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________________ बृहदारण्यक उपनिषद् के अनुसार शुद्धात्मा अरस, अगंध, अवाक्, अनेत्र, अकर्ण, अमन, अतेज, अप्राण, अमुख, अनन्तर और अबाह्य है। यहां हम ब्रह्मसूत्र में वणित मुक्तात्मा के स्वरूप से जैन दर्शन के मुक्तात्मा के स्वरूप की तुलना भी कर सकते हैं --... 'इदं तु पारमार्थिक कूटस्थनित्यं, व्योमवत् सर्वव्यापि सर्वक्रिया विरहितं नित्यतृप्त, निरवयवं, स्वयं ज्योतिः स्वभावं यत्र धर्माधमौं सह कार्येण कालत्रयं च नापवर्तते ।१७ वेदान्त के उपर्युक्त स्वरूप से जैन दर्शन 'सर्वव्यापी और निरवयव' को छोड़कर पूर्ण सहमत है। सिद्धों के स्वरूप का वर्णन करते हुए उत्तराध्ययन में कहा गया है-- अरूविणो जीवघणा, नाणदंसणसन्निया । अडलं सुहं संपत्ता, उवमा जस्स णत्थि उ ।।१८ अर्थात् सिद्ध अरूपी, सघन (एक-दूसरे से सटे हुए) ज्ञान दर्शन में सदा उपयुक्त, निरूपम, सुख सम्पन्न, संसारसमुद्र से निस्तीर्ण. भवप्रपंचमुक्त और सर्वश्रेष्ठ गति को प्राप्त होते हैं। यद्यपि मुक्तात्मा का स्वरूप वाणी से अगम्य और वाच्य वाचक भाव से परे हैं अतः उसके स्वरूप वर्णन में नेतिवाद और अज्ञेयवाद का सहारा लिया जाता है१९ फिर भी उसके विधेयात्मक स्वरूप का प्रतिपादन अनेक तथ्यों--पर्यायवाची नाम, प्रकार या भेद, स्थान, गति, अवगाहना आदि के आधार पर किया जा सकता है ! पर्यायवाची नाम पर्यायवाची नामों के द्वारा भी किसी वस्तु या व्यक्ति के स्वरूप का ज्ञान किया जा सकता है । भगवती सूत्र में मुक्तात्मा के आठ पर्यायवाची नाम उपलब्ध होते हैं--- सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, पारगत, परम्परागत, परिनिवृत्त अंतकृत और सर्वदुःखप्रहाण । १. सिद्ध--जो आत्मसाधना के सिद्धिकाल को प्राप्त है वह सिद्ध कहलाता है। भगवती वृत्ति में इसके अनेक प्रकार के निरुक्त उपलब्ध होते हैं---- १. सितं-बद्धमष्टप्रकारं कर्मेन्धनं ध्मातं-दग्धं, ज्वाजल्यमानशुक्ल ध्यानानलेन येस्ते निरुक्तविधिना सिद्धाः । २. बिधु-सराद्धौ इति वचनात सिध्यन्ति निष्ठितार्थाभवन्ति स्म । ३. बिधु-गतौ इति वचनात् सेधन्ति स्म अपुनरावृत्या निर्वृत्तिपुरी मगच्छन् । ४. विधुञ्–शास्त्रे मांगल्ये च इति वचनात् सेधन्ति स्म शासितारोऽभूवन्, मांगल्यरूपतां चानुभवन्ति स्मेति सिद्धाः । ५. सिद्धा:-नित्या: अपर्यवसानस्थितिकत्वात् प्रख्याता वा भव्य रूपलब्ध खण्ड १९, अंक ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524577
Book TitleTulsi Prajna 1993 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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