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१. न गरीबी और न विलासिता का जीवन ।
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२. धन आवश्यकता पूर्ति का साधन है, साध्य नहीं । धन मनुष्य लिए है, मनुष्य धन के लिए नहीं है । .
३. आवश्यकता की सन्तुष्टि के लिए धन का अर्जन किन्तु दूसरों को हानि पहुंचाकर अपनी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि न हो,
इसका जागरूक प्रयत्न ।
४. आवश्यकताओं, सुख-सुविधाओं और उनकी सन्तुष्टि के साधनभूत धन-संग्रह की सीमा का निर्धारण ।
५. धन के प्रति उपयोगिता के दृष्टिकोण का निर्माण कर संगृहीत धन में अनासक्ति का विकास ।
आध्यात्मिक विकास
६. धन के सन्तुष्टि - गुण को स्वीकार करते हुए की दृष्टि से उसकी असारता का अनुचितन । ७. विसर्जन की क्षमता का विकास ।"
मैं इस बात का पक्षपाती हूं कि व्यक्ति को आशा उतनी ही करनी चाहिए, जितनी संभव हो । अति आशा का परिणाम कभी सुखद नहीं होता । अप्रत्यक्ष रूप से वह निराशा को ही आमंत्रण है ।" जीवन तो हर व्यक्ति को मिलता है, पर उसी व्यक्ति का जीवन सार्थक होता है जो कुछ बनता है । बनने वाले व्यक्ति की राह आरोहों -अवरोहों की घाटियों से होकर गुजरती हैं । 23 आचार्य सोमदेव ने लिखा है - " समता परमं आचरणम् ।" आचार का सबसे बड़ा सूत्र है - समता, साम्यभाव, समानता ये केवल समाजवाद साम्यवाद का ही सूत्र नहीं है । यह हर चिंतन की अच्छाई का सूत्र है कि जहां समतापूर्ण मनःस्थिति होती है वहां समाज का विकास होता है और जहां समाज की आचारधारा में विषमता होती है वहां समाज का पतन होता है । आचार के परिष्कार का ही अर्थ है - समता का विकास ।
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सामाजिक स्वास्थ्य में बाधा डालने वाली जो वैयक्तिक मनोवृत्तियां हैं, उनका परिमार्जन होना चाहिए ।" स्वभाव की जटिलता के कारण मनुष्य संघर्ष में से गुजरता है और उसकी एक ऐसी भट्टी जलती है जिसकी आंच सदा प्रताड़ित करती रहती है कभी क्रोध का कभी अहंकार का, कभी वासना का तो कभी भय का । न जाने कितने चूल्हे जल रहे हैं । कितनी यांच पका रही है । उस आंच के कारण स्वभाव बिगड़ता है और उसका परिणाम शरीर पर होता है तो शरीर रुग्ण होता है । मन पर होता है तो मन रुग्ण होता है और भावना पर होता तो भावनाएं रुग्ण होती हैं । आंतरिक वृत्तियां रुग्ण होती हैं भगवान् महावीर ने
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कहा आग्रह मत करो । पदार्थ को पूर्णता से
खण्ड १९, अंक ३
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