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________________ चुका है। यही तथ्य आँसुओं से चन्दना कह रही है। अन्तस्तापो बत भगवते सम्यगावेदनीयो, युष्मद्योगः सुकृत सुलभः संशये किंतु किंचित् । नित्याप्रौढा: प्रकृतितरला मुक्तवाते चरन्तः, शीतीभूता ह्यपि च पटवः किं क्षमाभाविनोऽत्र ॥ ३. समर्पण की भावना-गीतिकाव्य में यह भावना बलवती होती है। उपास्य या प्रेमी के प्रति सब कुछ समर्पित कर दिया जाता है। कर्मअकर्म सब कुछ समर्पित कर जब भक्त तदाकारत्व की स्थिति में आ जाता है तभी गीत का प्रस्फुरण होता है। वहां भौतिक-सम्पदाएं निर्मूल्य हो जाती हैं । अपने हृदय को खोलकर रख दिया जाता है। यही तो उसका वैभव है। चन्दना कहती है--श्रद्धा के आंसू, प्रकृति की कोमलता हृदय का उद्घाटन और आहे-ये नारी के वैभव हैं, इन्हें भी मैं प्रभु-चरणों में समर्पित कर चुकी श्रद्धाश्रूणि प्रकृतिमृदुता मानसोद्घाटनानि । निःश्वासाश्चाखिलमपि मया स्त्रीधनं विन्ययोजि ॥ ये न केवल नारी-समाज के वैभव हैं बल्कि सम्पूर्ण सचेतन-प्राणियों के एकमात्र अवलम्ब भी हैं। जहां प्रापञ्चिक जगत् उपरत हो जाता है-वहां केवल ये ही शेष रहते हैं जो अपने उपजीव्य-संगति की प्राप्ति में सहायक भी होते हैं। ४. रमणीयता--रमणीयता, परात्परता, रोमांचकता, अधीरता आदि गीतिकाव्य के प्राण तत्त्व हैं । जब तक कवि अधीर नहीं होता उसका धैर्य टूट नहीं जाता तब तक गीतिकाव्य का प्रादुर्भाव कहां? इस अधीरता का एक मात्र कारण अपने प्रियतम की प्राप्ति में व्यवधान ही है। शापवशात् यक्ष प्रियतमा से अलग हुआ। आषाढ़ के प्रथम दिवस में मेघ को देखकर अधीर हो गया। प्रियतमा की यादें उसे सताने लगी। बस इतना ही काफी हैहृदय की समस्त भावनाएं बहि त हो निकलने लगी।१ वैसी शाब्दिक अभिव्यक्ति में रमणीयता, रोमाञ्चकता आदि सहज ही विद्यमान हो जाती हैं। अधीर चन्दनबाला की भी यही अवस्था है-भगवान् भिक्षा लेने के लिए प्रस्तुत थे । चन्दनबाला की आखें उनकी प्रतीक्षा में अधीर हो रही थीं--- भिक्षां लब्धं प्रसृतकरयोः सम्प्रतीक्षापटुभ्यां, तच्चक्षुभ्यां हसितमियताऽपूर्व हर्षोदयेन ।१२ भगवान् के पुनरागमन से चंदनबाला का ताप, शीतलता और पावनता में बदल गया। सब कुछ रमणीय हो गया क्योंकि उसकी साध पूर्ण हो रही है। उसकी आंखों में अवशिष्ट आंसूओं की बूंदें भिक्षा-विधि में दाता और ग्रहीता का दृश्य देखने के लिए उत्सुक हैं.... १८० तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524577
Book TitleTulsi Prajna 1993 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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