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________________ पुत्तलिकावत हो गई। आंसू मात्र से ही उसके जीवन की सूचना मिल रही थी।" आंसू, स्तब्धता, मूर्छा, विषाद, श्रद्धा एवं निर्वेदादि द्रुति के लक्षण हैं । अश्र वीणा में ये सभी विद्यामान हैं। विस्तार-बीर, रौद्र और बीभत्स रस में विस्तार (ओजगुण) की स्थिति स्वीकृत है .३८ भव्यता, महानता, उदात्तता आदि इसके गुण माने जाते हैं : अश्रु वीणा में यद्यपि रौद्र, बीभत्सादि रसों का सर्वथा अभाव है लेकिन उदात्त, भव्य आदि गुण तो विद्यमान हैं ही। उपास्य के माहात्म्य का ज्ञान, उसकी महनीयता का आभास भक्ति का मूल है, अन्यथा प्रेम जारवत हो जाता है । ऋषि नारद के शब्द प्रामाण्य हैं -तत्रापि न माहात्म्यज्ञानविस्मृत्यपवादः । तद्विहीनं जाराणामिव । अश्र वीणा की नायिका को दैन्यावस्था में भी अपने प्रभु की महनीयता एवं उदात्तता का ज्ञान है। वह आंसू से कहती है हे आंसू ! उस प्रभु को कोई सेना नहीं रोक सकती है। वह सबसे शक्तिमान् है । वह यति-पति पवित्रता में विश्वास करता है। अन्तर्वेदी तथा प्रकरण पटु है । वह पवित्र महर्षि आलोक की आधार-भूमि है। यह प्रसंग चित्त विस्तार में समर्थ है । अतएव भव्य और उदात्त की उपस्थिति होने से यहां ओज गुण की स्थिति मानी जा सकती है । विकास-चित्त-विकास प्रसाद गुण का मूल है । आनन्द वर्धन के अनुसार प्रसाद गुण सभी रसों में पाया जाता है-'स प्रसादो गुणोज्ञेयः सर्वसाधारणक्रियः ।" मम्मट ने कहा है कि सूखे इंधन में अग्नि और धुले वस्त्र में स्वच्छ जल के समान जो सहसा चित्त में व्याप्त हो जाए, वह सभी रचनाओं एवं रसों में रहने वाला प्रसाद गुण है ।१२ आचार्य भरत ने स्वच्छता, सहजता, सरलता आदि को प्रसाद-गुण के प्रधान तत्त्व के रूप में स्वीकार किया है । ये तत्त्व चित्त-विकास में सहायक होते हैं। चन्दनबाला की स्वच्छता एवं सहजता तथा महावीर की पवित्रता आदि को सुगंधि अश्र वीणा में सर्वत्र व्याप्त है। स्वच्छता का दृश्य द्रष्टव्य है.---- आलोकाग्रे वसतिममलामाश्रयध्वेऽपि यूयमालोकानामधिकरणभूरेषः पुण्यो महर्षिः ।। १५. वैदर्भी का सौन्दर्य-गीति-काव्य के लिए वैदर्भी रीति सबसे उपयुक्त मानी जाती है। कालिदास के मेघदूत एवं जयदेव के गीत-गोविन्द में वैदर्भी का एकाधिपत्य है। वैदर्भी में माधुर्गगुण व्यंजकवर्ण, ललित पद एवं अल्प समास या समासाभाव होता है ।४५ अश्र वीणा के प्रत्येक पद्य में वैदर्भी का ललित-सौन्दर्य विद्यमान है । एक उदाहरण द्रष्टव्य है। भक्ति के उद्रेक से चन्दना की स्थिति का वर्णन भक्त्युद्रेकात् स्मृतिमपि तनुं नाप्यकार्षीत् क्षुधाया, वाञ्छापूत्यै सघनमनसा स्थैर्यमालम्भि तस्याः । तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524577
Book TitleTulsi Prajna 1993 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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