकार हो ।
नंदीसूत्र 8 में औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी आदि बुद्धि के चार भेद बताए गए हैं। बिना देखे-पढ़े अर्थों का उपस्थापन औत्पत्तिकी बुद्धि का विषय है। सारस्वत-कवि औत्पत्तिकी-बुद्धि-सम्पन्न होता है । जिस कवि की वाणी में प्रतिभा स्वयमेव प्रवेश कर जाए उसे सारस्थत कहते हैं----'जन्मान्तर संस्कार-प्रवृत्तसरस्वतीकोबुद्धिमान्सारस्वत: कविभिक्षु विलक्षण प्रतिभा से सम्पन्न थे, इसलिए इन्हें सारस्वत कवि कहा जा सकता है।
रचना की मौलिकता की दृष्टि में कवि के चार भेद माने गए हैं-- उत्पादक, परिवर्तक, आच्छादक और संवर्गक । जो स्वयमेव नवीन अर्थों एवं भावों की उपस्थापना करता है वह उत्पादक, प्राचीन कवियों के भावों को बदलकर अपना लेता है वह परिवर्तक, अन्य कवियों की रचनाओं को छिपाकर तत्समान रचना करता है वह आच्छादक तथा अन्य कवि की रचना को अपना कहने वाला संवर्गक-कवि होता है। डाकू को संवर्गक कहा जाता है । प्रस्तुत संदर्भ में आचार्य-भिक्षु को उत्पादक-कवि कहा जा सकता है । इन्होंने अपने ग्रंथों में अन्य किसी कवि के भावों का ग्रहण नहीं किया है।
यहां यह भी विचार्य है कि भाचार्य भिक्षु परिवर्तक-कवि थे ? प्राचीन कवियों के भावों को अपनाकर अपने अनुसार जो अभिव्यक्त करता है वह परिवर्तक-कवि कहलाता है। स्वामी जीने प्राचीन कवियों-गणधरों के भागमिक वचन को ही लोकभाषा में अभिव्यक्त किया है, इसलिए इन्हें परिवर्तक कवि भी कहा जा सकता है।
अर्थापहरण की दृष्टि में कवि के पांच भेद निरूपित किए गए हैंम्रामक, कर्षक, चुंबक, द्रावक और चिंतामणि । २२ जो प्राचीन कवियों के
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भावों का वर्णनकर पाठक पर अपनी रचना की मौलिकया का भ्रम डाल दे वह भ्रामक, अन्यों के भावों को खींचकर अपनी रचना करने वाला कर्षक, अन्यों के भावों को नया रंग देकर आकर्षक बनाने वाला चुंबक, प्राचीन कवियों के भावों को पूर्णतया अपना लेने वाला द्रावक तथा नवीन अर्थ का प्रादुर्भावक चितामणि कवि कहा जाता है। महर्षि वाल्मीकि, कालिदास, भवभूति आदि - चिंतामणि - कवि माने जाते है । आचार्य भीखण को भी इस श्रेणी में रखा जा सकता है क्योंकि वे नवीन अर्थ किंवा नवीन मार्ग के प्रतिष्ठापक थे ।
इस प्रकार स्वामी जी नवीन पंथ के प्रवर्तक क्रांतिकारी -माचार्य, उत्कृष्ट महाव्रती एवं संयम-वीर्य - शील-संपन्न साधु तो थे ही साथ ही उभयकवि, काव्यविद्या स्नातक, महाकवि घटमान, प्रायोजनिक, सारस्वत, परिवर्त्तक एवं चितामणि- कवि भी थे । भिक्षु-ग्रंथ - रत्नाकार के दोनों खंडों में संग्रहित लगभग ५५ रत्न उनकी काव्य- कला एवं उत्कृष्ट प्रतिभा के निदर्शन हैं । तेरापंथ - प्रबोध का एक गीत उनके पूर्ण व्यक्तित्व को उजागर कर देता है
चर्चावादी, कुशल प्रशासक, मीमांसक, संगायक हा, पुरुष - परीक्षक और समीक्षक नव्य नीति निर्णायक हा, हो सन्तां ! प्रकट्यो कोई एक नयो उद्योतकार हो ।
संदर्भ
१. काव्यमीमांसा, बिहार राष्ट्र भाषा परिषद पटना, द्वितीय संस्करण
१९६५, पृ० १६
२. काव्यप्रकाश १.१
३. ध्वन्यालोक पृ० ४२२ ४. काव्यमीमांसा पृ० १५ ५. ईशावास्योपनिषद्
८
६. संस्कृत - हिन्दी कोश (आप्टे) पृ० २५९
७. काव्यप्रकाश १.२ पर वामन झलकीकर विरचित सुखबोधिनी टीका
८. काव्यमीमांसा, अध्याय ५ पृ० ४२
९. भिक्षु दृष्टांत, जैन विश्व भारती से प्रकाशित,
१०. स्वामी भिक्षु विचित नवपदार्थ पृ० १ २
११. भिक्षु ग्रंथ रत्नाकर दो भाग, सम्पादक आचार्यश्री तुलसी, प्रकाशक-जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा कलकत्ता - १, १९६० पृष्ठ संख्या प्रथम भाग ९६२, द्वितीय भाग ७२८
( इस ग्रंथ में स्वामी भीखणजी द्वारा राजस्थानी भाषा में बिरचित
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३४-१-२१=५५ ग्रंथों का संकलन है।
इस संग्रह में महाकाव्य, खंडकाव्य, गीतकाव्य, चरित्रकाव्य के अतिरिक्त राजस्थानी काव्य, चौपई, ढाल, रास, वखांण, चोढालियो आदि काव्यविधाएं हैं । रसमयता एवं भावप्रवणता के अतिरिक्त सशक्त उपदेशात्म
कता का समाश्रयण किया गया है। १२. काव्यमीमांसा अ० ५ पृ० ४१ १३. तत्रैव पृ० ४८ १४. भिक्षु ग्रन्थ रत्नाकर में अनेक फुटकर रचनाएं संकलित हैं १५. भारतीय साहित्य शास्त्रकोश-डा० हीरा, बिहार हिन्दी ग्रंथ अकादमी १६. तत्रैव अकादमी पटना १७. तेरापंथ प्रबोध-जैन विश्व भारती गीत संख्या ३ १८. नंदीसूत्र १९. काव्यमीमांसा अध्याय ४ पृ० ३० २०. भारतीय साहित्यकोश पृ० ३६८ २१. तत्रैव पृ० ३६८ २२. काव्यमीमांसा पृ० १६० २३. तेरापंथ प्रबोध गीत संख्या ७४
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विश्वशान्ति के पुरोधा :
आचार्य श्री तुलसी
परमेश्वर सोलंकी
सन् १९४९ का मर्यादा-महोत्सव राजलदेसर में हुआ था। ४ फरवरी को वहां पेरिस (फ्रांस) के संस्कृत प्रोफेसर रेणु पधारे। २४ फरवरी को आचार्यश्री सरदारशहर पहुंचे और २५ फरवरी को वहां संविधान परिषद् के सदस्य मिहिर वन्द्योपाध्याय एम० पी० आये उसी दिन । आचार्यश्री ने अपने उद्बोधन में कहा
"पहले का समय अब आज नहीं रहा ।.........मैंने भी ११ वर्ष के शासन में यह अनुभव किया है कि आखिर युवक धार्मिक भावनाओं से दूर क्यों होते जा रहे हैं ? तो सोचा-युवक क्रान्ति चाहते
-इस कथन के पीछे तत्कालीन भारत के प्रधान न्यायाधीश सर पेट्रिक स्पेन्स, लेडी मेरी स्पेन्स और तत्कालीन भारतीय सामाजिक-स्वास्थ्य, नैतिकता और सदाचार सभा की मुख्य संगठक कुमारी एम. शेफर्ड के प्रश्नोत्तर थे ।'
दरअसल आचार्यश्री ने ग्यारह वर्ष की वय में परिवार की चिन्ता छोड़ 'तेरापंथ संघ' का मुनि-व्रत धारण किया और बाईसवें वर्ष साधुसाध्वियों के अभ्युत्थान का जिम्मा लिया और तेतीस वर्ष की वय में वे मानव मात्र के कल्याणार्थ सतत सचेष्ट हो गए।
सन् १९४५ में जबकि वे ६२७ साधु-साध्वियों के आत्मिक उन्नति और उनके चारित्रिक अभ्युत्थान के लिए प्रयत्नशील थे तो उन्होंने २९ जून १९४५ को अशांत विश्व की शांति के लिए निम्न संदेश दिया।
"यह बात तो बिल्कुल स्पष्ट है कि आज की दुनिया सर्वतोमुखी अशान्ति से व्याकुल एवं पीड़ित है; केवल इने-गिने दृढ़वती, संतोषी, आत्म-कल्याण के पथिक, सर्वस्व त्यागी साधुओं के अतिखंड १९, अंक ३
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रिक्त प्रायः समस्त ही लोक अपना जीवन बड़ी ही अशान्ति एवं विषम परिस्थितियों में से व्यतीत करता हुआ नजर आ रहा है। ऐसी सर्वव्यापिनी अशान्ति के कई कारण हो सकते हैं। परन्तु साम्प्रतकालीन अशान्ति का कारण जो हमारे सामने है, वह है--- महाभीषण, प्रलयंकारी विश्व युद्ध ! यद्यपि यह युद्ध, विश्व के कतिपय क्षेत्रों तक ही सीमित है, तथापि उसका विषैला प्रभाव दुनिया के कोने-कोने में अपना असर डाल रहा है और इसीलिये यह ठीक ही विश्वव्यापी युद्ध कहा जाता है । युद्ध नाम 'पारस्परिकसंघर्ष' का है। किसी भी प्रकार के पारस्परिक संघर्ष में अशान्ति, असंतोष एवं विनाश के अतिरिक्त कोई लाभ नहीं हो सकता ।
प्राचीनकाल में युद्ध प्रायः तीन कारण से ही हुआ करते थे :-(१) स्त्री के लिए, (२) धन के लिए और (३) भूमि के लिए। राम और रावण का महायुद्ध, जो रामायण में सविस्तार वर्णित है, एक मात्र साध्वी सीता को लेकर हुआ था। जैन शास्त्रों में वर्णित कोणिक और महाराज चेटक का महा संग्राम, दीर्घ काल तक चालू रहा और उसमें केवल दो ही दिनों में एक करोड़ अस्सी लाख मनुष्यों का काल सिद्ध हुआ। इस युद्ध का मूल हेतु बहुमूल्य हार और सेचनक नामक गंधीहस्ती था। इस तरह यह युद्ध सम्पत्तिधन के लिए ही हुआ था।
कौरव और पाण्डवों का महायुद्ध -जोकि अनेक अक्षोहिणियों एवं अनेक महारथी वीरों का क्षय करने वाला हुआ तथा जिसमें अर्जुन के पुत्र वीर अभिमन्यु जैसे की अन्याय मृत्यु हुई थीपाण्डव चरित्र में पूर्णतया वर्णित है। इस संग्राम का मूल कारण था-भूमि। जबकि पाण्डव बारह वर्ष के प्रकट वनवास एवं तेरहवें वर्ष के प्रच्छन्न वास करने के बाद भाई दुर्योधन के पास केवल पांच ही ग्राम मांग कर संतोष कर लेना चाहते थे, तब क्या हानि होती यदि दुर्योधन उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता और विश्व को उस महा भीषण संग्राम से और उसके विनाशकारी दुष्प्रभाव से मुक्त रखता ? अथवा क्या हर्ज होता अगर पाण्डव ही तेरह वर्ष की तरह समूचा जीवन संयम से व्यतीत कर लेते ? परन्तु जमीन का विषय ऐसा ही है कि मनुष्य इसके लिए सार्वजनिक हिताहित और अपने कर्त्तव्याकर्त्तव्य की भावना को भी भूल जाता
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सांप्रतकालीन युद्ध के कारणों में दो कारण तो वे ही हैं जो ऊपर बतलाये गये हैं, परन्तु पहले कारण से अर्थात् स्त्री के हेतु से युद्ध आधुनिक समय में कम ही सुनने में आते हैं। उसके स्थान में अब एक अन्य ही कारण प्रचलित हो गया है। वह है, अपने सिद्धांतवाद या मत विशेष का प्रचार। यद्यपि वास्तविक सत्य सिद्धान्त एवं मत का प्रचार अत्यावश्यक है और प्रत्येक मनुष्य के हृदय में सत्य धर्म, सिद्धान्त या मत की अमिट छाप का लगना भी जरूरो है, परन्तु वह उपदेश शिक्षा तथा अनवद्य प्रचार प्रद्धति के द्वारा, हृदय-परिवर्तन करके ही किया जाना अभीष्ट है।
इसके विपरीत सत्य सिद्धान्तों एवं विचारों के प्रचार के लिए भी जो कलह, युद्ध या प्राणनाशकारी शास्त्रादिक का प्रयोग करता है, वह निश्चय ही धर्म को उसके उच्च स्थान से गिराने वाला और संसार शान्ति को भंग और विनाश करने वाला होता है । भगवान् महावीर जो सत्य धर्म के महान् प्रणेता और तत्कालीन परिस्थितियों में, ऐतिहासिक दृष्टि से, एक महान् क्रान्तिकारी विचार प्रवर्तक के रूप में दुनिया में प्रकट हुए थे। उन्होंने केवल उपदेश से व अपने विशुद्ध आचरण के आदर्श को जनता के समक्ष उपस्थित करके तथा निर्वद्य प्रचार पद्धति को काम में लाकर ही उस हिंसायुग में अहिंसा धर्म को विश्वव्यापी बनाया था न कि जोर-जुल्म, विग्रह, संग्राम, आर्थिक प्रलोभन या बल प्रयोग से ।
जबरदस्ती या आर्थिक प्रलोभन से चोर की चोरी, हिंसक की हिंसा, व्यभिचारी का व्यभिचार दूर करना 'धर्म प्रचार करना' न कहा जाकर 'अधर्मप्रचार' की कक्षा में आ जाता है और अन्त में वही अशान्ति या युद्ध का कारण बन जाता है। वर्तमान जगत के फॉसिज्म, नाजिज्म, बोलसेविज्म आदि वादों को इसी श्रेणी में लिया जा सकता है। जिन वादों, शासन-सत्ता व धर्मों का अस्तित्व और प्रचार, प्रतिशोध और हिंसा तथा पशुबल के आधार पर होता है वे संसार में चिरस्थायी एवं वास्तविक शान्ति की स्थापना नहीं कर सकते हैं।
इसके अतिरिक्त वर्तमान कालीन युद्धों के कुछ अन्य कारण भी हैं । हम केवल दो ही कारणों का उल्लेख करते हैं यथा
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(१) वर्तमान शिक्षा प्रणाली : वर्तमान शिक्षा प्रणाली में केवल भौतिक अभिसिद्धि ही मुखतया लक्ष्यभूत् रहती है। आध्यात्मिक विकास, जो कि शिक्षा का मूल और चरम लक्ष्य रहना चाहिए, वह आधुनिक शिक्षा प्रणाली में सबसे कम है। प्रारंभ से ही अपरिपक्व मस्तिष्क वाले बालकों को यही बात सिखलाई जाती है कि आत्मा नाम की कोई सनातन वस्तु नहीं है। बन्दरों की विकसित अवस्था ही मनुष्य है तथा आत्मा की उन्नति एवं जनकल्याण की भावना के विकास का कोई मार्ग आमतौर से नहीं बताया जाता है। इसके कारण उस अवस्था से ही बालकों के हृदय में अविनय, उच्छृङ्खलता तथा स्वार्थ-परायणता और केवल भौतिक अभिसिद्धि की ही भावना आदि अनेक अवगुण घर कर लेते हैं और आगे चलकर ये ही अशान्ति के कारण रूप बन जाते हैं।
(२) वैज्ञानिक आविष्कारों के साथ-साथ प्रलयंकारी अस्त्रशस्त्रों की आविष्कृति और उनका उपयोग : हालांकि विज्ञान कोई बुरी चीज नहीं है और न विज्ञान के द्वारा किये गये आविष्कार ही सदैव अशान्ति के कारण होते हैं, परन्तु उनके प्रयोग में पूर्ण सतर्कता और सदभावना की आवश्यकता होती है। जैन सिद्धान्तों में भी तेजोलब्धि आदि कई शक्तियों का वर्णन है। वह कई प्रकार की कठोर साधनाओं के द्वारा ही प्राप्त होती थी। जिसके पास वह शक्ति मौजूद होती है, वह मनुष्य अपने स्थान से ही उसके प्रयोग से एक बहुत बड़े भूभाग को (सोलह देशों को) भष्म कर सकता है। परन्तु ऐसी शक्तियों के साधकों को यह बात भी सिखलाई जाती थी कि उन शक्तियों को प्रयोग में लाने वाला उत्कृष्टत: अनन्त काल पर्यन्त संसार-चक्र में वास-परिभ्रमण करता है। इसी कारण से ही वे शक्तिशाली किन्तु भवभीक मनुष्य वैसी शक्ति को काम में लाने से विमुख रहते थे।
किन्तु आधुनिक वैज्ञानिकों के हृदय में ऐसी भावना बहुत कम रहती है और अपने विनाशकारी आविष्कारों के प्रयोग में वे संसार के हित-अहित को भूल जाते हैं । फलस्वरूप विभिन्न देशों के वैज्ञानिकों के आविष्कारों की पारस्परिक स्पर्धा आगे जाकर भीषण संहार के रूप में प्रकट होती है।
युद्ध प्राचीनकाल में भी होते थे, वर्तमान काल में भी होते २२४
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हैं और भविष्यत्काल में नहीं होंगे ऐसी बात भी नहीं है । क्योंकि दुनिया में जब तक राग, द्वेष, ईर्षा आदि विद्यमान रहेंगे तब तक किसी न किसी रूप में युद्ध भी होते रहेंगे। किन्तु अर्वाचीन युद्ध प्राचीन युद्धों की अपेक्षा अधिक विषम एवं नाशक हैं ।
प्राचीन युद्धों में प्रायः सैनिक और योद्धाओं का ही संहार होता था वहां वर्तमान में योद्धाओं के युद्धों में सैनिकों के साथ निर्दोष नागरिकों-यहां तक कि बालक, स्त्री और अपाहिज तथा रोगियों का भी घमासान देखने और सुनने में आता है। प्राचीन युद्धों में रथारोही का रथारोही से, अश्वारोही का अश्वारोही से, पैदल का पैदल से अर्थात् उभय पक्ष में समान शस्त्रों से ही प्रायः युद्ध होता था। आकस्मिक आक्रमण की अपेक्षा सामने वाले को सावधान करके तथा ललकार कर प्रहार किया जाता था। अचानक या धोखे से आक्रमण करना अधर्म युद्ध कहा जाता था। अर्थात् युद्ध में भी नीति, न्याय और औचित्य पर दृष्टि रखी जाती थी। इसके विषय में त्रिपृष्ठ वासुदेव का उदाहरण बड़ा ही संगत है ।
___ ऐसे महायोद्धा भी थे कि जो संग्राम में भी विपक्षी के बाण चलाने के पहले बाण न चलाने की प्रतिज्ञा रखते थे। प्रसंग अनुकूल वरुण (नाग दौहित्र) या महाराज चेटक का दृष्टांत भी हृदयग्राही है। इसलिए मूलतः युद्ध पापमय होते हुए भी नीतिपूर्ण होने के कारण धर्म युद्ध कहलाते थे। आधुनिक युद्धों में तो एक मात्र नर संहार ही मुख्य उद्देश्य रहता हैं। चाहे वह किसी प्रकार किया जाये । इस कारण से वर्तमान कालीन युद्धों को यद्ध नहीं कह कर महाप्रलय कहें तो भी अतिशयोक्ति नहीं होगी।
इसी से युद्ध जन्य अशान्ति से आक्रान्त होकर समस्त विश्व आज शान्ति की मांग कर रहा है। विश्व-धर्म-सम्मेलन इस बात की अपील कर रहा है कि समस्त धर्माचार्यों का यह कर्तव्य है कि वे अपनी ऐसी आवाज प्रत्येक प्राणी के कानों तक पहुंचायें जिससे शान्ति की पूनः स्थापना हो सके। विश्व धर्म सम्मेलन की अपील हमारे कानों में भी पड़ी और एक धर्माचार्य की हैसियत से पीड़ित संसार को शान्ति का यह संदेश सुनाने को उद्यत हुआ
. मुझे आशा है कि संसार का प्रत्येक सहृदय, शान्ति का खण्ड १९, अंक ३
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इच्छुक सज्जन शान्ति के इस शुभ सन्देश को दत्त चित्त होकर सुनेगा, मनन करेगा और जीवन के प्रत्येक कार्य में अवलम्बन करते हुए न केवल अपनी आत्मा को ही शान्ति प्रदान करेगा प्रत्युत साथ-साथ विश्व-शांति के प्रचार में भी सहायक होगा।'
___ आचार्य श्री ने सरदारशहर की उस जनसभा को “शांति" की व्याख्या उसके भेद और विश्व-शांति के लिए कुछ सार्वभौम उपाय भी बतलाए । उन्होंने कहा कि शांति उस आलाद का नाम है जिससे आत्मा में जागृति, चेतनता, पवित्रता, हलकापन और मूल स्वरूप की अनुभूति होती है। एक वह भी शांति, संसार में कही जाती है जो भौतिक (पोद्गलिक) इष्ट वस्तु प्राप्ति के संयोग से क्षणिक शारीरिक एवं मानसिक परितृप्ति के रूप में प्राणी को अनुभव में आती है परन्तु वह शांति-अशांति की कारणभूत होने से वास्तविक शांति नहीं है।
आचार्यश्री ने वास्तविक शांति के लिए महाव्रत, व्रत और सम्यक्त्व की व्याख्या प्रस्तुत की। प्राणातिपात विरमण व्रत, मृषावाद विरमण व्रत, अदत्तादान विरमण व्रत, मैथुन विरमण व्रत और परिग्रह विरमण व्रत-पांच महाव्रत बताए।
