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१. अपने कर्मकारों की आजीविका का विच्छेद न करना ।
२. पशुओं पर अधिक भार न लादना ।
३. झूठी साक्षी न देना ।
४. अपनी विवाहित स्त्री के अतिरिक्त किसी के साथ अब्रह्मचर्य का
सेवन न करना ।
५. संग्रह की एक निश्चित सीमा करना । उस सीमा से अतिरिक्त
संग्रह न करना ।
६. धन-संग्रह और भोगवृद्धि के लिए दूसरे देशों में न जाना, आदिआदि । "
हमारा व्यवहार शुद्ध हो । ( अणुव्रत - खांदोलन आचारर-शुद्धि और व्यवहार-शुद्धि का आंदोलन है ) । दूसरे के प्रति हमारा व्यवहार क्रूरता से मुक्त हो। इसके लिए आवश्यक है— हमारे में करुणा की धारा प्रवाहित हो । ( करुणा की भावना से क्रूरता को समाप्त किया जा सकता है ) ।
आज विषमता से समूचा समाज पीड़ित है । अर्थशास्त्र को जानने वाले कुछ लोग सोच सकते हैं कि इच्छाओं का विकास नहीं होगा तो उत्पादन नहीं बढ़ेगा । उत्पादन नहीं बढ़ेगा तो समाज समृद्ध नहीं होगा । इसलिए इच्छाओं का बढ़ाना जरूरी है । मैं इस तथ्य को सर्वथा नहीं नकारना चाहता । मैं यह मानता हूं कि सामाजिक प्राणी इच्छा और महत्वाकांक्षा को छोड़कर विकास नहीं कर सकता । इस सिद्धांत को स्वीकृति देते हुए भी इस बात को कहे बिना नहीं रह सकता कि अपरिमित इच्छाओं का होना समस्याओं को बढ़ावा देना है । वर्ग संघर्ष और वर्ग भेद का सिद्धांत इसी आधार पर पनपा है । एक ओर शक्तिशाली, बुद्धिशाली और साधनसम्पन्न समाज था । उसने पदार्थों का इतना संग्रह कर लिया कि साधन विहीन, कमजोर और अनपढ़ समाज के पास कुछ रहा ही नहीं । जब इतना तारतम्य (वैषम्य ) है तब वर्ग संघर्ष के कारण सारी समस्याएं उत्पन्न होती हैं ।"
महावीर ने घोषणा की— मनुष्य जाति एक है । जातीय भेदभाव, घृणा और छूआछूत - ये हिंसा के तत्त्व हैं। अहिंसा धर्म में इनके लिए कोई अवकाश नहीं है ।' आगे भगवान् महावीर ने कहा- 'कामाणुगिद्धिप्पभवं खुदुक्खं " - संसार में जितने दुःख हैं, वे सारे काम की आसक्ति के कारण उत्पन्न हुए हैं । दुःखों की जननी हैं- इच्छाएं, वासनाएं, कामनाएं ।" इन ज्वलन्त समस्याओं का समाधान सन्निहित है 'इच्छा परिणाम' में अर्थात् इच्छाओं का संयम ।
'इच्छा - परिमाण' के निष्कर्ष संक्षेप में इस प्रकार प्रस्तुत किए जा सकते हैं
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तुलसी प्रज्ञा
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