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________________ अपेक्षा जैन ग्रंथों में प्रयुक्त इन प्राकृत भाषाओं का रूप कुछ भिन्न है और किसी सीमा तक उनमें लक्षणगत बहुरूपता भी है। इसीलिए जैन आगमों में प्रयुक्त मागधी को अर्ध-मागधी कहा जाता है क्योंकि उसमें मागधी के मतिरिक्त अन्य बोलियों का प्रभाव के कारण मागधी से भिन्न लक्षण भी पाये जाते हैं। जहां अभिलेखीय प्राकृतों का प्रश्न है उनमें शब्द रूपों की इतनी अधिक विविधता या भिन्नता है कि उन्हें व्याकरण की दृष्टि से व्याख्यायित कर पाना सम्भव नहीं है। क्योंकि उनकी प्राकृत साहित्यिक प्राकृत न होकर स्थानीय बोलियों पर आधारित है। ___ यापनीय एवं दिगम्बर परम्परा के ग्रंथों में जिस भाषा का प्रयोग हुआ है, वह जैन शौरसेनी कही जाती है । उसे जैन शौरसेनी इसलिये कहते हैं कि उसमें शौरसेनी के अतिरिक्त अर्धमागधी के भी कुछ लक्षण पाये जाते हैं। उस पर अर्धमागधी का स्पष्ट प्रभाव देखा जाता है, क्योंकि इसमें रचित ग्रंथों के आधार अर्धमागधी आगम ही थे। इसी प्रकार श्वेताम्बर आचार्यों ने प्राकृत के जिस भाषायी रूप को अपनाया वह जैन महाराष्ट्री कही जाती है। इसमें महाराष्ट्री के लक्षणों के अतिरिक्त कहीं-कहीं अर्धमागधी और शौरसेनी के लक्षण भी पाये जाते हैं, क्योंकि इसमें रचित ग्रंथों का आधार भी मुख्यतः अर्धमागधी और जैन शौरसेनी साहित्य रहा है। अतः जैन परम्परा में उपलब्ध किसी भी ग्रंथ की प्राकृत का स्वरूप निश्चित करना एक कठिन कार्य है, क्योंकि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में कोई भी ऐसा ग्रन्थ नहीं मिलता, जो विशुद्ध रूप से किसी एक प्राकृत का प्रतिनिधित्व करता हो । आज उपलब्ध विभिन्न श्वेताम्बर अर्धमागधी आगमों में चाहे प्रतिशतों में कुछ भिन्नता हो, किंतु व्यापक रूप से महाराष्ट्री का प्रभाव देखा जाता है। आचारांग और ऋषि-भाषित जैसे प्राचीन स्तर के आगमों में अर्ध-मागधी के लक्षण प्रमुख होते हुए भी कहींकहीं आंशिक रूप में शौरसेनी का एवं विशेष रूप से महाराष्ट्री का प्रभाव आ ही गया है । इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा के शौरसेनी ग्रन्थों में एक ओर अर्धमागधी का तो दूसरी ओर महाराष्ट्री का प्रभाव देखा जाता है । कुछ ऐसे ग्रन्थ भी हैं जिनमें लगभग ६० प्रतिशत शौरसेनी एवं ४० प्रशितत महाराष्ट्री पायी जाती है-जैसे वसुनन्दी के श्रावकाचार का प्रथम संस्करण, ज्ञातव्य है कि परवर्ती संस्करणों में शौरसेनीकरण अधिक किया गया है। कुंदकुंद के ग्रंथों में भी यत्र-तत्र महाराष्ट्री का प्रभाव देखा जाता है। इन सब विभिन्न भाषिक रूपों के पारस्परिक प्रभाव या मिश्रण के अतिरिक्त मुझे अपने अध्ययन के दौरान एक महत्त्वपूर्ण बात यह मिली कि जहां शौरसेनी ग्रंथों में जब अर्धमागधी आगमों के उद्धरण दिये गए, तो वहां उन्हें अपने अर्ध-मागधी रूप में न देकर उनका शौरसेनी रूपांतरण करके दिया गया खण्ड १९, अंक ३ २३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524577
Book TitleTulsi Prajna 1993 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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