- व्रत पालन में पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत बताए और उनका खुलासा किया। उन्होंने कहा कि अणुव्रत, गुणव्रत
और शिक्षा व्रतों को पालन करने से ही वास्तविक शांति प्राप्त होती है । उन्होंने सम्यक्त्व की भी व्याख्या की और विश्वशांति के लिए नौ उपाय बताए ।
मापने कहा कि त्रिधर्म--प्रोटेस्टेन्ट, केथोलिक और यहूदी-के घोषणापत्रों में जिन सात सिद्धांतों का उल्लेख है वे सभी सांसारिक प्रवृति से संबंध रखते हैं और जनमुनि होने से उनके प्रति हम अपनी सम्मति प्रदर्शित नहीं कर सकते।
आचार्यश्री द्वारा विश्वशांति के लिए सुझाये गये ९ सार्वभौम उपाय इस प्रकार हैं
१. प्रथम विश्व भर में अहिंसा का प्रचार किया जाय और हिंसा के
प्रति जनसाधारण के हृदय में घृणा-हार्दिक घृणा उत्पन्न की जाय । 'स्वजीवन की तरह ही दूसरों को भी अपना जीवन वल्लभ है-न कि मरण'--इसका पाठ पढ़ाया जाय जिससे शांति का बीजारोपण हो सके। २. क्रोध, अभिमान, दम्भ और असंतोष ये चारों ही अशांति के मूल हैं । जितने ही विग्रह जगत् में हैं वे सब कषाय-चतुष्क के ही
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प्रभाव मात्र हैं। इसलिए यथासाध्य इन चारों को कम करने का पूर्ण प्रयत्न किया जाय । ३. वर्तमान शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन किया जाय । भौतिक अभिसिद्धि को ही एकमात्र लक्ष्य न रख कर शिक्षा में आध्यात्मिकता को मुख्य स्थान दिया जाय । इसके लिए राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय
चेष्टा की जाय । ४. भावी मानव समाज की व्यवस्था नैतिक और धार्मिक तथा सदा
चार पूर्ण नियमों को छोड़ कर द्वेष और स्वार्थपूर्ण तथा शोषण नीति के आधार पर न की जाय । ५. वैज्ञानिक आविष्कारों का उपयोग अनियंत्रित रूप से नहीं किया
जाय । कम से कम युद्ध के लिए तो एक बारगी ही बंद कर दिया जाय । भौतिक सुखों के लिए भी यथासाध्य उनका उपयोग करने
की चेष्टा कम की जाय । ६. ऐसे राष्ट्रीय प्रेम का, जिससे अन्य राष्ट्रों से मनोमालिन्य होने
की संभावना हो-प्रचार न किया जाय । उसकी अपेक्षा वास्तविक विश्व बंधुत्व का प्रचार अधिक से अधिक किया जाय और आर्थिक तथा राजनैतिक प्रतिद्वन्द्विता को घटाने का पूर्ण प्रयास किया जाय। ७. आवश्यकता से अधिक संचय करने की चेष्टा न की जाय । पारस्परिक स्पर्धा, ईर्ष्या, सत्ता प्राप्ति, दूसरे की सम्पत्ति, स्वत्त्व और सौख्य को हड़पने की चेष्टा न की जाय । इसी से व्यक्ति, समाज और राष्ट्रों में अशांति हो जाती है। ८. दुर्बल, दलित जातियों और देशों पर जाति-विशेष के कारण
अन्याय और अत्याचार न किया जाय । न्याय, अपक्षपात और मनुष्यत्व के मूल सिद्धांत जीवन में अधिक से अधिक विकसित किये जाय। ९. बल प्रयोग, कूटनीति, आर्थिक प्रलोभन और अन्य अन्यायपूर्ण
तथा कुत्सित साधनों से किसी भी मत, धर्म, सिद्धांत या विचारधारा का प्रचार न किया जाय ।
धार्मिक स्वतंत्रता प्रत्येक राष्ट्र को उपलब्ध हो। धार्मिक स्वतंत्रता का अपहरण करना या धर्माधिकारों पर कुठाराघात करना, मनुष्य के जन्म सिद्ध अधिकारों पर आघात करना है।'
माचार्यश्री ने बाद में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में हुए विश्वधर्म सम्मेलन की तरह भारत में भी विश्वशांति के लिए प्रयास किए जाने की प्रेरणा दी और सन् १९४९ में, शांति निकेतन में वह बृहत् विश्वशांति सम्मेलन हुआ।
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उसके लिए आचार्यश्री ने विश्वशान्ति और उसका मार्गशीर्षक एक विस्तृत संदेश भेजा। इस संदेश में अशांति के हेतुओं को बताकर अशांतिनिवारण के व्यावहारिक उपाय सुझाए गए। भावी समाज की नींव और सुधार केन्द्रों की परिकल्पना के साथ द्विकर संयोग (समाज और राज्य के संयोग) से शांति के कुछ साधन तुरन्त किये जाने को तेरह सुझाव दिए गए। ये सुझाव निम्न प्रकार हैं-----
१. समाज रचना का मूल आधार सत्य और अहिंसा रहे । २. अहिंसा दार्शनिक तत्त्व के रूप में नहीं---आचरण के रूप में
स्वीकार की जाय । ३. पशु बल का मुकाबिला पशुबल से न किया जाय । ४. अहिंसा और अपरिग्रह का वातावरण बनाया जाय । ५. अर्थ संग्रह न किया जाय । किसी प्रकार से भी आर्थिक शोषण न
किया जाय। ६. जीवन की आवश्यकताओं का विस्तार न किया जाय । दूसरों की
आवश्यकताओं पर अधिकार न किया जाय । ७. भौतिक सुख-सुविधाओं को प्राधान्य देने वाले तथा भौतिक ___ शक्तियों में विश्वास रखने वाले समाज, जाति या राष्ट्र से प्रति
स्पर्धा न की जाय । ८. व्यक्ति-व्यक्ति को संयम और आध्यात्मिकता की शिक्षा दी
जाय । ९. अपना सिद्धांत दूसरे पर जबरदस्ती न थोपा जाय । सैद्धांतिक
मत भेदों के कारण अनुचित व्यवहार न किया जाय । १०. राजनीतिक सत्ता या पद-प्राप्ति का लोभ न रखा जाय । ११. प्रतिशोध की भावना से किसी को भी दण्ड न दिया जाय । १२. जातिगत या सम्प्रदायगत संघर्षों को प्रोत्साहन न दिया
जाय । .. १३. जिनसे कम लाभ और अधिक अत्याचार हो ऐसे नियमों का
निर्माण न किया जाय ।'
इस प्रकार आचार्य श्री तुलसी द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जन्मीं मानवमात्र के प्रति कल्याण-भावना से ओतप्रोत रहे हैं और उन्होंने विश्व शांति के लिए यत्रतत्र सर्वत्र सत्प्रयत्न किए हैं। विशेष रूप से सन् १९४३ के अक्टूबर माह में, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में, प्रोटेस्टेण्ट, केथोलिक और यहदी संप्रदायों के १४० प्रतिनिधि एकत्र हुए और उन्होंने सात सर्व सम्मत सिद्धांत घोषित किए तो भारत से विश्वशांति के पुरोधा के रूप में आचार्य
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श्री तुलसी ने भी अपनी बात कही और उसे उपयुक्त समर्थन भी मिला । हालांकि एक जैन मुनि होने से आचार्यश्री प्रवृत्ति मूलक सिद्धांतों पर अपनी सहमति नहीं दे सकते थे किंतु उन्होंने राष्ट्र-राष्ट्र, देश-देश, राज्य-राज्य
और समाज -समाज में भाईचारे से रहने--जीयो और जीने दो-.-के सिद्धांत को पुरस्कर किया। उन्होंने संदेश दिया कि वैर से वैर नहीं मिटता किन्तु अवैर से वैर समाप्त होकर शांति प्राप्त हो जाती है
'हणन्तं वाऽणुजाणाइ वैरं वड्डई अप्पणो ।' भगवान महावीर का उपदेश स्मर्तव्य है--
उवसमेण हणो कोहं माण महवया जिणं । मायमज्जवभावेण
लोभं संतोसओ जिणे ।। कि शांति से क्रोध को जीतो। नम्रता से अभिमान को, सरलता से माया को और संतोष से लोभ को जीत लो। यह संदेश दुनिया के लिये शांति, संतोष, आर्जव और मार्दव का यथार्थ पाठ है ।
संदर्भ १. देखें---तुलसी प्रज्ञा खंड १८, अंक २ का संपादकीय । २. प्रस्तुत संदेश, विश्व धर्म सम्मेलन, लंदन की ओर से प्राप्त ई० पामस्टी के पत्र के निवेदन होने पर आचार्य श्री तुलसी ने सरदारशहर की सभा में दिया था। स्वेडिश विदेश मंत्री रहे बेरोन ई० पामस्टी विश्वधर्म सम्मेलन, लंदन द्वारा नियुक्त भिन्न-भिन्न मतों के अनुयायियों की प्रतिनिधि समिति के सदस्य थे और उन्होंने विश्व धर्म सम्मेलन की ओर से जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा को पत्र लिखकर सहयोग, सहायता भौर सत्परामर्श मांगा था। यह पत्र लंदन से १ अक्टूबर, १९४४ को भेजा गया किंतु वह कलकत्ता ओर गंगाशहर की यात्रा करता हुआ २९ जून १९४५ को सरदारशहर में आचार्य श्री को निवेदन हुआ और उसी दिन प्रायः दो हजार के लोक समूह के बीच आचार्यश्री ने एक महत्त्वपूर्ण धर्मप्रवचन किया जिसके आधार पर यह संदेश तैयार किया गया । (नोट-पत्र का हिंदी अनुवाद आगे दिया जा रहा है।) ३. दिनांक २३-११-४५ को श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, ___ कलकत्ता की ओर से प्रकाशित-अशांत विश्व को शांति का
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संदेश-शीर्षक बुकलेट से उद्धृत । ४. ई० पामस्टीर्ना ने अपने पत्र के साथ जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सभा
को विश्वशांति पर त्रिधर्म-घोषणा शीर्षक से अक्टूबर ७ सन् १९४३ को की गई केथोलिकों, यहूदियों और प्रोटेस्टेन्टों की घोषणाओं के आधार पर कौंसिल ऑफ क्रिस्चियन खण्ड जियूज (बिट्रेन) अमेरिका की ओर से जारी मई १९४४ की विज्ञप्ति भी भेजी
थी। विज्ञप्ति का हिन्दी अनुवाद आगे दिया जा रहा है । ५. श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सभा, कलकत्ता के प्रकाशन से
उद्धृत । ६. श्री जैन श्वेतांबर तेरापंथी सभा, कलकत्ता का प्रकाशन--विश्वशांति और उसका मार्ग । विश्वधर्म सम्मेलन के लंदन-कार्यालय की ओर से प्राप्त पत्र का हिन्दी अनुवाद
लंदन, १ अक्टूबर, १९४४ प्रिय महाशय,
__ सर्वत्र यह भावना दृढ़तर होती जा रही है कि जब तक मानबीय गतिविधि का संचालन उन नैतिक नियमों के आधार पर नहीं होता जोकि सामान्यतया संसार के समस्त धर्मों में मान्य एवं सन्निहित हैं, तब तक संसार में वास्तविक एवं चिर स्थायी शांति की स्थापना नहीं हो सकती है। युद्ध के समाप्त होने पर जब राजनीतिज्ञगण मानव जाति की भावी शासन-व्यवस्था की रूपरेखा का निर्माण करेंगे तब विश्व के धर्माचार्यों और आध्यात्मिक चेतना-सम्पन्न नरनारियों का यह कर्त्तव्य हो जायगा कि वे अपनी वाणी को जनसाधारण तक पहुंचायें।
सन् १९४३ के अक्टूबर में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में प्रायः १४० प्रोटेस्टेन्ट, कैथोलिक और यहूदी सम्प्रदाय के अधिकारी प्रवक्ताओं द्वारा विश्वशांति पर एक विज्ञप्ति प्रकाशित हुई थी। उक्त विधर्म विज्ञप्ति में निम्नलिखित सात सिद्धांत घोषित किए गए हैं----
१. संसार की सत्ता का व्यवस्थापन नैतिक नियमों के द्वारा हो। २. व्यक्तियों के स्वत्व सुरक्षित रहें। ३. दलित, निर्बल और वर्णवाली जातियों के स्वत्वों की रक्षा की
जाय। ४. अल्पसंख्यक जातियों के अधिकार सुरक्षित रहें। ५. न्यायपूर्ण शांति को कायम रखने के लिये अंतर्राष्ट्रीय संस्थायें
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संगठित की जायं । ६. अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक सहयोग को प्रसारित किया जाय । ७. प्रत्येक राष्ट्र में न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था उपलब्ध हो ।
कुछ महीनों के पश्चात् सन् १९४४ के मई महीने में प्रोटेस्टेन्ट, केथोलिक और यहूदी सम्प्रदायों की प्रतिनिधि संस्था, ब्रिटेन की कौंसिल ऑफ क्रिश्चियंस एण्ड जियूज ने उपरोक्त घोषणा का स्वागत करते हुए एवं तत्रान्तर्गत सिद्धांतों के प्रति समर्थनात्मक भाव प्रदर्शित करते हुए एक विज्ञप्ति प्रकाशित की।
विश्वधर्म सम्मेलन में-जिसका मुख्य उद्देश्य धर्म के माध्यम से भ्रातृत्व की भावना का प्रसार और वैयक्तिक, राष्ट्रीय एवं धार्मिक विचार स्वातंत्र्य को अक्षुण्ण रखते हुए विश्व प्रेम की भावना को जागृत करना है, समस्त प्रचलित धर्मों के अनुयायी सम्मिलित हैं। भिन्न-भिन्न मतों के अनुयायियों की एक समिति द्वारा इस सभा को आमंत्रण प्राप्त हुआ है कि उपरोक्त घोषणा संसार के समस्त धार्मिक प्रमुखों को अवगत की जाय ।
विश्व धर्म सम्मेलन ऐसी महत्त्वपूर्ण प्रेरणा का स्वागत करते हुए दोनों विज्ञप्तियों को आपकी सेवा में प्रेषित करने का साहस करते हुए सादर अनुरोध के साथ यह जिज्ञासा करती है कि आप इनमें अभिव्यक्त सिद्धांतों के प्रति किस प्रकार अपना बहुमूल्य समर्थन प्रदान कर सकेंगे। सर्वसाधारण की यह एक महान् सेवा होगी, यदि आप अपने समस्त अधिकृत साधनों द्वारा इन विज्ञप्तियों की तरह अपने सम्प्रदाय के अन्य सदस्यों का ध्यान आकर्षित करते हुए उनकी अभिरुचि एवं समर्थन प्राप्त कर पायेंगे ।
- हमारा दृढ़ विश्वास है कि संसार के राजनीतिज्ञों के पथ-प्रदर्शन के लिए एक ऐसे विश्व मत को जागृत करना अत्यावश्यक है जिसके द्वारा भविष्य के निर्मायक साधनों को निश्चित करने का महान् कार्य सम्पन्न होगा।
इस प्रयत्न को अग्रसर करने के लिए क्या हम आशा करें कि आपका सहयोग, सहायता और सत्परामर्श हमें प्राप्त हो सकेंगे।
विश्व धर्म सम्मेलन के लिए
__ (ह०) ई० पामस्टीर्ना संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में ७-१०-१९४३ को हुए विश्वधर्म सम्मेलन बाबत कौंसिल ऑफ क्रिश्चियन एण्ड जियूज,
लंदन की ओर से जारी विज्ञप्ति का हिंदी अनुवाद अक्टूबर ७, सन् १९४३ को अमेरिका के प्रोटेस्टेन्ट, रोमन केथोलिक
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और यहूदी सम्प्रदायों के प्रमुखों द्वारा प्रकाशित एवं मान्य विश्वशांति की घोषणा को ग्रेट ब्रिटेन का यह ईसाई और यहूदी परिषद् हृदय से स्वागत करता है और तत्रान्तर्गत निहित सिद्धांतों के प्रति अपनी सहमति प्रकट करता है । वर्गों के पारस्परिक संबंधों में जनता के सामाजिक जीवन में तथा अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों में धार्मिक और नैतिक सिद्धांतों का प्रयोग करने पर जोर देना इस परिषद् के उद्देश्यों के सर्वथा अनुकूल है ।
इस परिषद् का दृढ़ विश्वास है कि शांति तथा शत्रुओं में सद्भावना के प्रतिष्ठापन, युद्ध और युद्ध जनित हानियों का मूलोच्छेदन, रचनात्मक कार्य करना और सद् विश्वास के नवयुग का प्रवर्तन करने के लिए प्रार्थना और प्रयत्न करना समस्त धार्मिक व्यक्तियों का परम कर्तव्य है । प्रत्येक व्यक्ति के स्वत्वों के प्रति विशेषतया निर्धन, निर्बल और अनुन्नत व्यक्तियों के लिये और समस्त मानव-समाज के प्रति उत्तरदायित्व की भावना रखने के लिए, समस्त विवेकी पुरुषों और स्त्रियों की शक्ति का समुचित प्रयोग किया जाना परमावश्यक है । चर्च और सिनागोग का कर्त्तव्य है कि वे अपने अनुयायियों को न केवल इसके लिए प्रोत्साहित ही करें अपितु राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा अन्य लोकोपकारी साधनों में ऐसी भावना अनुप्राणित करें जिससे कि सुखद सांसारिक व्यवस्था को स्थापित किया जा सके ।
धार्मिक भीत्ति के अभाव में चिरस्थायी शांति स्थापित नहीं हो सकती है । वर्तमान संसार के आर्थिक और राजनीतिक ढांचे की अपेक्षा चर्च और सिनागोग प्राचीनतर एवं उच्चतर अंतर्राष्ट्रीय एवं सार्वभौमिक संस्था होने के कारण ऐसे संकट काल में दृढ़तापूर्वक अपने विचारों को प्रकट करने की अधिकारिणी हैं । वे ऐसे ईश्वरीय सिद्धांतों की भीत्ति पर स्थापित है जिन पर सामाजिक न्याय अवस्थित रहना चाहिए ।
राजनीतिक संस्थाओं का पुनस्संगठन का पुनः उचित प्रारंभ, राष्ट्रों की एकता, अंतर्निर्भरता और हितकारिता को प्रोत्साहित करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का पुनः प्रस्थापन, प्रतिनिधि राजनीतिज्ञगणों और व्यवस्थापिका सभाओं का प्रमुख उद्देश्य रहेगा । इसके साथ-साथ राजनीतिज्ञगणों की योजनाओं और कार्यों को धर्म की कसौटी पर कसने तथा न्याय, दया तथा शांति से उनका सामञ्जस्य तो है इस पर नियंत्रणात्मक दृष्टि रखने के उत्तरदायित्व में समस्त ईसाई और यहूदी जन पूर्ण सहयोग प्रदान करेंगे |
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जैन आगमों में हुआ भाषिक स्वरूप परिवर्तन :
एक विमर्श
सागरमल जैन
प्राकृत एक भाषा न होकर, भाषा समूह है। प्राकृत के इन विविध भाषित रूपों का उल्लेख हेमचन्द्र प्रति प्राकत-व्याकरणविदों ने किया है। प्राकृत के जो विभिन्न भाषिक रूप उपलब्ध हैं, उन्हें निम्न भाषिक वर्गों में विभक्त किया जाता है.मागधी, अर्द्ध-मागधी, शौरसेनी, जैन शौरसेनी, महाराष्ट्री, जैन महाराष्ट्री, पैशाची, ब्राचड, चूलिका, ढक्की आदि । इन विभिन्न प्राकृतों से ही आगे चलकर अपभ्रंश के विविध रूपों का विकास हुआ
और जिनसे कालान्तर में असमिया, बंगला, उड़िया, भोजपुरी या पूर्वी हिन्दी, पंजाबी, राजस्थानी, गुजराती, मराठी आदि भारतीय भाषायें अस्तित्व में आयी । अतः प्राकृतें सभी भारतीय भाषाओं की पूर्वज हैं और आधुनिक हिन्दी का विकास भी इन्हीं के आधार पर हुआ है।
