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________________ भाषिक स्वरूप अर्धमागधी की अपेक्षा शौरसेनी के निकट हो गया, और जब बलभी में लिखे गये तो वह महाराष्ट्री से प्रभावित हो गया । यह अलग बात है कि ऐसी परिवर्तन सम्पूर्ण रूप में न हो सका और उनमें अर्धमागधी के तत्त्व भी बने रहे । सम्पादन और प्रतिलिपि करते समय भाषिक स्वरूप को एकरूपता पर विशेष बल नहीं दिए जाने के कारण जैन आगम एवं आगमतुल्य साहित्य अर्धमागधी, शौरसेनी एवं महाराष्ट्री की खिचड़ी ही बन गया और विद्वानों में उनकी भाषा को जैन शौरसेनी और जैन महाराष्ट्री ऐसे नाम दिये । न प्राचीन संकलन कर्त्ताओं ने उस पर ध्यान दिया और न आधुनिक काल के सम्पादकों, प्रकाशकों ने इस तथ्य पर ध्यान दिया । परिणामतः एक ही आगम के एक ही विभाग में 'लोक', 'लोग', 'लोभ' और 'लोय' - ऐसे चारों ही रूप देखने को मिल जाते हैं । यद्यपि सामान्य रूप से तो इन भाषिक रूपों के परिवर्तनों के कारण कोई बहुत बड़ा अर्थ-भेद नहीं होता है किंतु कभी - कभी इनके कारण भयंकर अर्थभेद भी हो जाता है । इस सन्दर्भ में एक दो उदाहरण देकर अपनी बात को स्पष्ट करना चाहूंगा। उदाहरण के रूप में सूत्रकृतांग के प्राचीन पाठ 'रामपुत्ते' बदलकर चूर्णि में 'रामाउते' हो गया, किन्तु वही पाठ सूत्रकृतांग की शीलांक की टीका में 'रामगुत्ते' हो गया । इस प्रकार जो शब्द रामपुत्र का वाचक था, वह रामगुप्त का वाचक हो गया । इसी आधार पर कुछ विद्वानों ने उसे गुप्त शासक रामगुप्त मान लिया है— उसके द्वारा प्रतिष्ठापित विदिशा की जिन मूर्तियों के अभिलेखों से उसकी पुष्टि भी कर दी। जबकि वस्तुतः वह निर्देश बुद्ध के समकालीन रामपुत्र नामक श्रमण आचार्य के सम्बन्ध में था, जो ध्यान एवं योग के महान् साधक थे और जिनसे स्वयं भगवान् बुद्ध ध्यान प्रक्रिया सीखी थी । उनसे संबंधित एक अध्ययन ऋषिभाषित में आज भी है, जबकि अंतकृत दशा में उनसे सम्बन्धित जो अध्ययन था, वह आज विलुप्त हो चुका है। इसकी विस्तृत चर्चा ( Aspects of Jainology Vol. II में ) मैंने अपने एक स्वतंत्र लेख में की है । इसी प्रकार आचारांग एवं सूत्रकृतांग में प्रयुक्त 'खेत्तन्न' शब्द, जो 'क्षेत्रज्ञ' (आत्मज्ञ) का वाची था, महाराष्ट्री के प्रभाव से आगे चलकर 'खेयण्ण' बन गया और उसे 'खेदज्ञ' का वाची मान लिया गया । इसकी चर्चा प्रो०के० आर० चन्द्रा ने श्रमण १९९२ में प्रकाशित अपने लेख में की है । अतः स्पष्ट है कि इन परिवर्तनों के कारण अनेक स्थलों पर बहुत अधिक अर्थभेद भी हो गये है । आज वैज्ञानिक रूप से सम्पादन की जो शैली विकसित हुई है उसके माध्यम से इन समस्याओं के समाधान की अपेक्षा है । जैसा कि हमने पूर्व में संकेत किया था कि आगमिक एवं आगम तुल्य ग्रंथों के प्राचीन स्वरूप को स्थिर करने लिए श्वेताम्बर खण्ड १९, अंक ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only २४१ www.jainelibrary.org
SR No.524577
Book TitleTulsi Prajna 1993 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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