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________________ उसका कोई एक सम्पूर्ण व्याकरण बना पाना ही कठिन है। उसका विकास विविध बोलियों से हुआ है और बोलियों में विविधता होती है। साथ ही उनमें देश-काल गत प्रभावों और सुख-सुविधाओं के कारण परिवर्तन होते रहते हैं । प्राकृत निर्भर की भांति बहती भाषा है। उसे व्याकरण में आबद्ध कर पाना संभव नहीं है। इसीलिए प्राकृत को 'बहुलं' अर्थात विविध वैकल्पिक रूपों वाली भाषा कहा जाता है । वस्तुतः प्राकृतें अपने मूल रूप में भाषा न होकर बोलियां ही रहीं हैं। यहां तक कि साहित्यिक नाटकों में भी इनका प्रयोग बोलियों के रूप में ही देखा जाता है और यही कारण है कि मृच्छकटिक जैसे नाटक में अनेक प्राकृतों का प्रयोग हुआ है, उसके विभिन्न पात्र भिन्न-भिन्न प्राकृतें बोलते हैं। इन विभिन्न प्राकृतों में से अधिकांश का अस्तित्व मात्र बोली के रूप में ही रहा, जिनके निदर्शन नाटकों और अभिलेखों में पाये जाते हैं। मात्र अर्द्धमागधी, जैन-शौरसेनी और जैन महाराष्ट्रीय ही ऐसी भाषायें हैं, जिनमें जैनधर्म के विपुल साहित्य का सृजन हुआ है। पैशाची प्राकृत के प्रभाव से युक्त मात्र एक ग्रन्थ प्राकृत धम्मपद मिला है। इन्ही जन बोलियों को जब साहित्यिक भाषा का रूप देने का प्रयत्न जैन आचार्यों ने किया, तो उसमें भी आधारगत विभिन्नता के कारण शब्द रूपों की विभिन्नता रह गई । सत्य यह है कि विभिन्न बोलियों पर आधारित होने के कारण साहित्यिक प्राकृतों में भी शब्द रूपों की यह विविधता रह जाना स्वाभाविक है । विभिन्न बोलियों की लक्षणगत, विशेषताओं के कारण ही प्राकृत भाषाओं के विविध रूप बने हैं । बोलियों के आधार पर विकसित इन प्राकृतों जो मागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री आदि रूप बने हैं, उनमें भी प्रत्येक में वैकल्पिक शब्द-रूप पाये जाते हैं । अत: उन सभी में व्याकरण की दृष्टि से पूर्ण एकरूपता का अभाव है। फिर भी भाषाविदों ने व्याकरण के नियमों के आधार पर उनकी लक्षणगत विशेषताएं मान ली हैं, जैसे-मागधी में 'स' के स्थान पर 'श', 'र' के स्थान पर 'ल' का उच्चारण होता है। अतः मागधी में पुरुष का पुलिस और राजा का लाजा रूप पाया जाता है, जबकि महाराष्ट्री में पुरिस और राया रूप बनता है। जहां अर्धमागधी में 'त' श्रुति की प्रधानता है और व्यंजनों के लोप की प्रवृत्ति अल्प है, वहीं शौरसेनी में 'द' श्र ति की और महाराष्ट्री में 'य' श्रुति की प्रधानता पायी जाती है तथा लोप की प्रवृत्ति अधिक है। दूसरे शब्दों में अर्ध-मागधी में 'त' यथावत् रहता है, शौरसेनी में 'त' के स्थान पर 'द' और महाराष्ट्री में लुप्त-व्यंजन के बाद शेष रहे 'अ' का 'य' होता है। प्राकृतों में इन लक्षणगत विशेषताओं के बावजूद धातु रूपों एवं शव्द रूपों में अनेक वैकल्पिक रूप तो पाये ही जाते हैं। यहां यह भी स्मरण रहे कि नाटकों में प्रयुक्त विभिन्न प्राकृतों की २३४ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524577
Book TitleTulsi Prajna 1993 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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