मेरी दृष्टि में तो संस्कृत भाषा का विकास भी, इन्हीं प्राकृतों (विभिन्न बोलियों) को संस्कारित करके एक सामान्य सम्पर्क भाषा के विकास के हेतु ही हुआ है, जिसका प्राचीन रूप छान्दस् (वैदिक संस्कृत) था और वही छान्दस् भाषा ही साहित्यिक संस्कृत की जननी है । जिस प्रकार विभिन्न उत्तर भारतीय बोलियों (अपभ्रश के विविध रूपों) से हमारी हिन्दी भाषा का विकास हुआ है, उसी प्रकार प्राचीन काल में विभिन्न प्राकृत बोलियों से संस्कृत भाषा का निर्माण हुआ । संस्कृत शब्द ही इस तथ्य का प्रमाण है कि वह एक संस्कारित भाषा है, जबकि प्राकृत शब्द ही प्राकृत को मूल भाषा के रूप में अधिष्ठित करता है। प्राकृत की 'प्रकृतिर्यस्य संस्कृतम्' कहकर जो व्याख्या की जाती है, वह मात्र संस्कृतविदों को प्राकृत-व्याकरण का स्वरूप समझाने की दष्टि से की जाती है।
_प्राकृत के संदर्भ में हमें एक दो बातें और समझ लेनी चाहिए। प्रथम सभी प्राकृत व्याकरण संस्कृत में लिखे गये हैं, क्योंकि उनका प्रयोजन संस्कृत के विद्वानों को प्राकृत भाषा के स्वरूप का ज्ञान कराना रहा है। वास्तविकता तो यह है कि प्राकृत भाषा की आधारगत बहुविधता के कारण
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उसका कोई एक सम्पूर्ण व्याकरण बना पाना ही कठिन है। उसका विकास विविध बोलियों से हुआ है और बोलियों में विविधता होती है। साथ ही उनमें देश-काल गत प्रभावों और सुख-सुविधाओं के कारण परिवर्तन होते रहते हैं । प्राकृत निर्भर की भांति बहती भाषा है। उसे व्याकरण में आबद्ध कर पाना संभव नहीं है। इसीलिए प्राकृत को 'बहुलं' अर्थात विविध वैकल्पिक रूपों वाली भाषा कहा जाता है ।
वस्तुतः प्राकृतें अपने मूल रूप में भाषा न होकर बोलियां ही रहीं हैं। यहां तक कि साहित्यिक नाटकों में भी इनका प्रयोग बोलियों के रूप में ही देखा जाता है और यही कारण है कि मृच्छकटिक जैसे नाटक में अनेक प्राकृतों का प्रयोग हुआ है, उसके विभिन्न पात्र भिन्न-भिन्न प्राकृतें बोलते हैं। इन विभिन्न प्राकृतों में से अधिकांश का अस्तित्व मात्र बोली के रूप में ही रहा, जिनके निदर्शन नाटकों और अभिलेखों में पाये जाते हैं। मात्र अर्द्धमागधी, जैन-शौरसेनी और जैन महाराष्ट्रीय ही ऐसी भाषायें हैं, जिनमें जैनधर्म के विपुल साहित्य का सृजन हुआ है। पैशाची प्राकृत के प्रभाव से युक्त मात्र एक ग्रन्थ प्राकृत धम्मपद मिला है। इन्ही जन बोलियों को जब साहित्यिक भाषा का रूप देने का प्रयत्न जैन आचार्यों ने किया, तो उसमें भी आधारगत विभिन्नता के कारण शब्द रूपों की विभिन्नता रह गई । सत्य यह है कि विभिन्न बोलियों पर आधारित होने के कारण साहित्यिक प्राकृतों में भी शब्द रूपों की यह विविधता रह जाना स्वाभाविक है ।
विभिन्न बोलियों की लक्षणगत, विशेषताओं के कारण ही प्राकृत भाषाओं के विविध रूप बने हैं । बोलियों के आधार पर विकसित इन प्राकृतों जो मागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री आदि रूप बने हैं, उनमें भी प्रत्येक में वैकल्पिक शब्द-रूप पाये जाते हैं । अत: उन सभी में व्याकरण की दृष्टि से पूर्ण एकरूपता का अभाव है। फिर भी भाषाविदों ने व्याकरण के नियमों के आधार पर उनकी लक्षणगत विशेषताएं मान ली हैं, जैसे-मागधी में 'स' के स्थान पर 'श', 'र' के स्थान पर 'ल' का उच्चारण होता है। अतः मागधी में पुरुष का पुलिस और राजा का लाजा रूप पाया जाता है, जबकि महाराष्ट्री में पुरिस और राया रूप बनता है। जहां अर्धमागधी में 'त' श्रुति की प्रधानता है और व्यंजनों के लोप की प्रवृत्ति अल्प है, वहीं शौरसेनी में 'द' श्र ति की और महाराष्ट्री में 'य' श्रुति की प्रधानता पायी जाती है तथा लोप की प्रवृत्ति अधिक है। दूसरे शब्दों में अर्ध-मागधी में 'त' यथावत् रहता है, शौरसेनी में 'त' के स्थान पर 'द' और महाराष्ट्री में लुप्त-व्यंजन के बाद शेष रहे 'अ' का 'य' होता है। प्राकृतों में इन लक्षणगत विशेषताओं के बावजूद धातु रूपों एवं शव्द रूपों में अनेक वैकल्पिक रूप तो पाये ही जाते हैं। यहां यह भी स्मरण रहे कि नाटकों में प्रयुक्त विभिन्न प्राकृतों की
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अपेक्षा जैन ग्रंथों में प्रयुक्त इन प्राकृत भाषाओं का रूप कुछ भिन्न है और किसी सीमा तक उनमें लक्षणगत बहुरूपता भी है। इसीलिए जैन आगमों में प्रयुक्त मागधी को अर्ध-मागधी कहा जाता है क्योंकि उसमें मागधी के मतिरिक्त अन्य बोलियों का प्रभाव के कारण मागधी से भिन्न लक्षण भी पाये जाते हैं। जहां अभिलेखीय प्राकृतों का प्रश्न है उनमें शब्द रूपों की इतनी अधिक विविधता या भिन्नता है कि उन्हें व्याकरण की दृष्टि से व्याख्यायित कर पाना सम्भव नहीं है। क्योंकि उनकी प्राकृत साहित्यिक प्राकृत न होकर स्थानीय बोलियों पर आधारित है।
___ यापनीय एवं दिगम्बर परम्परा के ग्रंथों में जिस भाषा का प्रयोग हुआ है, वह जैन शौरसेनी कही जाती है । उसे जैन शौरसेनी इसलिये कहते हैं कि उसमें शौरसेनी के अतिरिक्त अर्धमागधी के भी कुछ लक्षण पाये जाते हैं। उस पर अर्धमागधी का स्पष्ट प्रभाव देखा जाता है, क्योंकि इसमें रचित ग्रंथों के आधार अर्धमागधी आगम ही थे। इसी प्रकार श्वेताम्बर आचार्यों ने प्राकृत के जिस भाषायी रूप को अपनाया वह जैन महाराष्ट्री कही जाती है। इसमें महाराष्ट्री के लक्षणों के अतिरिक्त कहीं-कहीं अर्धमागधी और शौरसेनी के लक्षण भी पाये जाते हैं, क्योंकि इसमें रचित ग्रंथों का आधार भी मुख्यतः अर्धमागधी और जैन शौरसेनी साहित्य रहा है।
अतः जैन परम्परा में उपलब्ध किसी भी ग्रंथ की प्राकृत का स्वरूप निश्चित करना एक कठिन कार्य है, क्योंकि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में कोई भी ऐसा ग्रन्थ नहीं मिलता, जो विशुद्ध रूप से किसी एक प्राकृत का प्रतिनिधित्व करता हो । आज उपलब्ध विभिन्न श्वेताम्बर अर्धमागधी आगमों में चाहे प्रतिशतों में कुछ भिन्नता हो, किंतु व्यापक रूप से महाराष्ट्री का प्रभाव देखा जाता है। आचारांग और ऋषि-भाषित जैसे प्राचीन स्तर के आगमों में अर्ध-मागधी के लक्षण प्रमुख होते हुए भी कहींकहीं आंशिक रूप में शौरसेनी का एवं विशेष रूप से महाराष्ट्री का प्रभाव आ ही गया है । इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा के शौरसेनी ग्रन्थों में एक ओर अर्धमागधी का तो दूसरी ओर महाराष्ट्री का प्रभाव देखा जाता है । कुछ ऐसे ग्रन्थ भी हैं जिनमें लगभग ६० प्रतिशत शौरसेनी एवं ४० प्रशितत महाराष्ट्री पायी जाती है-जैसे वसुनन्दी के श्रावकाचार का प्रथम संस्करण, ज्ञातव्य है कि परवर्ती संस्करणों में शौरसेनीकरण अधिक किया गया है। कुंदकुंद के ग्रंथों में भी यत्र-तत्र महाराष्ट्री का प्रभाव देखा जाता है। इन सब विभिन्न भाषिक रूपों के पारस्परिक प्रभाव या मिश्रण के अतिरिक्त मुझे अपने अध्ययन के दौरान एक महत्त्वपूर्ण बात यह मिली कि जहां शौरसेनी ग्रंथों में जब अर्धमागधी आगमों के उद्धरण दिये गए, तो वहां उन्हें अपने अर्ध-मागधी रूप में न देकर उनका शौरसेनी रूपांतरण करके दिया गया
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है। इसी प्रकार महाराष्ट्री के ग्रंथों में अथवा श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा लिखित ग्रंथों में जब भी शौरसेनी के ग्रन्थ का उद्धरण दिया गया, तो सामान्यतया उसे मूल शौरसेनी में न रखकर उसका महाराष्ट्री रूपांतरण कर दिया गया। उदाहरण के रूप में भगवती आराधना की टीका में जो उत्तराध्ययन, आचारांग आदि के उद्धरण पाये जाते हैं, वे उनके अर्धमागधी रूप में न होकर शौरसेनी रूप में ही मिलते हैं। इसी प्रकार हरिभद्र ने शौरसेनी प्राकृत के 'यापनीय-तंत्र' नामक ग्रंथ से 'ललितविस्तरा' में जो उद्धरण दिया वह महाराष्ट्री प्राकृत में ही पाया जाता है ।।
इस प्रकार चाहे अर्धमागधी आगम हो या शौरसेनी आगम, उनके उपलब्ध संस्करणों की भाषा न तो पूर्णत: अर्धमागधी है और न ही शौरसेनी । अर्धमागधी और शौरसेनी दोनों ही प्रकार के आगमों पर महाराष्ट्री का व्यापक प्रभाव देखा जाता है जो कि इन दोनों की अपेक्षा परवर्ती है । इसी प्रकार महाराष्ट्री प्राकृत के कुछ ग्रन्थों पर तो परवर्ती अपभ्रश का भी प्रभाव देखा जाता है। इन आगमों अथवा आगम तुल्य ग्रन्थों के भाषाई स्वरूप की विविधता के कारण उनके कालक्रम तथा पारस्परिक आदान-प्रदान को समझने में विद्वानों को पर्याप्त उलझनों का अनुभव होता है, मात्र इतना ही नहीं कभीकभी इन प्रभावों के कारण इन ग्रंथों को परवर्ती भी सिद्ध कर दिया जाता है।
__ आज आगमिक साहित्य के भाषिक स्वरूप की विविधता को दूर करने तथा उन्हें अपने मूल स्वरूप में स्थिर करने के कुछ प्रयत्न भी प्रारम्भ हुए हैं। सर्वप्रथम डाँ० के० ऋषभचन्द्र ने प्राचीन अर्धमागधी आगम जैसेआचारांग, सूत्रकृतांग में आये महाराष्ट्री के प्रभाव को दूर करने एवं उन्हें अपने मूल स्वरूप में लाने के लिए प्रयत्न प्रारम्भ किया है । क्योंकि एक ही अध्याय या उद्देशक में लोय और लोग या आया और आता दोनों ही रूप देखे जाते हैं। इसी प्रकार कहीं क्रिया रूपों में भी 'त' श्रुति उपलब्ध होती है और कहीं उसके लोप की प्रवृत्ति देखी जाती है । प्राचीन आगमों में हुए इन भाषिक परिवर्तनों से उनके अर्थ में भी कितनी विकृति आयी इसका भी डाँ० चन्द्रा ने अपने लेखों के माध्यम से संकेत किया है तथा यह बताया है कि अर्धमागधी 'खेतन्न' शब्द किस प्रकार 'खेयन्न' बन गया और उसका जो मूल 'क्षेत्रज्ञ' अर्थ था वह 'खेदज्ञ' हो गया। इन सब कारणों से उन्होंने पाठ संशोधन हेतु एक योजना प्रस्तुत की और आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन के प्रथम उद्देशक की भाषा का सम्पादन कर उसे प्रकाशित भी किया है। इसी क्रम में मैं ने भी आगम संस्थान उदयपुर के डाँ० सुभाष कोठारी एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया द्वारा आचारांग के विभिन्न प्रकाशित संस्करणों से पाठांतरों का संकलन करवाया है। इसके विरोध में पहला स्वर श्री
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जोहरीमलजी पारख ने उठाया है । श्वेताम्बर विद्वानों में आयी इस चेतना का प्रभाव दिगम्बर विद्वानों पर भी पड़ा और आचार्यश्री विद्यानंदजी के निर्देशन में आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रंथों को पूर्णतः शौरसेनी में रूपान्तरित करने का एक प्रयत्न प्रारम्भ हुआ है, इस दिशा में प्रथम कार्य बलभद्र जैन द्वारा समयसार, नियमसार का कुन्दकुन्द भारती से प्रकाशन है । यद्यपि दिगम्बर परंपरा में ही पं० खुशालचन्द गोरावाला, पद्मचन्द्र शास्त्री आदि दिगम्बर विद्वानों ने इस प्रवृत्ति का विरोध किया ।
आज श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्पराओं में आगम या आगम रूप में मान्य ग्रन्थों के भाषिक स्वरूप संशोधन की जो चेतना जागृत हुई है, उसका कितना औचित्य है, इसकी चर्चा तो मैं बाद में करूंगा । सर्वप्रथम तो इसे समझना आवश्यक है कि इन प्राकृत आगम ग्रंथों के भाषित स्वरूप में किन कारणों से और किस प्रकार के परिवर्तन आये हैं। क्योंकि इस तथ्य को पूर्णतः समझे बिना केवल एक दूसरे के आधार पर अथवा अपनी परम्परा को प्राचीन सिद्ध करने हेतु किसी ग्रंथ के स्वरूप को परिवर्तन कर देना, संभवतः इन ग्रन्थों के ऐतिहासिक क्रम एवं काल-निर्णय एवं इनके पारस्परिक प्रभाव को समझने में बाधा उत्पन्न करेगा ओर इससे कई प्रकार के अन्य अनर्थ भी सम्भव हो सकते हैं ।
किन्तु इसके साथ ही साथ यह भी सत्य है कि जैन आचार्यों एवं जैन विद्वानों ने अपने भाषिक व्यामोह के कारण अथवा प्रचलित भाषा के शब्द रूपों के आधार पर प्राचीन स्तर के आगम ग्रन्थों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन किया है । जैन आगमों की वाचना को लेकर जो मान्यताएं प्रचलित हैं उनके अनुसार सर्वप्रथम ई० पू० तीसरी शती में वीर निर्वाण के लगभग एक सौ पचास वर्ष पश्चात् पाटलीपुत्र में प्रथम वाचना हुई । इसमें उस काल तक निर्मित आगम ग्रंथों, विशेषतः अंग आगमों का सम्पादन किया गया । यह स्पष्ट है कि पटना की यह वाचना मगध में हुई थी और इसलिए इसमें आगमों की भाषा का जो स्वरूप निर्धारित हुआ होगा, वह निश्चित ही मागधी / अर्धमागधी रहा होगा । इसके पश्चात लगभग ई० पू० प्रथम शती में खारवेल के शासनकाल में उड़ीसा में द्वितीय वाचना हुई यहां पर इसका स्वरूप अर्धमागधी रहा होगा, किंतु इसके लगभग चार सौ वर्ष पश्चात् स्कंदिल और आर्य नागार्जुन की अध्यक्षता में क्रमश: मथुरा व वलभी में वाचनाएं हुईं। संभव है कि मथुरा में हुई इस वाचना में अर्धमागधी आगमों पर व्यापक रूप से शौरसेनी का प्रभाव आया होगा । वलभी के वाचना वाले आगमों में नागार्जुनीय पाठों के तो उल्लेख मिलते हैं, किंतु स्कंदिल की वाचना के पाठ भेदों का कोई निर्देश नहीं है । स्कंदिल की वाचना सम्बन्धी पाठ भेदों का यह अनुल्लेख विचारणीय है । नंदीसूत्र में स्कंदिल के सम्बन्ध में यह कहा
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गया है कि उनके अनुयोग (आगम-पाठ) ही दक्षिण भारत क्षेत्र में आज भी प्रचलित हैं। संभवतः यह संकेत यापनीय आगमों के सम्बन्ध में होगा। यापनीय परम्परा जिन आगमों को मान्य कर रही थी, उसमें व्यापक रूप से भाषिक परिवर्तन कर दिया गया था और उन्हें शौरसेनी रूप दे दिया गया था। यद्यपि आज प्रमाण के अभाव में निश्चित रूप से यह बता पाना कठिन है कि यापनीय आगमों की भाषा का स्वरूप क्या था, क्योंकि यापनीयों द्वारा मान्य और व्याख्यायित वे आगम उपलब्ध नहीं है। यद्यपि अपराजित के द्वारा दशवकालिक पर टीका लिखे जाने का निर्देश प्राप्त होता है, किन्तु वह टीका भी आज प्राप्त नहीं है। अतः यह कहना तो कठिन है कि यापनीय आगमों की भाषा कितनी अर्धमागधी थी और कितनी शौरसेनी । किन्तु इतना तय है कि यापनीयों ने अपने ग्रन्थों में आगमों, प्रकीर्णकों एवं नियुक्तियों की जिन गाथाओं को गृहीत किया है अथवा उदधृत किया है वे सभी आज शौरसेनी रूपों में ही पायी जाती हैं। यद्यपि आज भी उन पर बहुत कुछ अर्धमागधी का प्रभाव शेष रह गया है। चाहे यापनीयों ने सम्पूर्ण आगमों के भाषाई स्वरूप को अर्धमागधी से शौरसेनी में रूपांतरित किया हो या नहीं, किन्तु उन्होंने आगम साहित्य से जो गाथाएं उद्धृत की हैं, वे अधिकांशतः आज अपने शौरसेनी स्वरूप में पायी जाती हैं । यापनीय आगमों के भाषिक स्वरूप में यह परिवर्तन जानबूझ कर किया गया या जब मथुरा जैन धर्म का केन्द्र बना तब सहज रूप में यह परिवर्तन आ गया था, यह कहना कठिन है। जैन धर्म सदैव से क्षेत्रीय भाषाओं को अपनाता रहा और यही कारण हो सकता है कि श्रुत परम्परा से चली आयी इन गाथाओं में या तो सहज ही क्षेत्रीय प्रभाव आया हो या फिर उस क्षेत्र की भाषा को ध्यान में रखकर उसे उस रूप में परिवर्तित किया गया हो।
यह भी सत्य है कि बलभी में जो देवधिगणि की अध्यक्षता में वी. नि. सं. ९८० या ९९३ में अंतिम बाचना हुई, उसमें क्षेत्रगत महाराष्ट्री प्राकृत का प्रभाव जैन आगमों पर विशेष रूप से आया होगा। यही कारण है कि वर्तमान में श्वेताम्बर मान्य अर्धमागधी आगामों की भाषा का जो स्वरूप उपलब्ध है, उस पर महाराष्ट्री का प्रभाव ही अधिक है । अर्धमागधी आगमों में भी उन आगमों की भाषा महाराष्टी से अधिक प्रभावित हुई है, जो अधिक व्यवहार या प्रचलन में रहे। उदाहरण के रूप में उत्तराध्ययन और दशवैकालिक जैसे प्राचीन स्तर के आगम महाराष्ट्री से अधिक प्रभावित हैं। जबकि ऋषिभाषित जैसा आगम महाराष्ट्री के प्रभाव से बहुत कुछ मुक्त रहा है । उस पर महाराष्ट्री प्राकृत का प्रभाव अत्यल्प है। आज अर्धमागधी का जो आगम साहित्य हमें उपलब्ध है, उसमें अर्धमागधी का सर्वाधिक प्रतिशत इसी ग्रन्थ में पाया जाता है।
