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________________ यह त्रिविध साधनामार्ग एक महान मनोवैज्ञानिक सूझ का परिचायक है क्योंकि मानवीय चेतना के मुख्यतः तीन आयाम (पक्ष) हैं-ज्ञान, भाव और संकल्प । चेतना के भावात्मक पक्ष को सही दिशा में नियोजित करने के लिए सम्यक् दर्शन, ज्ञानात्मक पक्ष के नियोजनार्थ सम्यक ज्ञान और संकल्पात्मक पक्ष के समायोजनार्थ सम्यक् चारित्र का प्रावधान है। इसी को हम बौद्ध दर्शन की भाषा में क्रमशः समाधि, प्रज्ञा और शील१२, गीता के शब्दों में भक्ति, ज्ञान और कर्म अथवा प्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा", हिन्दू परम्परा में परमसत्ता के तीन रूप सत्यं, शिवं, सुन्दरम् और उपनिषद् की भाषा में श्रवण, मनन और निदिध्यासन कह सकते हैं । स्पष्ट है कि जैन साधना पद्धति न शंकर के समान एकान्त ज्ञानयोग को स्वीकार करती है और न रामानुज आदि के समान एकान्त भक्तियोग को उसके अनुसार ज्ञानकर्म और भक्ति को समवेत साधना से आत्मा उस मुक्तावस्था को प्राप्त करती है जहां बौद्धों के समान आत्मा का एकान्ततः उच्छेद नहीं होता, केवल उसकी संसारी (अशुद्ध) अवस्था का विनाश होता है। क्योंकि आत्मारूपी धर्मी की निवृत्ति हो जाएगी तो ज्ञान धर्म का अधिकरण कौन होगा ? चेतना के निराधारत्व का प्रसंग आ जाएगा। जैन दर्शन की मुक्ति में न्यायवैशेषिकों की मुक्ति के समान ज्ञान गुण का विनाश भी नहीं होता क्योंकि ज्ञान और आनन्द रहित आत्मा तो पाषाण कल्प हो जाएगी। कौन प्रज्ञावान् वैसी मुक्ति हेतु पुरुषार्थ करेगा ? सांख्य दर्शन भी बुद्धि का प्रकृति का विकार एवं आनन्द को सत्त्वगुण का विकार मानता है तथा पुरुष को नित्य शुद्ध मुक्त मानता है । त्रिगुणातीत पुरुष में ज्ञान व आनन्द नहीं हो सकता इसलिए जैन दर्शन उससे भी पूर्णतः सहमत नहीं । जैन दर्शन में मोक्ष-सुख का वर्णन करते हुए कहा गया है जं देवाणं सोक्खं सव्वद्धा पिडियं अणंतगुणं । ___ण य पावइ मुत्ति सुहं गताहिं वग्गवग्गूहिं ।।१४ जैन दर्शन के इस अभिमत की पुष्टि स्मृतियों से भी होती है- सुखमात्यन्तिकं यत्र बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् । __तं वै मोक्षं विजानीयाद् दुष्प्रापमकृतात्मभिः ॥५ मुक्तात्माएं अपुनर्भवी होती है तीर्थनिकार या धर्म हानि से उनका पुनरवतार होना जैन दर्शन को अभीष्ट नहीं। वे मुक्तावस्था में भी ईश्वर या ब्रह्म में लीन नहीं होती। उनका अस्तित्व स्वतंत्र बना रहता है। जैन दर्शन के अनुसार मुक्तात्मा अमूर्त, शब्दातीत, तर्कातीत चेतना है । वह वर्णातीत, गंधातीत, स्पर्शातीत, संस्थानातीत, शरीरातीत, लिंगातीत और संगातीत सत्ता है। वह न स्थूल है न सूक्ष्म, न अणु है न क्षुद्र, न विशाल । न द्रव है न ठोस, न तम है, न छाया है, न वायु, आकाश या संग । १९४ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524577
Book TitleTulsi Prajna 1993 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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