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________________ गुणसंदोहत्वात् । इन्हीं सारे अर्थों का संकलन करते हुए कहा है--- ध्मातं सितं येन पुराणकर्म, यो वा गतो निर्वृत्तिसौधमूनि । . ख्यातोऽनुशास्ता परिनिष्ठितार्थो, यः सोऽस्तु सिद्धः कृतमंगलो मे ॥" इस दृष्टि से देखा जाये तो चरमशरीरी भी भावी नय की अपेक्षा सिद्ध हो सकता है पर बुद्ध नहीं। २. बुद्ध-केवलज्ञानेन बोधति स्म इति बुद्धः । जो केवलज्ञान के द्वारा विश्व को जानता है वह बुद्ध होता है। बुद्ध का प्राकृत रूपान्तरण होता है बुज्झ उसका अर्थ है-जो शरीरादि से प्रशान्त होता है। इस प्रकार बुद्ध में चारों घातीकर्मों का अभाव होने पर भी भवोपग्राही कर्म अवशिष्ट रहते हैं। ३. मुक्त-मुचण --मोचने और मुच्लन्ज-मोक्षणे धातुओं से निष्पन्न मुक्त शब्द का अर्थ है--कर्मों से सर्वथा मुक्त। इसमें केवल विदेहमुक्त ही आते हैं क्योंकि उनके भवोपग्राही कर्म भी नहीं होते। ४. पारगत-पारगए त्ति पारगतः संसारसागरस्य भाविनि भूतवदित्युपचारात् । अर्थात् संसारसमुद्र को पार करने वाला पारगत कहलाता है। ५. परम्परागत-पारम्पर्येण गतो भवाम्भोधिपारं प्राप्तः परम्परागतः । अर्थात् जो सम्यक् दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र के क्रम से मोक्ष प्राप्त करता है वह परम्परागत है। ६. परिनिवृत्त-स्पन्दनरहित को परिनिवृत्त कहते हैं। जैसे-जैसे कर्मक्षीण होते हैं, शीतलता-----अनुद्वेग की प्राप्ति होती है। ७. अन्तकृत्-अन्तं करोति स्म भवोपग्राहिकर्मणाम् । भवोपग्राही कर्मोंवेदनीय, आयुष्य, नाम और गौत्र का क्षय करने के कारण सिद्ध अन्तकृत कहलाते हैं। ८. सर्वदुःखप्रहीण-भव के अन्त में सारे दुःखों को क्षीण करने के कारण सिद्ध सर्वदुःखप्रहीण कहलाते हैं । १२ ___औपपातिक सूत्र में मुक्तात्मा के लिए आठ विशेषण आए हैं-सिद्ध, बुद्ध, पारगत, परम्परागत, उन्मुक्तकर्मकवच, अजर, अमर और असंग । सिद्ध त्ति य बुद्ध त्ति य पारगयत्ति य परंपरगयत्ति य । उम्मुक्ककम्मकवया, अजरा, अमरा असंगा य ॥२३ इसी प्रकार अन्य भी अनेक विशेषण प्रयुक्त हुए हैं-निश्छिन्नसर्वदुःखा, जातिजरामरणबंधविप्रमुक्ता आदि ।२४ __ इस प्रकार ऐसे अनेक विशेषण या पर्यायवाची शब्द हैं जिनमें व्युत्पत्तिगत एवं क्रमिक पर्यायों की अपेक्षा से कुछ भिन्नता होते हुए भी वे सभी सिद्ध के स्वरूप के प्रतिपादक होने से ऐदम्पर्य की दृष्टि से अभिन्न हैं। प्रकार या भेद यद्यपि सिद्ध कर्ममुक्त होते हैं। वर्तमान अवस्था में स्वरूप की दृष्टि तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524577
Book TitleTulsi Prajna 1993 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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