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जैन आगमिक एवं आगम रूप में मान्य अर्धमागधी तथा शौरसेनी ग्रन्थों में भाषिक स्वरूप में परिवर्तन क्यों हुआ? इस प्रश्न का उत्तर अनेक रूपों में दिया जा सकता है । वस्तुत इन ग्रन्थों में हुए भाषिक परिवर्तनों का कोई एक ही कारण नहीं है, अपितु अनेक कारण है, जिन पर हम क्रमशः विचार करेंगे।
१. भारत में जहां वैदिक परम्परा ने वेद वचनों को मंत्र मानकर
उनके स्वर-व्यंजनों की उच्चारण-योजना को अपरिवर्तनीय बनाये रखने पर अधिक बल दिया, वहां उनके लिये शब्द और ध्वनि ही महत्त्वपूर्ण रहे और अर्थ गौण । आज भी अनेक वेदपाठी ब्राह्मण ऐसे हैं, जो वेद मंत्रों के उच्चारण, लय आदि के प्रति अत्यन्त सतर्क रहते हैं, किंतु वे उनके अर्थों को नहीं जानते हैं । यही कारण है कि वेद शब्द रूप में यथावत् बने रहे । इसके विपरीत जैन परम्परा में यह माना गया कि तीथंकर अर्थ के उपदेष्टा होते हैं उनके वचनों को शब्द रूप तो गणधर आदि के द्वारा दिया है। जैनाचार्यो के लिये कथन का तात्पर्य ही प्रमुख था। उन्होंने कभी भी शब्दों पर बल नहीं दिया । शब्दों में चाहे परिवर्तन हो जाए, लेकिन अर्थों में परिवर्तन नहीं होना चाहिये, यही जैन आचार्यों का प्रमुख लक्ष्य रहा । शब्द रूपों की उनकी इस उपेक्षा के फलस्वरूप ही आगमों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन होते
गए: २. आगम साहित्य में जो भाषिक परिवर्तन हुए, उसका दूसरा कारण यह था कि जैन भिक्ष संघ में विभिन्न प्रदेशों के भिक्षुगण सम्मिलित थे। अपनी-अपनी प्रादेशिक बोलियों से प्रभावित होने के कारण उनकी उच्चारण शैली में भी स्वाभाविक भिन्नता रहती, फलतः आगम साहित्य के भाषिक स्वरूप में भिन्न ताएं आ
गयीं। ३. तीसरे जैन भिक्षु सामान्यतया भ्रमणशील होने हैं, उनकी भ्रमणशीलता के कारण उनकी बोलियों, भाषाओं पर भी अन्य प्रदेशों की बोलियों का प्रभाव पड़ता है। फलतः आगमों के भाषिक स्वरूप में भी परिवर्तन या मिश्रण हो जाता है। उदाहरण के रूप में जब पूर्व का भिक्षु पश्चिमी प्रदेशों में अधिक बिहार करता है तो उसकी भाषा में पूर्व एवं पश्चिम दोनों ही बोलियों का प्रभाव आ ही जाता है। अतः भाषिक स्वरूप की एकरूपता
समाप्त हो जाती है। ४. सामान्यतया बुद्ध वचन बुद्ध-निर्वाण के २००-३०० वर्ष के अन्दर
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ही अन्दर लिखित रूप में आ गए । अतः उनके भाषिक स्वरूप में उनके रचनाकाल के बाद बहुत अधिक परिवर्तन नहीं आया तथापि उनकी उच्चारण शैली विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न रही और वह आज भी है। थाई, बर्मी और श्रीलंका के भिक्षुओं का त्रिपिटक का उच्चारण भिन्न-भिन्न होता है फिर भी उनके लिखित स्वरूप में बहुत कुछ एकरूपता है। इसके विपरीत जैन आगमिक एवं आगमतुल्य साहित्य एक सुदीर्घ काल तक लिखित रूप में नहीं आ सका, वह गुरु शिष्य परम्परा से मौखिक ही चलता रहा फलतः देश कालगत उच्चारण भेद से उनके भाषिक स्वरूप में भी परिवर्तन होता गया।
भारत में कागज का प्रचलन न होने से ग्रन्थ भोजपत्रों या ताड़पत्रों पर लिखे जाते । ताड़पत्रों पर ग्रंथों को लिखवाना और उन्हें सुरक्षित रखना जैन मुनियों की अहिंसा एवं अपरिग्रह की भावना के प्रतिकूल था। लगभग ई० सन् की ५ वीं शती तक इस कार्य को पाप प्रवृत्ति माना जाता तथा इसके लिए दण्ड की व्यवस्था भी थी। फलत: महावीर के पश्चात् लगभग १००० वर्ष तक जैन साहित्य श्रुत परम्परा पर ही आधारित रहा। श्रुतपरम्परा के आधार पर आगमों के भाषिक स्वरूप को सुरक्षित रखना कठिन था। अत: उच्चारण शैली का भेद आगमों के
भाषिक स्वरूप के परिवर्तन का कारण बन गया। ५. आगमिक एवं आगम-तुल्य साहित्य में आज भाषिक रूपों का
जो परिवर्तन देखा जाता है, उसका एक कारण लाहियों (प्रतिलिपिकारों) की असावधानी भी रही है। प्रतिलिपिकार जिस. क्षेत्र के होते थे, उन पर क्षेत्र की बोली/भाषा का प्रभाव रहता था और असावधानी से अपनी प्रादेशिक बोली के शब्द रूपों को लिख देते थे। उदाहरण के रूप में चाहे मूल-पाठ में 'गच्छति' लिखा हो लेकिन प्रचलन में 'गच्छइं' का व्यवहार है,
तो प्रतिलिपिकार 'गच्छई' रूप ही लिख देगा। ६. जैन आगम एवं आगम तुल्य ग्रन्थ में आये भाषिक परिवर्तनों का
एक कारण यह भी है कि वे विभिन्न कालों एवं प्रदेशों में संपादित होते रहे हैं । सम्पादकों ने उनके प्राचीन स्वरूप को स्थिर रखने का प्रयत्न नहीं किया, अपितु उन्हे सम्पादित करते समय अपने युग एवं क्षेत्र के प्रचलित भाषायी स्वरूप के आधार पर उनमें परिवर्तन कर दिया । यही कारण है कि अर्धमागधी में लिखित आगम भी जब मथुरा में संकलित एवं सम्पादित हुए तो उनका
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भाषिक स्वरूप अर्धमागधी की अपेक्षा शौरसेनी के निकट हो गया, और जब बलभी में लिखे गये तो वह महाराष्ट्री से प्रभावित हो गया । यह अलग बात है कि ऐसी परिवर्तन सम्पूर्ण रूप में न हो सका और उनमें अर्धमागधी के तत्त्व भी बने रहे । सम्पादन और प्रतिलिपि करते समय भाषिक स्वरूप को एकरूपता पर विशेष बल नहीं दिए जाने के कारण जैन आगम एवं आगमतुल्य साहित्य अर्धमागधी, शौरसेनी एवं महाराष्ट्री की खिचड़ी ही बन गया और विद्वानों में उनकी भाषा को जैन शौरसेनी और जैन महाराष्ट्री ऐसे नाम दिये । न प्राचीन संकलन कर्त्ताओं ने उस पर ध्यान दिया और न आधुनिक काल के सम्पादकों, प्रकाशकों ने इस तथ्य पर ध्यान दिया । परिणामतः एक ही आगम के एक ही विभाग में 'लोक', 'लोग', 'लोभ' और 'लोय' - ऐसे चारों ही रूप देखने को मिल जाते हैं ।
यद्यपि सामान्य रूप से तो इन भाषिक रूपों के परिवर्तनों के कारण कोई बहुत बड़ा अर्थ-भेद नहीं होता है किंतु कभी - कभी इनके कारण भयंकर अर्थभेद भी हो जाता है । इस सन्दर्भ में एक दो उदाहरण देकर अपनी बात को स्पष्ट करना चाहूंगा। उदाहरण के रूप में सूत्रकृतांग के प्राचीन पाठ 'रामपुत्ते' बदलकर चूर्णि में 'रामाउते' हो गया, किन्तु वही पाठ सूत्रकृतांग की शीलांक की टीका में 'रामगुत्ते' हो गया । इस प्रकार जो शब्द रामपुत्र का वाचक था, वह रामगुप्त का वाचक हो गया । इसी आधार पर कुछ विद्वानों ने उसे गुप्त शासक रामगुप्त मान लिया है— उसके द्वारा प्रतिष्ठापित विदिशा की जिन मूर्तियों के अभिलेखों से उसकी पुष्टि भी कर दी। जबकि वस्तुतः वह निर्देश बुद्ध के समकालीन रामपुत्र नामक श्रमण आचार्य के सम्बन्ध में था, जो ध्यान एवं योग के महान् साधक थे और जिनसे स्वयं भगवान् बुद्ध ध्यान प्रक्रिया सीखी थी । उनसे संबंधित एक अध्ययन ऋषिभाषित में आज भी है, जबकि अंतकृत दशा में उनसे सम्बन्धित जो अध्ययन था, वह आज विलुप्त हो चुका है। इसकी विस्तृत चर्चा ( Aspects of Jainology Vol. II में ) मैंने अपने एक स्वतंत्र लेख में की है । इसी प्रकार आचारांग एवं सूत्रकृतांग में प्रयुक्त 'खेत्तन्न' शब्द, जो 'क्षेत्रज्ञ' (आत्मज्ञ) का वाची था, महाराष्ट्री के प्रभाव से आगे चलकर 'खेयण्ण' बन गया और उसे 'खेदज्ञ' का वाची मान लिया गया । इसकी चर्चा प्रो०के० आर० चन्द्रा ने श्रमण १९९२ में प्रकाशित अपने लेख में की है । अतः स्पष्ट है कि इन परिवर्तनों के कारण अनेक स्थलों पर बहुत अधिक अर्थभेद भी हो गये है । आज वैज्ञानिक रूप से सम्पादन की जो शैली विकसित हुई है उसके माध्यम से इन समस्याओं के समाधान की अपेक्षा है । जैसा कि हमने पूर्व में संकेत किया था कि आगमिक एवं आगम तुल्य ग्रंथों के प्राचीन स्वरूप को स्थिर करने लिए श्वेताम्बर
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परम्परा में प्रो० के० आर०चन्द्रा और दिगम्बर-परम्परा में आचार्य श्री विद्यानन्द के सानिध्य में श्री बलभद्र जैन ने प्रयत्न प्रारंभ किया है। किन्तु इन प्रयत्नों का कितना औचित्य है और इस सन्दर्भ में किन-किन सावधानियों की आवश्यकता है, यह भी विचारणीय है यदि प्राचीन रूपों को स्थिर करने का यह प्रयत्न सम्पूर्ण सावधानी और ईमानदारी से न हुआ, तो इसके दुष्परिणाम भी हो सकते हैं।
प्रथमतः प्राकृत के विभिन्न भाषिक रूप लिये हुए इन ग्रन्थों में पारस्परिक प्रभाव और पारस्परिक अवदान को अर्थात् किसने किस परम्परा से क्या लिया है, इसे समझने के लिए आज जो सुविधा है, वह इनमें भाषिक एकरूपता लाने पर समाप्त हो जायेगी । आज नमस्कार मंत्र में 'नमो' और 'णमो' शब्द का जो विवाद है, उसका समाधान और कौन शब्द रूप प्राचीन है इसका निश्चय, हम खारवेल और मथुरा के अभिलेखों के आधार पर कर सकते हैं और यह कह सकते हैं कि अर्धमागधी का 'नमो' रूप प्राचीन है, जबकि शौरसेनी और महाराष्ट्री का ‘णमो' रूप परवर्ती है। क्योंकि ई० की दूसरी शती तक अभिलेखों में कहीं भी 'णमो' रूप नहीं मिलता । जबकि छठी शती से दक्षिण भारत के जैन अभिलेखों में णमो' रूप बहुतायत से मिलता है। इससे फलित यह निकलता है कि (णमो) रूप परवर्ती है और जिन ग्रन्थों में 'न' के स्थान पर 'ण' की बहुलता है, वे ग्रन्थ भी परवर्ती हैं। यह सत्य है कि 'नमो से परिवर्तित होकर ही 'णमो' रूप बना है। जिन अभिलेखों में 'णमो' रूप मिलता है वे सभी ई० सन्० की चौथी शती के बाद के ही हैं। इसी प्रकार से नमस्कार मंत्र की अंतिम गाथा में 'एसो पंच नमुक्कारो सव्व पावप्पणासणो मंगलाण च सब्वेसिं पढ़म हवइ मंगलं'--- ऐसा पाठ है । इनमें प्रयुक्त प्रथमा विभक्ति में 'एकार' के स्थान पर 'ओकार' का प्रयोग तथा हवति के स्थान हवइ शब्द रूप का प्रयोग यह बताता है कि इसकी रचना अर्धमागधी से महाराष्ट्री के संक्रमण-काल के वीच की है और यह अंश नमस्कार मंत्र में बाद में जोड़ा गया है। इसमें शौरसेनी रूप 'होदि' या 'हवदि के स्थान पर महाराष्ट्री शब्द रूप 'हवई' है जो यह बताता है-~-यह अंश मूलत: महाराष्ट्री में निर्मित हुआ था और वहीं से ही शौरसेनी में लिया गया है।
इसी प्रकार शौरसेनी आगमों में भी इसके 'हवई' शब्द रूप की उपस्थिति भी यही सूचित करती है कि उन्होंने इस अंश को परवर्ती महाराष्ट्री प्राकृत के ग्रन्थों से ही ग्रहण किया है । अन्यथा वहां मूल शौरसेनी 'हवदि' या 'होदि' रूप ही होना था। आज यदि किसी को शौरसेनी का अधिक आग्रह हो, तो क्या वे नमस्कार मंत्र के इस 'हवइ' शब्द को 'हवदि' या 'होदि' रूप में परिवर्तित कर देंगे? जबकि तीसरी चौथी शती से आज तक कहीं भी 'हवइ' के अतिरिक्त अन्य कोई शब्द-रूप उपलब्ध ही नहीं है ।
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प्राकृत के भाषिक स्वरूप के संबंध में दूसरी कठिनाई यह है कि प्राकृत का मूल आधार क्षेत्रीय बोलियां होने से उसके एक ही काल में विभिन्न रूप रहे हैं । प्राकृत व्याकरण में जो 'बहुलं' शब्द है वह स्वयं इस बात का सूचक है कि चाहे शब्द रूप हो, चाहे धातु रूप हो, या उपसर्ग आदि हो, उनकी बहुविधता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता । एक बार हम मान भी लें कि एक क्षेत्रीय बोली में एक ही रूप रहा होगा, किन्तु चाहे वह शौरसेनी, अर्द्धमागधी या महाराष्ट्री प्राकृत हो, साहित्यिक भाषा के रूप में इनके विकास के मूल में विविध बोलियां रही हैं। अतः भाषिक एकरूपता का प्रयत्न प्राकृत की अपनी मूल प्रकृति की दृष्टि से कितना समीचीन होगा, यह भी एक विचारणीय प्रश्न है।
पुनः चाहे हम एक बार यह मान भी लें कि प्राचीन अर्धमागधी का जो भी साहित्यिक रूप रहा वह बहुविध नहीं था और उसमें व्यंजनों के लोप, उनके स्थान पर 'अ' या 'य' की उपस्थिति अथवा 'न' के स्थान पर 'ण' की प्रवृत्ति नहीं रही होगी और इस आधार पर आचारांग आदि की भाषा का अर्धमागधी स्वरूप स्थिर करने का प्रयत्न उचित भी मान लिया जाये, किन्तु यह भी सत्य है कि जैन-परम्परा में शौरसेनी का आगम तुल्य साहित्य मूलतः अर्धमागधी आगम साहित्य के आधार पर और उससे ही विकसित हुआ, अतः उसमें जो अर्धमागधी या महाराष्ट्री का प्रभाव देखा जाता है, उसे पूर्णतः निकाल देना क्या उचित होगा ? यदि हमने यह दुःसाहस किया भी तो उससे ग्रन्थों के काल-निर्धारण आदि में और उनकी पारस्परिक प्रभावकता को समझने में, आज जो सुगमता है, वह नष्ट हो जायेगी।
___ यही स्थिति महाराष्ट्री प्राकृत की भी है। उसका आधार भी अर्धमागधी और अंशत शौरसेनी आगम रहे हैं, यदि उनके प्रभाव को निकालने का प्रयत्न किया गया तो वह भी उचित नहीं होगा । खेयण्ण का प्राचीन रूप खेत्तन्न है। महाराष्ट्री प्राकृत के ग्रन्थ में एक बार 'खेत्तन्न' रूप प्राप्त होता है तो उसे हम प्राचीन शब्द रूप मानकर रख सकते हैं, किन्तु अर्धमागधी के ग्रन्थ में 'खेत्तन्न' रूप उपलब्ध होते हुए भी महाराष्ट्री रूप 'खेयन्न' बनाये रखना उचित नहीं होगा । जहां तक अर्धमागधी आगम ग्रन्थों का प्रश्न है उन पर परवर्ती काल में जो शौरसेनी या महाराष्ट्री प्राकृतों का प्रभाव आ गया है, उसे दूर करने का प्रयत्न किसी सीमा तक उचित माना जा सकता है, किन्तु इस प्रयत्न में भी निम्न सावधानियां अपेक्षित हैं।
(१) प्रथम तो यह कि यदि मूल हस्तप्रतियों में कहीं भी वह शब्द रूप नहीं मिलता है, तो उस शब्द रूप को किसी भी स्थिति में परिवर्तित न किया जाये । किन्तु प्राचीन अर्धमागधी शब्द रूप जो किसी भी मूल हस्त प्रति में एक-दो स्थानों पर भी उपलब्ध होता है, उसे अन्यत्र परिवर्तित किया जा
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सकता है। यदि किसी अर्धमागधी के प्राचीन ग्रन्थ में 'लोग' एवं 'लोय' दोनों रूप मिलते हों तो वहां अर्वाचीन रूप 'लोय' को प्राचीन रूप 'लोग' में रूपांतरित किया जा सकता है किन्तु इसके साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि यदि एक पूरा का पूरा गद्यांश या पद्यांश महाराष्ट्री में है और उसमें प्रयुक्त शब्दों के वैकल्पिक अर्धमागधी रूप किसी एक भी आदर्श प्रति में नहीं मिलते हैं तो उन अंशों को परिवर्तित न किया जाये, क्योंकि संभावना यह हो सकती है कि वह अंश परवर्ती काल में प्रक्षिप्त हुआ हो, अतः उस अंश के प्रक्षिप्त होने का आधार जो उसका भाषिक स्वरूप है, उसको बदलने से आगमिक शोध में बाधा उत्पन्न होगी। उदाहरण के रूप में आचारांग के प्रारम्भ में 'सुयं मे अउसंतेण भगवया एयं अक्खाय' के अंश को ही लें, जो सामान्यतया सभी प्रतियों में इसी रूप में मिलता है। यदि हम इसे अर्धमागधी में रूपान्तरित करके 'सुतं मे आउसन्तेणं भगवता एवं अक्खाता' कर देंगे तो इसके प्रक्षिप्त होने की जो संभावना है वह समाप्त हो जायेगी । अतः प्राचीन स्तर के भागमों में किस अंश के भाषिक स्वरूप को बदला जा सकता है और किसको नहीं, इस पर गंभीर चिंतन की आवश्यकता है।
इसी संदर्भ में ऋषिभाषित के एक उदाहरण पर विचार कर सकते हैं। इसमें प्रत्येक ऋषि के कथन को प्रस्तुत करते हुए सामान्यतया यह गद्यांश मिलता है-अरहता इसिणा बुइन्तं किन्तु हम देखते हैं कि इसके ४५ अध्यायों में से ३७ में 'बुइन्तं' पाठ है, जबकि ७ में 'बुइयं' पाठ है । ऐसी स्थिति में यदि इस 'बुइयं' पाठ वाले अंश के आस-पास अन्य शब्दों के प्राचीन अर्धमागधी रूप मिलते हों तो 'बुइयं' को बुइन्त में बदला जा सकता है। किन्तु यदि किसी शब्द रूप के आगे-पीछे के शब्द रूप भी महाराष्ट्री प्रभाव वाले हों, तो फिर उसे बदलने के लिए हमें एक बार सोचना होगा।
___ कुछ स्थितियों में यह भी होता है कि ग्रंथ की एक ही आदर्श प्रति उपलब्ध हो ऐसी स्थिति में जब तक उनकी प्रतियां उपलब्ध न हों, तब तक उनके साथ छेड़-छाड़ करना उचित नहीं होगा । अतः अर्धमागधी या शौरसेनी के भाषिक रूपों को परिवर्तित करने के किसी निर्णय से पूर्व सावधानी और बौद्धिक ईमानदारी की आवश्यकता है । इस संदर्भ में अंतिम रूप से एक बात और निवेदन करना आवश्यक है, वह है कि यदि मूलपाठ में किसी प्रकार का परिवर्तन किया भी जाता है, तो भी इतना तो अवश्य हो करणीय होगा कि पाठान्तरों के रूप में अन्य उपलब्ध शब्द रूपों को भी अनिवार्य रूप से रखा जाय, साथ ही भाषिक रूपों को परिवर्तित करने के लिए जो प्रति आधार रूप में मान्य की गयी हो उसकी मूल प्रति छाया को भी प्रकाशित किया जाय, क्योंकि छेड़-छाड़ के इस क्रम में जो साम्प्रदायिक आग्रह कार्य करेंगे, उससे ग्रंथ की मौलिकता को पर्याप्त धक्का लग सकता है। .
