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से उनमें कोई भेद नहीं होता । एक सिद्ध का ज्ञान दूसरे सिद्ध के ज्ञान से अंशमात्र भी कम या ज्यादा नहीं होता । एक सिद्ध चाहे इस समय का हो और दूसरा असंख्य समय ( अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी) पूर्व का, परन्तु दोनों का आनंद समकक्ष होगा। सभी में केवलज्ञान, केवलदर्शन, असंवेदन, आत्मरमण, अटल- अवगाहन, अमूर्तिकपन और अगुरुलघुपन इन कर्मक्षय से होने वाले आठ गुणों मे तिलमात्र भी भिन्नता नहीं, किन्तु सिद्धावस्था से पूर्व वे भी संसारी थे । उनके भी शरीर था, शरीर की अवगाहना, लिंग आदि थे अतः उस अपेक्षा से उनमें भी अनेक प्रकार के भेद किए जा सकते हैं । पूर्वावस्था की अपेक्षा नन्दी सूत्र में उनके पन्द्रह भेदों का वर्णन मिलता है
तीर्थातीर्थ तीर्थंकरातीर्थंकर स्वान्यगृहस्त्रीपुंनपुंसकलिंग स्वयंबुद्ध प्रत्येकबुद्ध बुद्धबोधितैकानेकभेदात् पञ्चदशधा ।
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उत्तराध्ययन" में सिद्ध के चौदह भेदों का भी वर्णन मिलता है जिनमें पांच भेदस्थान सापेक्ष हैं, जहां से उन्होंने शरीरत्याग किया | तीन भेद व्यक्त शरीरवर्ती लिंग-पुल्लिंग आदि के आधार पर है तथा अन्य तीन वेशभूषा ( जिस वेश में जैन साधु, तापस आदि अन्य परम्पराओं या गृहस्थ वेश ) और तीन भेद शरीर की अवगाहना के आधार पर किए गए हैं ।
अवगाहना
दार्शनिक हैं वे मुक्त जीव का मानने वाले हैं वे ब्रह्मलीनता होना नहीं भी मानते हैं वे भी
भारतीय दर्शनों में जो ईश्वरवादी ईश्वर में लीन होना मानते हैं और जो ब्रह्म को मानते हैं । तथा जो ईश्वर और ब्रह्म में लीन आत्मा को निरंश, निरवयव व अमूर्त मानते हैं अतः अवगाहना की वहां कोई चर्चा उपलब्ध नहीं होती । जैन दर्शन इस विषय में एक विलक्षणता लिए हुए है वह आत्मा को अमूत्तं मानते हुए भी सावयव मानता है । आत्मा ही नहीं, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय भी अमूर्त होते हुए भी प्रदेशी है | स्पष्ट है जैन दर्शन के अनुसार अमूर्त्तत्व एवं सावयवत्व में कोई सहानवस्थान विरोध नहीं और न सावयवत्व और अनित्यत्व में अविनाभाव, जैसा कि अन्य दर्शन मानते हैं । प्रत्येक आत्मा चैतन्यमय परमाणुओं का अविभाज्य स्कंध है । उसके प्रदेश संख्या में असंख्य तथा धर्मास्तिकाय; अधर्मास्तिकाय और लोकाकाश के बराबर है । आत्मा, संसारी अवस्था में सदा शरीर युक्त रहता है अतः जब जैसा छोटा, बड़ा शरीर उसे प्राप्त होता है वह उतना ही सिकुड़ या फैल जाता है । १००० योजन प्रमाण वाले मत्स्य और अंगुल के असंख्यातवें भाग जितने सूक्ष्म जीव में आत्मप्रदेशों की दृष्टि से कोई भिन्नता नहीं, भिन्नता है उसके शरीर की भिन्नता है उस शरीर के निदानभूत कर्म - नामकर्म की । अब, मुक्त होने पर न जीव के शरीर हैं और
खण्ड १९, अंक ३
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