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आचार्य शान्तिसागरजी और उनके समर्थक कुछ दिगंबर विद्वानों द्वारा षट्खंडागाम (११११९३) में से 'संजद पाठ को हटाने की एवं श्वेताम्बर परम्परा में मुनि श्री फूलचंदजी द्वारा परम्परा के विपरीत लगने वाले कुछ आगम के अंशों को हटाने की कहानी अभी हमारे सामने ताजी ही है। यह तो भाग्य ही था कि इस प्रकार के प्रयत्नों को दोनों ही समाज के प्रबुद्ध वर्ग ने स्वीकार नहीं किया और इस प्रकार से सैद्धांतिक संगति के नाम पर जो कुछ अनर्थ हो सकता था, उससे हम बच गये। किन्तु आज भी 'षट्खण्डागम' के ताम्र पत्रों एवं प्रथम संस्करण की मुद्रित प्रतियों में संजद शब्द अनुपस्थित है। इसी प्रकार फूलचंदजी द्वारा संपादित अंग सुत्ताणि में कुछ आगम पाठों का विलोपन हुमा है वे प्रतियां तो भविष्य में भी रहेंगी, अतः भविष्य में तो यह सब निश्चय ही विवाद का कारण बनेगा। इसलिये ऐसे किसी भी प्रयत्न से पूर्व पूरी सावधानी एवं सजगता आवश्यक है । मात्र 'संजद' पद हट जाने से उस ग्रन्थ के यापनीय होने की जो पहचान है, वही समाप्त हो जाती और जैन परम्परा के इतिहास के साथ अनर्थ हो जाता।
उपयुक्त समस्त चर्चा से मेरा प्रयोजन यह नहीं है कि अर्धमागधी आगम एवं आगम तुल्य शौरसेनी ग्रन्थों के भाषायी स्वरूप की एकरूपता एवं प्राचीन स्वरूप को स्थिर करने का कोई प्रयत्न ही न हो। मेरा दृष्टिकोण मात्र यह है कि उसमें विशेष सतर्कता की आवयश्कता है । साथ ही इस प्रयत्न का परिणाम यह न हो कि जो परवर्ती ग्रन्थ प्राचीन अर्धमागधी आगमों के आधार पर निर्मित हुए हैं, उनकी उस रूप में पहचान ही समाप्त कर दी जाये और इस प्रकार माज ग्रंथों के पौर्वापर्य के निर्धारण का जो भाषायी आधार है वह भी नष्ट हो जाये । यदि प्रश्नव्याकरण, नन्दीसूत्र आदि परवर्ती आगमों की भाषा को प्राचीन अर्धमागधी में बदला गया अथवा कुन्दकुन्द के ग्रन्थों का या मूलाचार और भगवती आराधना का पूर्ण शौरसेनीकरण किया गया तो यह उचित नहीं होगा, क्योंकि इससे उनकी पहचान और इतिहास ही नष्ट हो जायेगा।
जो लोग इस परिवर्तन के पूर्णतः विरोधी हैं उनसे भी मैं सहमत नहीं हूं। मैं यह मानता हूं, आचारांग, ऋषिभाषित एवं सूत्रकृतांग, जैसे प्राचीन भागमों का इस दृष्टि से पुनः सम्पादन होना चाहिए । इस प्रक्रिया के विरोध में जो स्वर उभर कर सामने आये हैं उनमें जौहरीमलजी पारख का स्वर प्रमुख है। वे विद्वान् अध्येता और श्रद्धाशील दोनों ही हैं फिर भी "तुलसीप्रज्ञा" में उनका जो लेख प्रकाशित हुआ है उसमें उनका वैदुष्य श्रद्धा के अतिरेक में दब सा गया है। उनका सर्वप्रथम तर्क यह है कि आगम सर्वज्ञ के वचन हैं, अतः उन पर व्याकरणों के नियम थोपे नहीं जा सकते कि वे व्याकरण के नियमों के अनुसार ही बोलें । यह कोई तर्क नहीं मात्र उनकी
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श्रद्धा का अतिरेक ही है। प्रथम प्रश्न तो यही है कि क्या अर्धमागधी आगम अपने वर्तमान स्वरूप में सर्वज्ञ की वाणी हैं ? क्या उसमें किसी प्रकार का विलोपन, प्रक्षेप या परिवर्तन नहीं हुआ है ? यदि ऐसा है तो उनमें अनेक स्थलों पर अन्तर्विरोध क्यों हैं ? कहीं लोकान्तिक देवों की संख्या आठ है कहीं नो क्यों है ? वहीं चार स्थावर और दो त्रस हैं, कहीं तीन त्रस और तीन स्थावर कहे गये, तो कहीं पांच स्थावर और एक त्रस । यदि आगम शब्दशः महावीर की वाणी हैं, तो आगमों और विशेष रूप से अंग आगमो में महावीर के तीन सौ वर्ष पश्चात् उत्पन्न हुए गणों के उल्लेख क्यों हैं ? यदि कहा जाय कि भगवात् सर्वज्ञ थे और उन्होंने भविष्य की घटनाओं को जानकर यह उल्लेख किया तो प्रश्न यह कि वह कथन व्याकरण की दृष्टि से भविष्यकालिक भाषा रूप में होना था वह भूतकाल में क्यों कहा गया। भगवती में गोशालक के प्रति जिस प्रकार की शब्दावली का प्रयोग हुआ है क्या वह अंश वीतराग भगवान् महावीर की वाणी हो सकती है ? क्या आज प्रश्न व्याकरण, अन्तकृत दशा, अनुतरोपपातिदशा और विपाकदशा की विषय-वस्तु वही है, जो स्थानांग में उल्लिखित है ? तथ्य यह है कि यह सब परिवर्तन हुआ है, आज हम उससे इंकार नहीं कर सकते हैं । आज ऐसे अनेक तथ्य हैं, जो वर्तमान आगम साहित्य को अक्षरशः सर्वज्ञ के वचन मानने में बाधक हैं। परम्परा के अनुसार भी सर्वज्ञ तो अर्थ (विषय वस्तु) के प्रवक्ता है.-.-शब्द रूप तो उनको गणधरों या परवर्ती स्थविरों द्वारा दिया है । पुन: क्या आज हमारे पास जो आगम हैं, वे ठीक वैसे ही हैं जैसे शब्द रूप से गणधर गौतम ने उन्हें रचा था ? आगम ग्रन्थों में परवर्ती काल में जो विलोपन, परिवर्तन, परिवर्धन और जिनका साक्ष्य स्वयं आगम ही दे रहे हैं, उससे क्या हम इंकार कर सकते हैं ? स्वयं देवधि ने इस तथ्य को स्वीकार किया है तो फिर हम नकारने वाले कौन होते हैं ? आदरणीय पारखजी लिखते हैं-पण्डितों से हमारा यही आग्रह रहेगा कि कृपया बिना भेल सेल के वही पाठ प्रदान करें जो तीर्थकरों ने अर्थरूप में प्ररूपित और गणधरों ने सूत्ररूप में संकलित किया था। हमारे लिये वही शुद्ध है । सर्वज्ञों को जिस अक्षर शब्द, पद, वाक्य या भाषा का प्रयोग अभीष्ट था, वह सूचित कर गये, अब उसमें असर्वज्ञ फेर बदल नहीं कर सकता। उनक इस कथन के प्रति मेरा प्रथम प्रश्न तो यही है कि आज तक आगमों में जो परिवर्तन होता रहा वह किसने किया ? आज हमारे पास जो आगम हैं उनमें एकरूपता क्यों नहीं है ? आज मुर्शिदाबाद, हैदराबाद, बम्बई, लाडनूं आदि के संस्करणों में इतने अधिक पाठ भेद क्यों है ? इनमें से हम किस संस्करण को सर्वज्ञ वचन माने और आपके शब्दों में किसे भेलसेल कहें ? मेरा दूसरा प्रश्न यह है कि क्या आज पण्डित आगमो में कई भेल-सेल कर रहे हैं या फिर वे उसके शुद्ध स्वरूप को सामने लाना
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चाहते हैं ? किसी भी पाश्चात्य संशोधक दृष्टि सम्पन्न विद्वान ने आगमों में कोई भेलसेल किया ? इसका एक भी उदाहरण हो तो हमें बतायें । दुर्भाग्य यह कि शुद्धि के प्रयत्न को भेलसेल का नाम दिया जा रहा है और व्यर्थ में उसकी आलोचना की जा रही है । पुनः जहां तक मेरी जानकारी है डॉ० चन्द्रा ने एक भी ऐसा पाठ नहीं सुझाया है जो आदर्शसम्मत नहीं है। उन्होंने मात्र यही प्रयत्न किया है कि जो भी प्राचीन शब्द रूप किसी भी एक आदर्श प्रति में एक-दो स्थानों पर भी मिल गये उसे आधार मानकर अन्य स्थलों पर भी वही प्राचीन रूप रखने का प्रयास किया है। यदि उन्हें भेल-सेल करना होता तो वे इतने साहस के साथ पूज्य मुनिजनों एवं विद्वानों के विचार जानने के लिये उसे प्रसारित नहीं करते । फिर जब पारखजी स्वयं यह कहते हैं कि कुल ११६ पाठ भेदों में केवल । 'आउसंतेण' को छोड़कर शेष ११५ पाठभेद ऐसे हैं कि जिनसे अर्थ में कोई फर्क नहीं पड़ता तो फिर उन्होंने ऐसा कौन सा अपराध कर दिया जिससे उनके श्रम की मूल्यवत्ता को स्वीकार करने के स्थल पर उसे नकारा जा रहा है आज यदि आचारांग के लगभग ४० से अधिक संस्करण हैं और यह भी सत्य है कि सभी ने आदर्शों के आधार पर ही पाठ छापे हैं तो फिर किसे शुद्ध और किसे अशुद्ध कहें, क्या सभी को समान रूप से शुद्ध मान लिया जायेगा? क्या हम ब्यावर, जैन विश्वभारती, लाडनूं और और महावीर विद्यालय वाले संस्करणों को समान महत्व का समझे । भय मेल-सेल का नहीं है भय यह है कि अधिक प्रामाणिक एवं शुद्ध संस्करण के निकल जाने से पूर्व संस्करणों के सम्पादन में रही कमियां उजागर हो जाने का और यही खीज का मूल कारण है । पुनः क्या श्रद्धेय पारख जी यह बता सकते हैं कि कोई भी ऐसी आदर्श प्रति हैजो पूर्णत: शुद्ध है- जब आदर्शों में भिन्नता और अशुद्धियां हैं तो उन्हें शुद्ध करने के लिये व्याकरण के अतिरिक्त विद्वान् किसका सहारा लेंगे ? क्या आज तक कोई भी आगम ग्रन्थ बिना व्याकरण का सहारा लिये मात्र आदर्श के आधार पर छपा है। प्रत्येक सम्पादक व्याकरण का सहारा लेकर ही आदर्श की अशुद्धि को ठीक करता है । यदि वे स्वयं यह मानते हैं कि आदर्शों में अशुद्धियां स्वाभाविक हैं तो फिर उन्हें शुद्ध किस आधार पर किया जाएगा ? मैं भी यह मानता हूं कि सम्पादन में आदर्श प्रति का आधार आवश्यक है किन्तु न तो मात्र आदर्श से और न मात्र व्याकरण के नियमों से समाधान होता है। उसमें दोनों का सहयोग आवश्यक है । मात्र यही नहीं, अनेक प्रतों को सामने रखकर तुलना करके एवं विवेक से भी पाठ शुद्ध करना होता है। जैसाकि आचार्य श्री तुलसी जी ने मुनि श्री जम्बूविजयजी को अपनी सम्पादन शैली का स्पष्टीकरण करते हुए बताया था।
आदरणीय पारखजी एवं उनके द्वारा उद्धत मुनि श्री जम्बूविजयजी
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का यह कथन कि 'आगमों में अनुनासिक परसवर्ण वाले पाठ प्रायः नहीं मिलते हैं, स्वयं ही यह बताता है कि क्वचित् तो मिलते हैं। पुनः इस सम्बन्ध में डॉ० चन्द्रा ने आगमोदय समिति के संस्करण और टीका तथा चणि के संस्करणों से प्रमाण भी दिये हैं । वस्तुतः लेखन की सुविधा के कारण ही अनुनासिक परसवर्ण वाले पाठ आदर्शों में कम होते गये हैं। किन्तु लोक भाषा में वे आज भी जीवित हैं । अतः चन्द्राजी के कार्य को प्रमाण रहित या आदर्शरहित कहना उचित नहीं है।
___ वर्तमान में उपलब्ध आगमों के संस्करणों में लाडनूं और महावीर विद्यालय के संस्करण अधिक प्रामाणिक माने जाते हैं, किन्तु उनमें भी 'त' और 'य' श्रुति को लेकर या मध्यवर्ती व्यंजनों के लोप सम्बन्धी जो वैविध्य हैं, वह न केवल आश्चर्यजनक हैं अपितु विद्वानों के लिए चिन्तनीय भी हैं। यहां महावीर विद्यालय से प्रकाशित स्थानांगसूत्र के ही एक दो उदाहरण आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ।
__ चत्तारि वत्था पन्नत्ता, तंजहा-सुती नामं एगे सुती, सुई नाम एगे असुई, चउभंगो।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा सुती णामं एगे सुती, चउभंगो।
(चतुर्थ स्थान, प्रथम उद्देश्य सूत्रक्रमांक २४१, पृ० संख्या ९४) ।
इस प्रकार यहां आप देखेंगे कि एक ही सूत्र में 'सुती' और 'सई' दोनों रूप उपस्थित हैं। इससे मात्र शब्द-रूप में ही भेद नहीं होता है, अर्थ भेद भी हो सकता है क्योंकि सुती का अर्थ है सूत से निर्मित जबकि सुइ (शुचि) का अर्थ है पवित्र । इसी प्रकार इस सूत्र में ‘णाम' और 'नाम' दोनों शब्द रूप एक ही साथ उपस्थित हैं । इसी स्थानांग सूत्र से एक अन्य उदाहरण लीजिएसूत्र क्रमांक ४४५, पृष्ठ १९७ पर 'निग्रन्थ' शब्द के लिए प्राकृत शब्द रूप 'नियंठ' प्रयुक्त है तो सूत्र ४४६ में 'निग्गंथ' और पाठांतर में 'नियंठ' रूप भी दिया गया है । इसी ग्रन्थ में सूत्र संख्या ४५८, पृ० १९७ पर धम्मत्थिकांतं, अधम्मत्थिकांतं और आगासत्थिकायं--- इस प्रकार 'काय' शब्द के दो भिन्न शब्द रूप कातं और कायं दिये गये हैं। यद्यपि 'त' श्रुति प्राचीन अर्धमागधी की पहचान है, किन्तु प्रस्तुत संदर्भ में सुती, नितंठ और कांत में जो 'त' का प्रयोग हैं वह मुझे परवर्ती लगता है। लगता है कि 'य' श्रुति को 'त' श्रुति में बदलने के प्रयत्न भी कालान्तर में हुए और इस प्रयत्न में बिना अर्थ का विचार किये 'य' को 'त' कर दिया गया है। शुचि के सुती, निर्ग्रन्थ का नितंठ और काय का कांत किस प्राकृत व्याकरण के नियम से बनेगा-मेरी जानकारी में तो नहीं है। इससे भी आश्चर्यजनक एक उदाहरण हमें हर्षपुष्यामृत जैन ग्रंथमाला द्वारा प्रकाशित नियुक्ति के प्रारम्भिक मंगल में मिलता है
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नमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायणं, णमो लोए सव्व साहूणं: एसो पंचवनमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं ।
यहां हम देखते हैं कि जहां नमो अरिहंताणं में प्रारम्भ में 'न' रखा गया जबकि णमो सिद्धाणं से लेकर शेष चार पदों में आदि का 'न' 'ण' कर दिया गया है । किन्तु ऐसो पंचनमुक्कारो में पुनः 'न' उपस्थित है । हम आदरणीय पारख जी से इस बात में सहमत हो सकते हैं कि भिन्न कालों में भिन्नव्यक्तियों से चर्चा करते हुए प्राकृत भाषा के भिन्न शब्द रूपों का प्रयोग हो सकता है । किन्तु ग्रंथ निर्माण के समय और वह भी एक ही सूत्र या वाक्यांश में दो भिन्न रूपों का प्रयोग तो कभी भी नहीं होगा । पुनःयदि हम यह मानते हैं कि आगम सर्वज्ञ वचन है, तो जब सामान्य व्यक्ति भी ऐसा प्रयोग नहीं करता है, फिर सर्वज्ञ कैसे करेगा ? फिर इस प्रकार की भिन्न रूपता के लिए लेखक नहीं, अपितु प्रतिलिपिकार ही उत्तरदायी होता है । अतः ऐसे पाठों का शुद्धीकरण अनुचित नहीं कहा जा सकता । एक ही सूत्र में 'सुती' और 'सुई', 'नाम' और 'णामं' नियंठ और निग्गंथ, कातं और कार्य - ऐसे दो शब्द रूप नहीं हो सकते । उनका पाठ संशोधन आवश्यक है । यद्यपि इसमें भी यह सावधानी आवश्यक है कि त श्रुति की प्राचीनता के व्यामोह में कहीं सर्वत्र 'य' का 'त' नहीं कर दिया जावे जैसे शुचि - सुई का 'सुती,' निग्गंथ का नितंठ अथवा 'काय' का कातं पाठ महावीर विद्यालय वाले संस्करण में है । हम पारख जी से इस बात में सहमत है कि कोई भी पाठ आदर्श में उपलब्ध हुए बिना नहीं बदला जाय, किन्तु 'आदर्श' में उपलब्ध होने का यह अर्थ नहीं है कि 'सर्वत्र' और सभी आदर्श' उपलब्ध हों / हां, यदि आदर्श या आदर्श के अंश में प्राचीन पाठ मात्र एक दो स्थलों पर ही मिले और उनका प्रतिशत २० से भी कम हो तो वहां उन्हें प्रायः न बदला जाय । किन्तु, यदि उनका प्रतिशत २० से अधिक हो तो उन्हें बदला जा सकता है - शर्त यही हो कि आगम का वह अंश परवर्ती या प्रक्षिप्त न हो-जैसे आचारांग का दूसरा
तस्कन्ध या प्रश्नव्याकरण । किन्तु एक ही सूत्र में यदि इस प्रकार के भिन्न रूप आते हैं तो एक स्थल पर भी प्राचीन रूप मिलने पर अन्यत्र उन्हें परिवर्तित किया जा सकता है ।
पाठ शुद्धिकरण में दूसरी सावधानी यह आवश्यक है कि आगमों में कहीं-कहीं प्रक्षिप्त अंश है अथवा संग्रहणीयों और निर्मुक्तियों की अनेकों गाथाएं भी अवतरित की गयी हैं, ऐसे स्थलों पर पाठ -शुद्धिकरण करते समय प्राचीन रूपों की उपेक्षा करनी होगी और आदर्श में उपलब्ध पाठ को परवर्ती होते हुए भी यथावत् रखना होगा ।
इस तथ्य को हम इस प्रकार भी समझा सकते हैं कि यदि एक
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अध्ययन, उद्देशक या एक पैराग्राफ में यदि ७० या ८० प्रतिशत प्रयोग महाराष्ट्री या 'य' श्रुति के हैं और मात्र १० प्रतिशत प्रयोग प्राचीन अर्धमागधी के हैं तो वहां पाठ के महाराट्री रूप को रखना ही उचित है । संभव है कि वह प्रक्षिप्त रूप हो, किन्तु इसके विपरीत उनमें ६० प्रतिशत प्राचीन रूप हैं और ४० प्रतिशत अर्वाचीन महाराष्ट्री के रूप है, तो वहां प्राचीन रूप रखे जा सकते हैं।
पुनः आगम संपादन और पाठ शुद्धीकरण के इस उपक्रम में दिये जाने वाले मूल पाठ को शुद्ध एवं प्राचीन रूप दिया जाय, किन्तु पाठ टिप्पणियों में सम्पूर्ण पाठान्तरों का संग्रह किया जाय । इसका लाभ यह होगा कि कालान्तर में यदि संशोधन कार्य करें तो उसमें सुविधा हो।
अन्त में में यह कहना चाहूंगा कि प्रो० के० भार० चन्द्रा अपनी शारीरिक आदि अनेक सीमाओं के बावजूद भी जो यह अत्यन्त महत्वपूर्ण
और श्रमसाध्य कार्य कर रहे हैं, उसकी मात्र आलोचना करना कदापि उचित नहीं है, क्योंकि वे जो कार्य कर रहे हैं वह न केवल करणीय है बल्कि एक सही दिशा देने वाला कार्य है। हम उन्हें सुझाव तो दे सकते हैं लेकिन अनधिकृत रूप से येन-केन प्रकारेण सर्वज्ञ और शास्त्र-श्रद्धा की दुहाई देकर उनकी आलोचना करने का कोई अधिकार नहीं रखते। क्योंकि वे जो भी कार्य कर रहे हैं वह बौद्धिक ईमानदारी के साथ, निलिप्त भाव से तथा सम्प्रदायगत आग्रहों से ऊपर उठकर कर रहे हैं, उनकी नियत में भी कोई शंका नहीं की जा सकती। अत: में जैन विद्या के विद्वानों से नम्र निवेदन करूंगा कि वे शान्तचित्त से उनके प्रयत्नों की मूल्यवत्ता को समझे ओर अपने सुझावों एवं सहयोग से उन्हें इस दिशा में प्रोत्साहित करें।
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जीवन-विज्ञान के प्रयोग :
मनुष्य का क्रूरतापूर्ण आचरण बंद हो सकता है ?
समणी स्थितप्रज्ञा
आज चारों ओर स्व र बुलन्द हो रहा है कि सामाजिक बुराइयां बढ़ रही हैं । समाज का ढांचा विकृतियों के दबाव से चरमरा रहा है । इस दिशा में गहराई से चिन्तन करें तो आज की सारी विसंगतियां, आज के सारे विरोधाभास, आज की सारी समस्याएं ----चाहे आर्थिक क्षेत्र में हैं. चाहे
राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्र में हैं उनका मूल उत्स है. मनुष्य का क्रूरतापूर्ण आचरण ।
क्या क्रूरता के बिना कोई आदमी किसी को धोखा दे सकता है ? किसी को लूट सकता है ? मिलावट कर सकता है ? रिश्वत ले सकता है ? ये सारी बातें नहीं हो सकतीं यदि पारस्परिक सद्भावना हो ! पर एक क्रूरता ऐसी है कि सब-कुछ खाओ तो भी हजम हो जाता है।' एक बीमार पड़ा है मृत्यु-शय्या पर । लेकिन जब तक अधिकारियों की भेंट-पूजा नहीं हो जाती तब तक हॉस्पिटल में भर्ती होना भी कठिन हो जाता है। एक व्यवसामी गायों को, भैंसों को बिना मौत मार सकता है। चारे में ऐसी मिलावट कर देता है कि चारा खाते ही पशु मरने लग जाते हैं। क्या करता के बिना ऐसा संभव है ? यह सारी आर्थिक भ्रष्टाचार की कहानी क्रूरता की कहानी है।'
आज आर्थिक समस्या को सुलझाने के लिए अनेक प्रयत्न किये जा रहे हैं। यदि उन प्रयत्नों के साथ-साथ शुद्धि और व्यक्तिगत उपभोग का संयम ये दो बातें और जोड़ दी जाएं तो निश्चित ही इस समस्या के समाधान में आध्यात्म का बहुत बड़ा योग होगा। भगवान महावीर ने गृहस्थों की नैतिक संहिता में जो नियम निश्चित किए थे, उनसे समाज-व्यवस्था को भी बहुत सहारा मिला। उदाहरणस्वरूप इन नियमों का निर्देश किया जा सकता है
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१. अपने कर्मकारों की आजीविका का विच्छेद न करना ।
२. पशुओं पर अधिक भार न लादना ।
३. झूठी साक्षी न देना ।
४. अपनी विवाहित स्त्री के अतिरिक्त किसी के साथ अब्रह्मचर्य का
सेवन न करना ।
५. संग्रह की एक निश्चित सीमा करना । उस सीमा से अतिरिक्त
संग्रह न करना ।
६. धन-संग्रह और भोगवृद्धि के लिए दूसरे देशों में न जाना, आदिआदि । "
हमारा व्यवहार शुद्ध हो । ( अणुव्रत - खांदोलन आचारर-शुद्धि और व्यवहार-शुद्धि का आंदोलन है ) । दूसरे के प्रति हमारा व्यवहार क्रूरता से मुक्त हो। इसके लिए आवश्यक है— हमारे में करुणा की धारा प्रवाहित हो । ( करुणा की भावना से क्रूरता को समाप्त किया जा सकता है ) ।
आज विषमता से समूचा समाज पीड़ित है । अर्थशास्त्र को जानने वाले कुछ लोग सोच सकते हैं कि इच्छाओं का विकास नहीं होगा तो उत्पादन नहीं बढ़ेगा । उत्पादन नहीं बढ़ेगा तो समाज समृद्ध नहीं होगा । इसलिए इच्छाओं का बढ़ाना जरूरी है । मैं इस तथ्य को सर्वथा नहीं नकारना चाहता । मैं यह मानता हूं कि सामाजिक प्राणी इच्छा और महत्वाकांक्षा को छोड़कर विकास नहीं कर सकता । इस सिद्धांत को स्वीकृति देते हुए भी इस बात को कहे बिना नहीं रह सकता कि अपरिमित इच्छाओं का होना समस्याओं को बढ़ावा देना है । वर्ग संघर्ष और वर्ग भेद का सिद्धांत इसी आधार पर पनपा है । एक ओर शक्तिशाली, बुद्धिशाली और साधनसम्पन्न समाज था । उसने पदार्थों का इतना संग्रह कर लिया कि साधन विहीन, कमजोर और अनपढ़ समाज के पास कुछ रहा ही नहीं । जब इतना तारतम्य (वैषम्य ) है तब वर्ग संघर्ष के कारण सारी समस्याएं उत्पन्न होती हैं ।"
महावीर ने घोषणा की— मनुष्य जाति एक है । जातीय भेदभाव, घृणा और छूआछूत - ये हिंसा के तत्त्व हैं। अहिंसा धर्म में इनके लिए कोई अवकाश नहीं है ।' आगे भगवान् महावीर ने कहा- 'कामाणुगिद्धिप्पभवं खुदुक्खं " - संसार में जितने दुःख हैं, वे सारे काम की आसक्ति के कारण उत्पन्न हुए हैं । दुःखों की जननी हैं- इच्छाएं, वासनाएं, कामनाएं ।" इन ज्वलन्त समस्याओं का समाधान सन्निहित है 'इच्छा परिणाम' में अर्थात् इच्छाओं का संयम ।
'इच्छा - परिमाण' के निष्कर्ष संक्षेप में इस प्रकार प्रस्तुत किए जा सकते हैं
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"
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१. न गरीबी और न विलासिता का जीवन ।
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२. धन आवश्यकता पूर्ति का साधन है, साध्य नहीं । धन मनुष्य लिए है, मनुष्य धन के लिए नहीं है । .
३. आवश्यकता की सन्तुष्टि के लिए धन का अर्जन किन्तु दूसरों को हानि पहुंचाकर अपनी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि न हो,
इसका जागरूक प्रयत्न ।
४. आवश्यकताओं, सुख-सुविधाओं और उनकी सन्तुष्टि के साधनभूत धन-संग्रह की सीमा का निर्धारण ।
५. धन के प्रति उपयोगिता के दृष्टिकोण का निर्माण कर संगृहीत धन में अनासक्ति का विकास ।
आध्यात्मिक विकास
६. धन के सन्तुष्टि - गुण को स्वीकार करते हुए की दृष्टि से उसकी असारता का अनुचितन । ७. विसर्जन की क्षमता का विकास ।"
मैं इस बात का पक्षपाती हूं कि व्यक्ति को आशा उतनी ही करनी चाहिए, जितनी संभव हो । अति आशा का परिणाम कभी सुखद नहीं होता । अप्रत्यक्ष रूप से वह निराशा को ही आमंत्रण है ।" जीवन तो हर व्यक्ति को मिलता है, पर उसी व्यक्ति का जीवन सार्थक होता है जो कुछ बनता है । बनने वाले व्यक्ति की राह आरोहों -अवरोहों की घाटियों से होकर गुजरती हैं । 23 आचार्य सोमदेव ने लिखा है - " समता परमं आचरणम् ।" आचार का सबसे बड़ा सूत्र है - समता, साम्यभाव, समानता ये केवल समाजवाद साम्यवाद का ही सूत्र नहीं है । यह हर चिंतन की अच्छाई का सूत्र है कि जहां समतापूर्ण मनःस्थिति होती है वहां समाज का विकास होता है और जहां समाज की आचारधारा में विषमता होती है वहां समाज का पतन होता है । आचार के परिष्कार का ही अर्थ है - समता का विकास ।
या
१४
।
१६
सामाजिक स्वास्थ्य में बाधा डालने वाली जो वैयक्तिक मनोवृत्तियां हैं, उनका परिमार्जन होना चाहिए ।" स्वभाव की जटिलता के कारण मनुष्य संघर्ष में से गुजरता है और उसकी एक ऐसी भट्टी जलती है जिसकी आंच सदा प्रताड़ित करती रहती है कभी क्रोध का कभी अहंकार का, कभी वासना का तो कभी भय का । न जाने कितने चूल्हे जल रहे हैं । कितनी यांच पका रही है । उस आंच के कारण स्वभाव बिगड़ता है और उसका परिणाम शरीर पर होता है तो शरीर रुग्ण होता है । मन पर होता है तो मन रुग्ण होता है और भावना पर होता तो भावनाएं रुग्ण होती हैं । आंतरिक वृत्तियां रुग्ण होती हैं भगवान् महावीर ने
है
१७
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कहा आग्रह मत करो । पदार्थ को पूर्णता से
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कोई नहीं जानता । इस स्थिति में दो ही उपाय बचते हैं-सह-अस्तित्व और समन्वय । समन्वय करो अर्थात् मैं जो समझ रहा हूं, मैं जो कह रहा हूं और मैं जिसे सत्य मान रहा हूं, वह सत्य है किन्तु दूसरा जो समझ रहा है, कह रहा है, या जिसे सत्य मान रहा है, वह भी सत्य होना चाहिए । उसकी अपेक्षा को मुझे समझना चाहिए । सापेक्षता के द्वारा समन्वय फलित होता है। जहां समन्वय है, वहां सह-अस्तित्व आ ही जाता है ।" नाना विचारों और नाना वादों की समस्या को सुलझाने का यह है एक समाधान ।" छोटे-से-छोटे व्यक्ति को, अपने नौकर को अपने कर्मचारी को, अपने किसी व्यक्ति को, एक मनुष्य की दृष्टि से देखना, चैतन्य की दृष्टि से अनुभव करना, यह है समता की दृष्टि ।" जहां साम्यभाव का विकास होता है वहां समस्याएं निरस्त हो जाती हैं ।
1
वर्तमान में चारों ओर आतंकवाद बढ़ रहा है, भय बढ़ रहा है । ऐसी विकट परिस्थितियों का समाधान ढाई हजार वर्ष पूर्व ही भगवान् महावीर ने दे दिया था । महावीर ने समाज के संदर्भ में कहा - 'शस्त्रों का निर्माण मत करो, उनका व्यवसाय मत करो उनको सज्जित मत करो, उनका दान मत करो ।' व्यक्ति के संदर्भ में कहा, 'उस चित्त को बदलो, जो शस्त्रों का निर्माण करता है । उस चित्त को बदलो जो जंजीरों का निर्माण करता है । 'अप्पणासच्च मेसेज्जा, मेति भूएस कप्पए स्वयं सत्य खोजो और सबके साथ मैत्री करो । सत्य की खोज करो और उसकी निष्पत्ति होगी मैत्री २२ मैत्री का सुख चौबीस घंटा साथ में रहता है । सोता है तब भी वह जागता रहता है । वह निरन्तर साथ ही रहता है, छोड़ता । कौन प्रभु है, मैं नहीं जानता, छोड़ता २१
२१
किंतु मंत्री का प्रभु
,
दायित्व का बोध, मानवीय मूल्यों भी आवश्यक है ।' इसके
।
यथार्थ में शिक्षा का मूल
व्यक्ति में समाज के प्रति अपने का विकास तथा व्यक्तिगत चरित्र का विकास लिए शिक्षा अपनी अहं भूमिका अदा करती है उद्देश्य है-मन का संतुलन, मन की शान्ति, मन का निर्विकल्प होना । इस ओर लोगों ने कभी ध्यान ही नहीं दिया । शिक्षा जगत् में भी यह उद्देश्य तिरोहित हो रहा है। पूरे शिक्षा जगत् पर हम ध्यान दें ।
आज व्यक्ति पढ़
लिखकर अच्छा वैज्ञानिक बन जाता है । विशेषज्ञ बन जाता है, फिर भी वह लड़ाई फंसा रहता है. आत्महत्या कर लेता है । परिस्थितियों से घबराना कायरता है । अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों का डटकर वह तत्व है, जो जीवन-संग्राम में हारी
इंजीनियर या डॉ० बन जाता है, करता है, निन्दा और ईर्ष्या में यह क्यों ? यह बड़ा प्रश्न है : २५ अपेक्षा इस बात की है कि इन मुकाबला किया जाए । पुरुषार्थ बाजी को भी विजय में बदल देता
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कभी भी साथ नहीं कभी साथ नहीं
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है।" प्रतिकूल परिस्थितियों में भी जो भावनात्मक स्तर पर अपना संतुलन बनाए रखता है, सहिष्णु बना रहता है, वह बाह्य निमित्तों से प्रभावित नहीं होता।" आचार्य श्री तुलसी ने उदघोष दिया -'निज पर शासन फिर अनुशासन' ।२८ इससे सहज ही अपना अनुशासन जागता है नियंत्रण की क्षमता बढ़ती है तो आदमी शक्तिशाली बन जाता है ।२९ जब व्यक्ति अपने संवेगों पर नियंत्रण करना सीख लेता है तो आत्महत्या जैसी जटिल समस्याओं का समाधान प्राप्त कर लेता है ।
हमारे भीतर दो प्रणालियां काम कर रही हैं। एक है रासायनिक प्रणाली और दूसरी है विद्युत्-नियंत्रण प्रणाली । ये दोनों प्रणालियां आदमी के आचार और व्यवहार का नियंत्रण करती हैं। यदि रासायनिक प्रणाली को समझ लिया जाए तो जीवन का क्रम बदल सकता है। रासायनिक प्रणाली में अन्तःस्रावी ग्रन्थियां काम करती है। उनके स्राव रक्त में मिलते हैं और आदमी के व्यवहार और आचरण को प्रभावित करते हैं। अनुप्रेक्षा और प्रेक्षा के माध्यम से हम उन ग्रन्थियों को प्रभावित कर सकते हैं, स्रावों को बदल सकते हैं।
इसी प्रकार विद्युत-नियंत्रण का परिवर्तन होता है। हमारे स्नायुसंस्थान में पर्याप्त मात्रा में विद्य त है। उसी विद्य त के कारण हमारी सक्रियता बनी रहती है। उन विद्य त के प्रकम्पनों को बदलने पर आदतें बदल जाती हैं ।
ज्योतिकेन्द्र, दर्शनकेन्द्र और शांतिकेन्द्र-इन चैतन्य केन्द्रों पर ध्यान करने का अर्थ है नियंत्रण की शक्ति को विकसित करना। जैसे-जैसे ध्यान की गहराई बढ़ती है, नियंत्रण की सहज क्षमता बढ़ती जाती है। ज्योति केन्द्र पर सफेद वर्ण का ध्यान तीन महीने तक निरंतर करने से पिनियल और पिच्यूटरी ग्रन्थि सक्रिय होती है और उससे नियंत्रण की शक्ति का विकास होता है ।
सारांश में कहा जा सकता है कि परिवर्तन के लिए मस्तिष्क के नव-निर्माण की अत्यन्त आवश्यता है । यदि समाज का प्रत्येक व्यक्ति इसका अनुभव करे । अपने जीवन को प्रयोगात्मक बनाएं तो समाज में उभरने वाली ज्वलन्त समस्याओं का समाधान हम स्वयं अपने भीतर खोज सकते हैं ! स्वस्थ समाज की परिकल्पना को साकार रूप दे सकते हैं । सबका हित, सबका विकास, 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' का उद्घोष पुनः व्यवहार में आ सकता है और मनुष्य का क्रूरतापूर्ण आचरण बन्द हो सकता है।
संदर्भ १. मैं कुछ होना चाहता हूं, पृ० १२६
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२. वही, पृ० १२६ ३. वही, पृ० १२७ ४, घट-घट दीप जले, पृ० २२२ ५. वही, पृ० २२९ ६. मैं कुछ होना चाहता हूं, पृ० १२७ ७. मैं कुछ होना चाहता हूं, पृ० १२७ ८. घट-घट दीप जले, पृ० १९७ ९. घट-घट दीप जले, पृ० २२८ १०. वही, पृ० १९८ ११. सत्य की खोज अनेकान्त के आलोक में, पृ० ३९ १२. प्रवचन पाथेय, भाग ८, पृ० २५३ १३. प्रज्ञा-पर्व, पृ० ४३ १४. मैं कुछ होना चाहता हूं, पृ० १२७-२८ १५. जीवन की पोथी, पृ० १२८ १६. मैं कुछ होना चाहता हूं, पृ० १२८ १७ वही, पृ० १२८ १८. घट-घट दीप जले, पृ० २१५ १९. वही, पृ० २१५ २०. जीवन विज्ञान : शिक्षा का नया आयाम, पृ० १४० २१. घट-घट दीप जले, पृ० २३४ २२. जीवन की पोथी, पृ० ६० २३. जीवन की पोथी, पृ० ६३ २४. जीवन विज्ञान : शिक्षा का नया आयाम, पृ० १४३ २५. जीवन विज्ञान : शिक्षा का नया आयाम, पृ० ३२ २६. सोचो ! समझो ! पृ० १८ २७. वही, पृ० १८ २८. उत्तरदायी कौन ? पृ० १११ २९. वही, पृ० १११ ३०. उत्तरदायी कौन ? पृ० १०९ ३१. वही, पृ० १०९ ३२. वही, पृ० ११० ३३. जीवन की पोथी, पृ० १४९
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पुस्तक-समीक्षा
१. आचार्य हरिषेण प्रणीत 'धम्म परिक्खा' सं० डॉ. भागचन्द्र जैन 'भास्कर', प्रकाशक-सन्मति रिसर्च इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलोजी, आलोक प्रकाशन, नागपुर, प्रथम संस्करण-१९९०, पृष्ठ ११०+-१६०+१६ मूल्य---नहीं दिया।
धम्म परिक्खा-भारत में विविधानेक संप्रदायों की आपसी वादविवाद-संस्कृति से प्रस्फुटित ग्रंथ है । इसमें पौराणिक धर्म (संप्रदाय) गत परपक्ष का खंडन करके स्वपक्ष स्थापना की कोशिश हुई है । लेखक ने अपने को 'मनोवेग' और अपने मित्र को 'पवनवेग' संज्ञा देकर पर-पक्ष खंडन और स्वपक्ष मण्डन किया है।
कवि ने स्वयं लिखा है--"जा जयरामें आसि विरइय गाह-पबंधि । साहमि धम्म परिक्खा सा पद्धडियाबंधि ।"-कि जयराम ने जिस धर्म परीक्षा को गाथाओं में कहा था, उसे ही मैंने (हरिषेण ने) पद्धडिया छन्द में निबद्ध किया है । हरिषेण ने अपना लेखन-काल सं० १०४४ दिया है। उसके बाद राजा भोज के सभारत्न अमितगति ने अपनी धर्मपरीक्षा सं० १०७० में रची है। इस प्रकार ये तीनों धर्म-परीक्षा-ग्रंथ धारानगरी में विक्रम की ग्यारहवीं सदी में रचे हैं । हमारी समझ में जयराम, हरिषेण और अमितगति एक ही वंश-परम्परा के परिजन हैं । उन्होंने धर्म-परीक्षा की लोकप्रियता के कारण इसे क्रमशः प्राकृत, अपभ्रंश और संस्कृत में लिखा है।
___कवि हरिषेण ने रज्ज्यनी-नरेश जितशत्रु के पुत्र मनोवेग को अपना कथा-नायक बनाया है और उसके अभिन्न मित्र पवनवेग को जैनेतर विचारों का युवक । ये दोनों युवक राज परिवार से संबंधित लगते हैं जो एक जैन मुनि (सिद्धसेन) के कहने से पाटलीपुत्र जाते हैं। वहां (संधि-२ के छठे छंद बंध) 'करे हरिसंजेण वं हणियाणे' और 'तउ भासियं तेहिं रोडेहं पुत्त्तं' के रूप में कवि ने स्वयं ही आत्म-परिचय दे दिया है जो धर्म परीक्षा के अन्त में दी गई निम्न प्रशस्ति से स्पष्ट हो जाता है :
इह मेवाड़देसि जणसंकुलि। सिरि ओज उर निग्गय धक्कड़ कुलि ॥
पावकरिंद कुंभ दारणहरि । जाउ कहिं कुसुलु णामें हरि । खण्ड १९, अंक ३
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तासु पुत्तु परणारिसहोयरू। गुणगणणिहि कुलगयण दिवायरू ।। गोवड्ढसु णामें उप्पण्णउ । जो सम्मत्तरयण संपुण्णउ ।। तहो गोवड्ढाणसु पियगुणवई । जा जिणवर पय णिच्च वि पणवई ॥ ताए जणिउ हरिसेण णामें सुउ । जो संजाउ विवुहकई विस्सुउ ।। सिरि चित्तड्डु चएवि अचल उर हो। गउ णियकज्जें जिणहरपउर हो । तहि छंदालं करि पसाहिय । धम्म परिक्ख एह तें साहिय ॥
अर्थात् मेवाड़ में चित्तौड़ का मैं निवासी हूं और उजौर से उठा धक्कड़ मेरा वंश है। इस वंश में 'हरि' नाम के कविकोविद थे। उनके पुत्र गोवर्धन मेरे पिता हैं । मेरी माता का नाम गुणवती है और मैंने चित्तौड़ से अचलपुर पहुंच कर धर्म-परीक्षा नामक ग्रन्थ बनाया है।
इस विवरण से श्री हरि और श्री रोड़े के दो परिवारों का परिचय मिलता है जिनके वंश क्रमशः दो पात्र मनोवेग (हरिषेण) और पवनवेग हैं। पवनवेग के पिता संभवत जयराम हैं जो रोड़ कवि नाम से भी प्रसिद्ध रहे होंगे । (उल्लेखनीय है कि राजराण रोड़राउ रचित "राउरवेल" नाम का शिलांकित खण्ड काव्य मिला है जो भाषा की दृष्टि से 'धम्म परिक्खा' की भाषा से मेल खाता है । यह शिलालेख प्रिंस और वेल्स म्यूजियम, बम्बई में सुरक्षित है और धारा (मालवा) से प्राप्त बताया जाता है।) उनके द्वारा रचित "धम्म परिक्खा" गाथाओं में निबद्ध रही होगी। जो अभी तक अनुपलब्ध है । कवि जयराम का उल्लेख नयनंदी ने भी अपने 'सुढेसण चरिउ' में किया है।
डा० भागचन्द्र 'भास्कर' ने पहली बार इस ग्रन्थ का उद्धार किया है और धम्म परिक्खा-परम्परा की १८ कृत्तियों का नमोल्लेख किया है। यह कृति धर्म परीक्षा की दृष्टि से ही लिखी गई है। इसके लेखन से किसी धर्म का अपमान अभिप्रेरित नहीं है । इस बात को स्पष्ट करने के लिए डा. भास्कर ने अमितगति की निम्न पंक्तियां उदघृत की हैं
अहारि कि केशव शंकरादिभिः व्यतारि कि वस्तु जिनेन चार्थिनः । स्तुवे जिनं येन निषिध्य तानहं,
बुधा न कुर्वन्ति निरर्थकां क्रियाम् ॥ कि विष्णु और शिव ने हमारा कुछ लिया नहीं है और जिनेन्द्र भगवान् ने हमें कुछ दिया नहीं है। हमारा निवेदन इतना ही है कि सत्पुरूषों को कुमति वाले मार्ग को छोड़ देना चाहिए; किन्तु इस धर्म परीक्षा के कथ्य में आक्षेप आदि देखे जा सकते हैं।
संपादन में हालांकि बहुत परिश्रम किया गया है किन्तु दोनों हस्तलिखित प्रतियां १९वीं सदी विक्रमी की हैं। दूसरी प्रति को डा. भास्कर ने
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सं० १५९५ कीनकल माना है। फिर भी और प्रतियों से पाठ-संशोधन की अपेक्षा मानी जानी चाहिए। साथ ही धम्म परिक्खा का संपूर्ण हिन्दी अनुवाद भी आवश्यक है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में मलयदेश, आभीरदेश, रेवानदी, सौराष्ट्र, मथुरा, अंग, चंपापुरी, चोल द्वीप, साकेत और पाटलीपुत्र के संदर्भ हैं। अतः यह 'कुवलयमाल कहा' की तरह विशिष्ट कृति है। इसका सुसंपादन आवश्यक है । ऐसी महत्त्वपूर्ण कृति को प्रकाश में लाने के लिए डा० भास्कर बधाई के पात्र हैं।
-परमेश्वर सोलंकी २. णाणसायर (the occean of knowledge), विद्यासागर पब्लिकेशन्स, बी-५/२६३, यमुना बिहार, दिल्ली-५३ मूल्य-एक प्रति दस रुपये ।
जून, सन् १९८९ में श्री अशोक जैन एवं कुसुम जैन ने आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज के आशीर्वाद एवं आचार्यश्री विद्यासागर शोध संस्थान, जबलपुर के दिशा-निर्देश पर "णाण सायर" का प्रकाशन शुरू किया था । तब से अब तक उसके नौ अंक निकले हैं । सातवां अंक संभवतः अरिहन्त इंटरनेशनल, २३९, गलीकुंजस, दरीबा, दिल्ली-६ से प्रकाशित हुआ। आठवें अंक में केलादेवी सुमतिप्रसाद ट्रस्ट, दिल्ली द्वारा प्रकाशित 'आरमा का वैभव' भी पाठकों को समुपलब्ध कराया गया और नौवें अंक में "प्रकाशित जैन साहित्य विवरणिका-१" का प्रकाशन किया गया है।
संपादक-बन्धुओं ने जिस निष्ठा और आत्म-विश्वास से ये अंक निकाले हैं वह स्तुत्य है। इनमें अनेकों लेख उच्चस्तरीय हैं। आचार्य विद्यासागर उवाच' प्रायः स्थायी स्तंभ है और वह साधारण पाठकों के लिये बहुत रोचक और पठनीय सामग्री प्रस्तुत करता है । पांचवा अंक "णमोकार अंक-१' के रूप में प्रकाशित हुआ है और वह भी बहुत आशाएं जगाता है किन्तु उसके दूसरे अंक नम्बर में क्या छपना है ? यह प्रश्न अनुत्तरित है।
ज्ञान सागर में सभी कुछ हो सकता है-इस दृष्टि से देखें तो 'णाणसायर" के ये अंक बहुत उपादेय और संग्रहणीय लगते हैं, किन्तु प्रथम तो ३४ संरक्षक और १६८ आजीवन सदस्य बन जाने पर भी लगता है यह प्रकाशन अपने पैरों पर खड़ा नहीं हुआ। दूसरे उसमें जो बार-बार घोषणाएं की जाती रहीं हैं वे पाठक को उत्साहित नहीं कर पाई।
__वस्तुतः यह ज्ञान यज्ञ 'घर फूंक तमाशा देख' बन रहा है । अच्छा हो, प्रबुद्ध जैन समाज उत्साही सम्पादकों के लिये सहयोग के हाथ बढायें और "णाण सायर' में जो सागर से मोती ढूंढ कर लाने की प्रतिज्ञा की गई थी
खण्ड १९, अंक ३
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उसे सार्थक बनने दिया जाए ।
संपादकों को इन अंकों के प्रकाशनाथ बधाई ! और अजस्र - अविरल गति बनाए रखने को शुभकामनाएं !!
३. शोध - समवेत - श्री कावेरी शोध संस्थान, उज्जैन की त्रैमासिक शोध पत्रिका | प्रकाशक- - श्री कावेरी शोध संस्थान, ३४, केशवनगर, गऊघाट, उज्जैन-४५६०१० वार्षिक शुल्क --- संस्था के लिए १००/- व्यक्ति के लिए ६० /- रुपये ।
पिछले उज्जैन के सिंहस्थ महापर्व पर कतिपय विद्वानों की एक अनौपचारिक बैठक में शोध समवेत के प्रकाशन का संकल्प हुआ और डा० श्याम सुन्दर निगम के सतत प्रयास और अविरल परिश्रम से श्री कावेरी शोध संस्थान का प्रतिष्ठापन हो गया ।
जनवरी- जून, १९९२ में प्रवेशांक के बाद शोध- समवेत के दो खण्डों के सभी अंक प्रकाशित हो गए हैं । प्रवेशांक में सिंहस्थ-८० के अवसर पर डा० ब्रज बिहारी निगम के मार्गदर्शन में हुए सर्वेक्षण की सामग्री का प्रकाशन हुआ किन्तु जुलाई - दिसम्बर १९९२, जनवरी- जून, १९९३ और जुलाई - दिसम्बर, १९९३ के अंकों में अधिकारी विद्वानों के उच्चस्तरीय लेखों को प्रकाशित कर पाना निस्संदेह जर्नल के संरक्षक, परामर्शक एवं सम्पादक बन्धुओं के अथक परिश्रम से ही संभव हुआ है ।
शोध कार्य निरन्तर अग्रसारित होता है, इसलिए उसमें संस्कार की अपेक्षा बनी रहती है किन्तु जो कुछ मिला अथवा सूझा उसे यथातथ्य प्रकट कर देना शोधकर्ता का दायित्व है और इस दायित्व के निर्वहन में शोधसमवेत बहुत जागरूक और सचेष्ट दीख पड़ता है । जुलाई - दिसम्बर १९९३ के अंक में ही धर्म-निरपेक्षता एवं राष्ट्रीय एकीकरण, मध्यप्रदेश में मसीहियों का योगदान, पूर्वी मालवा के मुस्लिम राज्य, पश्चिम मध्यप्रदेश में प्रशासनिक व्यवस्था (१८१८ से १८५८), परमार कालीन नागरिक एवं ग्राम व्यवस्थाइत्यादि लेख कितने क्रम बद्ध और अभिनव सामग्री से ओतप्रोत हैं - यह संबंधित क्षेत्रों के शोधार्थी समझ सकते हैं । अफगानिस्तान में बौद्ध धर्म की प्राचीनता — शीर्षक से डा० जीवनराम ने नई सामग्री दी है किन्तु अभी भी उन्हें काबुल - तक्षशिला से खोतान तक पहुंचने में कई पड़ाव तय करने हैं । ऐसे ही डा० ब्रज बिहारी निगम को भी 'लकुलीश का कर्म क्षेत्र' तय करने को उज्जैनी से उत्तर में बढ़ना होगा, किन्तु यह तो सतत साधना है, इसलिये इसे शोध - समवेत के शुभारंभ का परिचायक मानकर हमें कावेरी संस्थान के सत्प्रयासों को बढ़ावा देना चाहिए ।
४.
अनुसंधान --- प्राकृत भाषा अने जैन साहित्य विषयक संपादन,
तुलसी प्रज्ञा
२६०
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संशोधन, वगेरेनी पत्रिका । प्रकाशक-कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्म शताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद । सम्पर्क:हरि वल्लभ भायाणी, २५/२ विभानगर, सेटेलाईट रोड, अहमदाबाद-१५ । मूल्य-१० रुपये।
प्रस्तुत पत्रिका संकलनकार के शब्दों में--"मुख्यत्वे गुनरातमां (के क्वचित् अन्यत्र) जैन मुनिवर्यो, संशोधन संस्थाओं अने विद्वानों द्वारा जे कोई ग्रंथ- संपादन कार्य चालतुं होय तेने लगती संक्षिप्त माहिती, भाषा, इतिहास, सांस्कृतिक परंपरा वगेरेने लगता चाली रहेल संशोधन कार्य नी माहिती, कोई नवा संशोधनात्मक मुद्दा ने लगती हूंकी नोंध, वगेरेनो समावेश करवान लक्ष्य राख्यं छे।"-मुख्यत: गुजरात प्रान्त के लिए है और इसीलिए संभवतः इसकी भाषा भी गुजराती रखी गई है।
पत्रिका के पहले अंक में के० आर० चन्द्र, ह० भायाणी, नारायण कंसारा और बलवंत जानी के लेख प्राकृत-अपभ्रंश भाषा विषयक हैं और सभी भाषा प्रेमियों के लिए परम उपयोगी हैं। आदरणीय शीलचंद्र विजय और कनुभाई शेठ के लेख भी अभिनव सूचनाएं मुहिय्या करते हैं। वर्तमान संशोधन-शीर्षक से दी गई जानकारी तो पूर्णतः अनूठी है। ऐसी जानकारी का प्रसार अत्यन्त आवश्यक है-इसे शोध जगत् का प्रत्येक विद्वान् स्वीकार करेगा। संकलन और प्रकाशन के लिए कोटि-कोटि साधुवाद ।
५. प्राकृत एवं जैन विद्या शोध-संदर्भ-(परिशिष्ट) संपादक, कपूरचंद जैन, प्रकाशक-श्री कैलाशचन्द्र जैन स्मृति न्यास, खतौली (उ.प्र.)२५१२०१ पृ०-१६, निःशुल्क ।
डॉ० कपूरचंद जैन द्वारा प्रकाशित बिब्सियोग्राफी ऑफ प्राकृत एण्ड जैन रीसर्च, द्वितीय संस्करण १९९१ की समीक्षा 'तुलसी प्रज्ञा' खण्ड १७ अंक ३ के अंग्रेजी विभाग में छपी है। प्रस्तुत प्रकाशन उसी का परिशिष्ट है । इसमें डॉ० जैन ने १४५ शोध-प्रबन्धों की जानकारी और उपलब्ध कराई है। उनका यह सतत प्रयास निःसंदेह स्तुल्य है ।
-परमेश्वर सोलङ्की
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TULSI PRAJNA
Vol. XIX : No. Three
Oct.-Des., 1993
English Section
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. CULTURAL RELATIONS OF INDIA WITH TIBET AND CHINA
Narendra Kumar Dash
[An article entitled "Cultural Relations of India with Tibet and China'' was published by the author in the S.R. Rao's 70th birthday volume, Goa; in which he discussed the cultural linkage between India & Tibet from 7th century A.D. to the middle of 11th century A.D., when Dipamkara Srijñāna reached at Tibet (1042 A D.). Now in this paper he proposes to study on the activities of Dipankara Šrijñāna in Tibet. Further, in this article a nice picture of the India's cultural relations with China and viceversa has been projected. Particularly the interchange of scholars between India and Cbina from 1st century A.D. to 11th century A.D. –Editor.]
In the water-Male-Horse year i.e. 1042 A.D.; Atisa reached : m Na-ris, a place in Tibet. He, however, preached the good law in western and central Tibet particularly in sne-thān and gtsan monasteries. When Buddhism had already taken its deep root in the soil of Tibet for the second time, in the year of Wood-Male-Horse year i.e. 1054 A.D., Dipaṁkara passed away at Nei-than near Lhase at the age of seventythree. Gos lo-tsa-ba suggests that “On the twentieth day of the middle autumn month of the year Wood-Male-Horse year (4,D. 1054) the Masies proceeded to Tuşita. In the writings of ancient bkagdamn-pa-s there is much disagreement as to the elements of this Horse year, but I have given (the date) after a thorough examination of the different dates mentioned in the lives of contemporary) teachers. This year WoodMale-Horse is certain.”'?
Initially, after spending three years at mNa-ris when Dipamkara was preparing to return to his motherland, he
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was met by 'Brom while residing at a place named rgyal. shin. However, while returning towards Bal-po-rdzon, he stayed at skyid-gron for a year and there, he found that the road was closed due to internal feuds and thus, he was unable to proceed there.3 The place skyid-grn is the Tibetan town on the border of Nepal (Tib. Bal-po).. Thus, the master cancelled his decision to return to India due to the troubles on the route back.
Among the achievements of Dipamkara during the first three years of his stay, special mention needs to be made of the composition of the Bodhipāthapradipa, because it proved crucial not only for the success of his entire Tibetap career but moreover, in an important sense, for the subsequent history of Tibetan Buddhism 5
As a Mahāyāna Buddhist, the great Master could not have believed in any ideal other than that of universal emancipation. As a Mādhyamika Philosopher, again, he could not have preached any doctrine other than that of universal pothingness, ie. Šunyavāda. These two, taken together, from the fundamental theme of the Bodhi-pāțhapradīpa.
From mŃa-ris, Atisa and his associates proceeded to dpal-than, sNe-than, Lhasa, Yer-pa and Lan-pa, where the master was received warmly and preached extensively the Doctrine. Again, towards the last time of his age, he returned to sñe-than and spent last part of his llfe. Thus, Atisa, again revived Buddhism in Tibet during his thirteen years of staying there (i.e. from 1042-1054 A.D.).
Thus the cultural linkage between India and Tibet was started during 7th century A,D. and it continued till the end of the 18th century A.D.; but India's relations with China began much earlier than that of Tibet; from 1st century A.D.
Indians went to China, both by sea-route in the South and by hill-tracks in the North. They learnt the difficult language, translated Indian works sometimes alone and
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sometimes with the help of the Chinese scholars.
Among the Indian scholars we may refer here the name of Kumārajiva (344-413 A,D.) whose efforts were crowned with success in China. He translated 98 works in 425 volumes and also composed a good number of poems in Chinese. Besides, an original work in Chinese language is also credited to him. Thus, he was a master in Chinese language.
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Like Kumarajiva in Chinese, Hiuen-tsang was a great scholar in Sanskrit. He was also well-versed in scriptures and had such a mastery over the (Sanskrit) language. He had defeated in debates many Indian scholars who were his opponents. It has been said that he had taken 657 manuscripts from India on various subjects and translated seventy-five into Chinese in 1335 fascicles. Besides the translation works; he composed independent works explaining difficult philosophical ideas. His work on the Vijñaptimātratāsiddhi of Vasubandhu is the masterpiece.
Among the Indian scholars who went to China, the name of Paramārtha (A.D. 557-589) may be mentioned after Kumarajiva (Ch. Keu-mo-lo-shi,, He took two hundred and forty bundles of Manuscripts to China and translated many of them into Chinese language, but at present only thirty-two works are available.
I tsing, a great writer of the Buddhist records, who was a sound scholar of Sanskrit language had visited India and collected 400 manuscripts containing half-a-million of verses (slokas). He took all the works to China and translated fifty-six of them into Chinese.
It has been said that in the place called Lo-yaag where the Indian monk Bodhiruci was residing, there was a collection of ten thousand manuscripts. However, a good number of these manuscripts are preserved in translation form in the "Chinese Tripitaka". The Chinese Tripitaka, not only bears the Buddhist works, but also some nonBuddhist works like the Suvarṇa-saptati-śăstra and the
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TULSI-PRAJNĀ Vaiseșika-da sa-padārtha-śāstra. Again, it is to mark that while the works of the Tibetan Tripitaka were translated only by Indians and Tibetans, the Chinese one's were translated by scholars from different countries such as India, China, Tibet, Khotan, Tukhar, Persia, Siam, Sri Lanka and so on.
Now, it should not be out of context to mention the names of some scholars those who had contributed to the Chinese Tripitaka. during the 1st century A.D., two great scholars viz., Kāśyapa Mālanga and Dharmaraksa had gone to China and translated a good number of works. Kāśyapa Mātanga (Kia-yeh-mo.tan) was a monk and was born in a Brahamana family of Central India (Madhyabhārata). He had gone to China in 64 A D.6 and composed a work called “The Scripture of the 42 sections”. Shortly after the translation of this work he died in the white horse monastery. The other scholar i.e. Dharmaraksa (Chu Fa-lan) was also an Indian monk left for China just after Kāśyapa Mātanga, to whom he assisted in compiling and translating the "Scripture of the 42 sections”. He also had translated five works into Chinese beiween 68-70 A.D. and died in Lo-yang when he was about sixtyfive years of age.8
Samghabhuti, a native of Kashmir, who was an expert in the doctrines of the Sarvāstivādin school, had gone to China in the 19th year of Chien-yuan's reign of former Ch'in dynasty of North China. This 19th year of reign may be identified with 388 A.D. The Pandit from India first recited the whole Abhidharma Vibhāṣā Šāstra and translated this texts with others like the Āryavasumitrabodhisattvasangiti Sāstra and the Sanghārakșa-sankayaBuddhacarita Sūtra. A friend of this famous scholar named Samghadeva, who came to Chang-an from Kashmir in 383 A.D. had translated the Abhidharmajñāna. prasthāna Šāstra along with Samghabhuti. He had been in Lu-Shan and Nanking to carry on his work of trans. lation and stayed on in China till his death.
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Another famous scholar named Kumārajiva was born in Kuchi (Kive-tse) in 343 A.D. His father Kumārayāna was an Indian and his mother was a princess of Kuchi. After the birth of Kumāra, his mother Jival became a nun. The young child also became a monk at the age of seven, At a very young age he went to Kashmir and began to study the Buddhist religion and philosophy from a famous scholar named Buddhadatta. As the young monk was born brilliant, he became well-versed on the different branches of Buddhist scriptures within a very short time and after that he visited different centres of learning in Central Asia.
The Chinese attacked Kuchi in 388 A.D. and destroyed the country and took Kumāra to China. In China he was highly honoured as his fame was already spread over China. He spent rest of his life at China and studied the Chinese language for thirty years. During his life time he had translated more than a hundred works from Sanskrit and Pali. It is known that he had ten thousand monks as his disciples.
The well-known Chinese mook and traveller who came to India in 39910 A.D. and returned to China in 414 A.D. 11 had translated several texts into Chinese with the cooperation of an Indian Šramana named Buddhabhadra (Chi. Fo-t'a-po-to-lo) and others. Unfortunately, at present, only four translations are available. It is needless to say that his report of travel gives a complete and authentic picture of the then India.
Shih Che-man was an other famous Chinese monk who started for India in 404 A.D along with a group of fourteen friends while they were on the way, one member of their group was died. Another nine persons returned from the Himalayas, Che-man and ihe remaining four friends came to Pāțaliputra, the centre of learning. It is said that Che-man had collected a good number of manuscripts along with the Nirvāņa sūtra. However, the scholar died in the year 453 A.D. 12
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It has been mentioned earlier that in 6th century A.D. Paramārtha had gone to China and translated quite a good number of works into Chinese. At present only thirytwo works are available The Sraddotpâdaśāstra (of Ašvaghosa), the Suvarna-saptatiśāstra (a commentary on the Sankhya Kārīkā) and the life of Vasubandhu were included in his translation works. The great scholar died in China in the year of 569 A.D. at the age of seventy-one.
The Chinese traveller I-tsing had sta ted to India in the year 671 A.D. In India he had travelled so many places. Duri' g his stay in India, he not only learnt Indian langunge, but also collected a huge number of manuscipts. On his return to China in 695 A.D.. he took four hundred valuable works. During his life time he translated fiftysix works and all of his translations are available now. Besides, the translation he had also compiled five works and wrote his report of travels. At the age of seventynine, he died in the year 713 A.D.
Another descendent of Amstodana, the brother of Suddhodana, named Subhakara Sinha, had gone to China from Nālandā monastery when he was eighty years old. He had contributed five works and at last died at the age of ninetynine in the year of 735 A.D.
Amoghavajra, an Ihdian monk born in a Brahmin family, had gone to China in the year of 719 A.D. following his teacher Vajrabodhi He learnt Chinese language and served his teacher in China for thirteen years and in the year of 732 A.D. his teacher asked him to go to India and Sri Lanka to collect some religious texts. Following the advice of his Teacher Amoghavajra returned to India in about 741 A.D.; and collected more than five hundred manuscripts from India and Sri Lanka. Again, in 746 AD, he went to China for the second time. He was held in high veneratin at the court of successive Sovereigns of T’ang dynasty. Under his influence, the Tantric doctrines dealing with talismanic forces and professions of super natural power first gained currency in China. He
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died in 774 A.D., at the age of seventy.
Jñānaśrī, an Indian monk, had gone to China during the Sung dynasty (1053 A D.) and translated two works into Chinese. Thus, there was regular interchange of scholars from India and China from the beginning of the Christian era to the time mentioned above. Not only the Indian Pandits had gone to China and the Chinese scholars had come to India in a great number (we have given only some names), but also theirs w s a close cultural and political linkage between Tibet and China. As a result so many Tibetan Lamas had visited China and the Chinese monks to Tibet, One Tibetan monk named Vashpa (Pu-fu), who became a confidential adviser of Kublai Khan during his China conquest, was recognised as the Head of the Buddhist organisation in 1260 A.D. He was given the title "Preceptor or Hierarch of the State". In 1269 A.D. he introduced an alphabetic system in the Mangoliann language.
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Gradually the translations of work were done in a very scientific and systematic way. It will be known from the following description which is taken from a report of activities of a "Sino-Indian Institute" of 986 A.D., where translation of Indian S riptures were made.
The chief translator (i-chu) sat in the middle and recited the original text. On his left, sat the arthanirṇāyaka (cheng-i) whose duty was to discuss the meaning of the text with the chief translator. The third was the racanāsamikṣaka, the Scrutinizer of the text (Cheng-won) who used to listen carefully to the recitation of the chief translator. The fourth one was the lipikara (shu-tzu) who, after hearing the recitation would carefully translitecate it into Chinese. After that the writer (pi-shou) having seen the transliteration, had autonomy to change into Chinese letter. The Sixth, the Vyakhyāvicāraka, the composer (Chujwen) with the help of that literal translation used to compose idiomatic sentences, in pure Chinese style. The Seventh, the examiner of the translation (Ts'an-i) would
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then compare the translation with the original text. The Eighth, the parimārjaka (khan-ting) us. d to make the translation simple and explicit by discarding all unnecessary words. The Ninth, the racanăparipaşaka (Jun-wen) would, last of all, recite and revise the whole translation.
For more than thousand years, China was greatly influenced by the Indian culture. Even the system of Chinese written language was affected by Indian influence. A certain Buddhist named Shou-wen of the T'ang dynasty formulated an alphabet of thirty-six lettere, purely on the basis of that of Sanskrit and thus created a revolution in the pronounciation of the Chinese words. The cultural linkage between China and India was also reflected in the Indian Scriptures. Among the oldest texts, it is in the great epic the Mahābhārata that we find frequent references to China. 18 In the Arthaśāstra of Kautilya there is a reference to Chinese cloths. In the Manusmộti there is the mention of the Chinese people in one place. 14 In the Rāmāyana also there is a reference, but that is found in one edition only 15
Thus, the Mahābhārata is the oldest book where we find frequent references to China or 10 the people of China. As we do not know the exact date of the composition of the Mahābhārata, it is difficult to fix the accurate time when India came in contact with China for the first time. However, as it has been generally held that scholars opine that the great work might would have been composed in-between 4th century B.C. 10 4h cuntury A.D., we may safely conclude that India had been getting aquainted with China in between 4th century B.C. to 1st century A.D. (67 A.D., the time of Kāśyapa Mātanga who was the first person to go to China).
References : 1. Cf, The Blue Annals, II, 1.86 2 Ibid, I, 251 3. Ibid, 1, 254
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4. A Tibetan English Dictionary (S.C. Das), 101. 5. Atisa and Tibet, p. 343 6. Cf; Chou Hsiang-Kuang, Indo-Chinese relations,
page-17 According to Chou Hsiang-Kuang, Tsia-yin brought to the Indian scholar during the reign of
Ming Ti of the Eastern Han Dynasty. 7. Ibid, p. 17. 8. Besides the Sūlra of Fortytwo sections, Chu-Fa-lan
also translated the other works like : The Buddha. carita-sūtra, the Daśabhūmi-klesakkhedi-ka Sūtra, the Dharmasamudrakesha-sūtra, the Jātakas and A gathering of differences of 1260 (articles of) Sila or moral
precepts. 9. Chou Hsiang-Kuang suggests that Kumārajiva's
grandfather came from India and settled down at
Kiue-tse (p. 56). 10. Fa-hsien left China for India in the 3rd year of the
Lung-an period of the Emperor An Ti's reign of the Tsin dynasty (399 A.D.). Actually he undertook the journey in search of complete copies of the Vinaya
Pițaka, 11. Refer 'A Hisiory of Chinese Buddhism', p. 70. 12. Ibid, p. 67. 13. Refer The Mahābbārata II/26/9; V/36/10, V/51/25 etc. 14. Manu X-43-44 15. Cf; cinām aparacīnāñca tukhårān varvarānapi /
kāñcanaiḥ kamalaiścaiva kambojānapi samvstān // The Rāmāyana Ed by Gaspane Gorresio, Paris, 1884, V-44-14.
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NON-VIOLENT MODEL OF ECONOMIC DEVELOPMENT
Shiv Prakash Panwar
In 1969, the Noble prize for "Economic Science" was established. This event placed economists at par with physicists, chemists & biologists. The economists have been trying to make their science as scientific and as precise as possible. This is being developed as techniques of mathematical and statistical analysis. In the blind pursuit to make it more and more exact, they have forgotten that there is a qualitative difference between atoms and men. Here they have committed a blunder because statistics never prove any thing.
The modern economic theory is based on the strong value premises of which the central core is materialism, diversifying the pattern of consumption and thereby optimising the pattern of production. Mere growth in output is being projected as if it were the solution to all the ills. It has failed to tackle the major economic problem such as unemployment, poverty, inequalities, etc. besides, the rise of new problems such as pollution, ecological imbalances, exhaustion of natural resources. Today, we witness a rat-race amongst nations to maintain and capture larger markets. It shows that the science of economics itself is in a state of flux.
India has been facing an economic crisis. We are facing the problems of balance of payments disequilibrium, scarcity of foreign currency, inflation, etc. To bring the economy out of this web, certain stabilization and structural adjustments were proposed and subsequently applied in 1991. Indian economy is being transformed in to a liberal cconomy. Rupee was made partially convertible in trade affairs and further fully convertible with respect to
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foreign currencies. This measure has been undertaken on the plea that it will fetch more forex by exports. The entry of multinational companies is being made easier. Foreign Exchange Regulation Act has been made simpler. Now-adays, we are welcoming the Dunkel Proposals.
All these changes have been undertaken by keeping an eye to stabilize and globalize a rather stagnant Indian economy. We know that economic development is inevitable. For balanced and speedy growth, we have adopted the strategy of planned economic development. The point to ponder is whether the development attained so far, is at some cost? Whether our basic principles of economic growth with social justice has been taken care off? To get answers to these and several other questions, we will have to look in to the five-year plans.
Our plans, by and large, are the copies of the western models. They are not appropriate in the Indian context. We find that even after four decades of such a strategy, a meaningful development is still far away. The per-capita income has not grown, while unemployment, poverty and inequalities have grown tremondously. While analysing Indian planning, Gunnar Myrdall comments, "Indian plans are conceptually excellent but fail on account of their implementation'.1 It is also found that the benefits of development is solely owned by the rich. The poor, for whom the development is most needed, have left far behind.
Our main objective is to increase rate of growth of GNP. This is termed as the major indicator to know India's economic progress., but this is merely a statistical projection of data. We are just grouping in the jungle of massive data since computational excercise does not depict the actual picture. There is nothing wrong in achieving high rate of economic growth., but the pattern of growth should also be given importance. Growth-mania has become a curse for the modern civilization especially for creating environmental hazards.
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By adopting the strategy of rapid industrialization, human race has dared to believe and act on the belief that the problem of production has been solved, and thereby the problem of poverty, hunger, disease might be overthrown. For the rich countries they say, “the most important task now is 'Education for leisure and for the poor countries, 'Transfer of technology'."9
Men have laboured hard to produce an elaborate physical infrastruture, innumerable types of sophisticated capital equipments, etc., but this is infinitesimal in comparison to the capital provided by nature, Men's attitude towards nature has changed a lot. They seldom talk of a war with it. This has taken place on account of quantitative and qualitative progress, they have attained. Their lust to exploit natural resources has unexpectedly incre. ased. To solve the problem of production, we have started worshiping giganticism. Big production units are being established after conducting a techno-economic survey. No account is paid to the 'bads' of their installations. Schumacher rightly says, “Bigoess is the nemesis of anarchism because from bigness comes impartiality, insensitivity and a lust to concentrate power”.. For him, Small is Beautiful'.
Big industrial units for mass production requires energy in a bulk. To generate energy, fossil fuels are being consumed at an alarming rate as if it were income. The Club of Rome's report says, "Given resources (19 Nonrenevable natural resources), consumption rates and the projccted increase in these rates, the greater majority of the currently important non-renewable resources will be extremely costly 100 years from now”.4 We also know that fuel resources are unevenly distributed. This capital divides the would into "haves" and "have-nots". This presents a conflicting situation before us. The present collision with nature needs to be stopped.
Knowing the speed with which the fossil fuels are depleted, we have been able to develop an alternative
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source of energy in the form of atomic enerey. Studies have shown that contribution of atomic energy to the total energy production is statistically meagre, where as the emission of radio-active elements have become dangers to living beings. These dangers are visible in the form of acid rain, green-house effect, ozone-layer depletion, etc. The application, storage and transportation, etc. of these radio-active elements is a costly affair. While attempting to solve one problem, we are creating numerous problems. Surprisingly, all these problems have occured on account of our successes and not failures.
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It is highly imperative to change the direction of scientific research, if we want to check the growing attitude towards dehumanization of labour and avoid collision with nature. The moral and ecological implications should be incorporated in the science of economics. The World Watch Institute has recommended an array of reforms to halt the growing damage to the environment: "Cutting factory emissions by more efficient use of energy, filter system and extraction devices; investing in public transport, developing alternative fuels for automobiles, and taking other measures to reduce dependence upon petrolium; husbanding water resources and cutting reliance upon acquifiers; boosting international technology transfers and training to countries in the developing world; and negotiating a pact between rich and poor countries, whereby the latter would protect their forests in return for increased aid. assistance in creating alternative employment and guaranteed access to markets".5
The first and the formost issue is related with the choice of technology. Humanbeings should not become victims of scientific and technological advancements. We should be careful in adopting sophisticated technology especially in an sophisticated environment. Schumacher talks of "Intermediate technology". It will be appropriate in the Indian context. We can use this type of technology in agriculture as well as in industrial sector.
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For this, we need methods and equipments which are: "(i) Cheap enough so that they are accessible to virtually everyone: (ii) Suitable for small-scale application; (iii) Compatible with man's need for creativity." The application of it will provide the unemployed an opportunity to engage themselves in productive activities. This will be lesser hazardous to the environment too. Shumacher formulated the first law of economics as follows: "The amount of real leisure a society enjoys tends to be in inverse proportion to the amount of labour saving machinery it employs".8 Capital-intensive technology is inherently violent, dangerous to environment, self-deafiting in terms of non-renewable resources and stultifying for human-being. The use of appropriate technology is more compatible with the laws of ecology; gentle in its use of scarce resources and designed to serve the human-person instead of making him the servant of machines.
In order to introduce human values in economics, Yuvacharya Sri Mahaprajña, the disciple of Acharya Sri Tulsi suggests that, "The fundamentals of our economic policy should be based on health, education, mental peace and purity of life." He pleads for a non-violent model of economic development which according to him, "Will consist of the ideas of purity of means voluntary ceiling on private property, limitations on consumption, distribution of the produced material and strict control over the prodution of luxuries and their import."10
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Alvin Tofler rightly comments, "We should evolve a system that eliminates wastes and pollution by making sure that the output and by-product of each industry becomes an input for the next. The goal is a system under which no output is produced that is not an input for another production process down-stream. Such a system is not only more efficient in a production sense, it minimises or indeed eliminates damage to the biosphere."11
If we succeed in evolving such an economic system which work in harmony with the laws of nature and morality, then and then only we can claim to live in a civilised society.
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References:
1. Gunnar, Myrdall: Asian Drama.
2. E.F. Schumacher: Small Is Beautiful, Harper & Row
Publishers; INC. p. 13, 1973.
3. Ibid, p. 4
4. Ibid, pp. 121-22
5 Brown, L. R. et. al; State of the world 1989, ch. 10, "Outliving a Global Action Plan".
6. Op. Cit, p. 153
7. Ibid, pp. 33-34
8. Ibid, pp. 148
9. Dasrath Singh:
I uvacharya Mahaprajña on Social Sciences of Non-violence. Tulsi Prajna, vol. XIX, p. 104
10. Ibid, p. 105
11 Alvin Tofler: Third wave, pp. 168-69.
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BOOK REVIEW
1. "Concept of Pratikramapa': Edited and translated by NAGIN J. SHAH and MADHU SEN, International Centre for Jain Studies, Gujarat Vidyapeeth, Ahmedabad, 31 pages, I edition, 1993, Price Rs. 40/-,
The monograph is an abridged english version of Pt. Shukhlalji's introduction to Panca Pratikramana published in 1921. It also contains foreword by Shri Ramlal Parikh and a valuable preface by Shri Dalsukh Malvania reflecting the meanings, dimensions and importance of Pratikramana.
The monograph has two chapters: Introduction to Pratikramana' by Nagin. J. Shah and pratikramana : Issues concerning historical and Comparative evaluation' by Madhu Sen, followed by selected Pratikramana sutras in appendix. In both the chapters the author/translator have dwelt upon the different problems centred around Pratikramana like meaning, number of avasyak criya in Pratikramana, their significance, types, etc. The authors have also refuted the attackes on pratikramana and highlighted the points of comparison with different living religions of the world.
The monograph is very useful not only for the Jainas but also for the non-Jainas. The whole monograph is an excercise towards the enlightement of the soul and.gradual development of spirituality in human kind, relevant and essential for all. I hope this will be well received by the scholars as well as the religious practitioners.
- DASHRATH SINGH
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2. Sațțaka Literature : A Study by Dr. Chandramauli S. Naikar, M/s Medha Publishers, Sankalpa, Kalyān Nagar, Dharwād-50007, Page-314, First Impression, 1993, Price-Rs. 125/-.
This is a thorough and complete study in the Sataka Literature, a unique dramatic form composed entirely in Prakrit, and it unravels the various aspects.lingulstic, literary, social, cultural etc. of the extant Sattakas.
The Sataka was indeed a Popular type of entertainment in the form of dance-drama in oral tradition. In the early days it might have been in vogue as an open-stage play as the modern Kannada drama i.e. Bayalātas or the Rajasthani Byävalo, Chuñțiyo or the performance of the Bhända or Bhopā-Bhopee etc.
Dr. Naikar has discovered a few new details in his study of the Sațțaka Literature among which the charater of 'Bhairavānānda' is note-worthy. The 'carcari' feature in this dramatic performance is his another finding which is similar to the Rāsa dance or the Nștta type of group-dance i.e. Rajasthani Geeñdada or Gujrati Dandiya-dance, even practised today in some parts of the cencoined states.
His discovery of two Garbha-nāțakas in the Ananda Sundari of Ghanaśyāma is still another note-worthy feature of the Sațţaka. They are the sub-plots inter-vowen in the main plot similar to such story that promotes the theme of the main story in a Rajasthani play or folk-dance
The learned scholar after discussing the need and scope of a critical survey of the contents of the extant saţtakas has presented a thorough study of the earliest available Saţtaka i.e. the Karpūra-Mañjari There after a study of each of the later Sattakas composed by Nayacandra, Rudradāsa, Viśveśvara and Ghanaśyāma follows in chronological order.
In short, this study of the Saţtaka Literature shows that the Sațțakas evolved through centuries from the early popular dramatic entertainment and accordingly it
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contains some unique social customs, manners, popular proverbs etc. Besides a few interesting linguistic peculiaritics which are quite note worthy in the spheres of mediaeval Indian culture and Prakrit studies are also seen in the Sattakas. Dr. Naikar deserves to be congratulated for presenting such a worthy addition to the field of Indian dramatic Literature
-PARMESHWAR SOLANKI 3. faata : TriDOŞA : Edited by Vaidya Sohan lal Dadhich, Jain Vishva-Bharati Institute, Ladnun, 34 Pages, I Edition, 1993, Price Rs. 10/
This small brochure by Vaidya Sohan lal Dadhich contains the grandest and noblest contribution of ancient India to world culture i.e. the theory of tridoshas. tridosha doctrine of Ayurveda is unique and supreme. Its practical value in diagnosis and treatment is without parallel
The Mind-Soul-Body complex forms the basic tripod of Life. The gross body and the subtle mind are liable to disease and ill health. The Tridoshas (ara-faa-%) are bodily vitiators (ata) just as Raja and Tama are the mental ones. Their balanced harmony is essential for somatopsychic health and well-being, while their disharmony spells disease, ill-health, and finally death.
The triad of biologically active and universally present organic principles, classically called the Tridosha, are the very basic, organised, vital forces, functioning throughout cosmic creation. In other words, the ancient Indian triple approach of the आधिभौतिक, आधिदैविक and आध्यात्मिक trad is essential for thorough and complete vision and this alone is capable of giving a more or less complete view of the Man.
Accordingly, the man is composed of three constituents i.e. Soul, Mind and Body
Soul : at fara amara--Divine Intuition Mind : FH TETA_Mental Inference Body : कफ पित् वात-Cognitive Organ
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And just as the potent, celestial triad of Moon-SunWind is responsible for the smooth working of the universe, similarly the ara-fqa-% (Tridosha) are responsible for the smooth working of organic creation--animals, plants and even the other minutest living organisms of organic life.
In short, the da hanga and 314197, at have entered animate creation in a vivified form, forming the Tridosha complex as shown below:
31*77+7=anator
+2 =for ata
379+aforat= ata The Tridosbas are goups of qualities. They are subtle atomic and organic groups of material particles responsible for creation, maintaining and terminating life and its varied processes. Material substance (862) is the basic primary and physical support for the qualities and their resultant potential actions. Every Dravya has two facets : One is the subtle, perennial and eternal part in the form of energy, where in the qualities reside. The other is a relatively less subtle, if not gross, part through which tbe action is manifested or ensured.
The latter is ephemeral and distructible, while the former is lasting and perennial. The qualities are grouped in to the Dosha triad as under :
1. Te, fia, fem etc.=** ato gravitatious, slow, cold etc. 2. Ter, Fm, síta etc. =ana ato mobile, rough, dry, cold etc. 3. 300, ata etc.- for she hot, acid, fluid.
In other words Activation or urging and propelling is ara ata, Analysis or splitting out is fara ata and Synthesis or joining together is from ala. So the divine triad of Moon-Sun-Wind is comparable to the mundane triad of the Tridosba complex.
Vaidya Sohanlal Dadhich describes Tridosha in the traditional manner but his analysis is comprehensive and imformative. The booklet is meant for the P.G, students of olan fanta (the Science of Living) and for this purpose it is concise cicerone indeed.
-Parmeshwar Solanki
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________________ Registration Nos. Postal Department : NUR-08 Registrar of News Papers for India : R.N.--28340/75 Vol. XIX Number Three Oct.-Dec., 1993 Annual Rs. 60/- Life Member Rs. 600/- Per copy 20/ Published by Dr. Parmeshwar Solanki for J.V.B.I., Ladnun-341 306 and Printed by Jain Vishva-Bharati Press, Ladnun-341306 (Raj.) www.jainelibrary