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________________ करते हुए आगम - विधि से देह त्याग कर सुरलोक की प्राप्ति में विश्वास प्रकट किया है । समराइच्चकहा की ही भांति उत्तराध्ययन सूत्र में प्रव्रज्या ग्रहण करने का कारण जीवन की क्षणभंगुरता तथा दुःख बताया गया है । कर्मफल सभी को भोगना पड़ता है, इसमें बंधु-बांधव तथा सगे-संबंधी आदि कोई भी योग नहीं दे सकता । जैनधर्म के अनुसार सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र - तीनों मिलकर मोक्ष मार्ग का निर्माण करते हैं । तत्त्वार्थ सूत्र के अनुसार - 'सम्यक् दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः, अतः हरिभद्र काल में भी श्रमणत्व का पालन परम-पद का साधक तथा सुख का सार माना गया है । इस ग्रंथ में प्राकृत की गद्य-पद्य की अनेकविध सूक्तियां विराग एवं विरक्त जीवन के महात्म्य से द्योतित हैं, उदाहरणार्थं कुछ सूक्तियां दर्शनीय हैं १. विचित्त संधिणो हि पुरिसा हवन्ति । १४ २. सच्चपइन्ना खु तवस्सिजणो हवन्ति । " ३. सव्वहा न मंदपुण्णाणं गेहेसु वसुहारा पडन्ति । " ४. तवइ अकज्जं कयं पच्छा ।" ५. सव्वं पुब्वकयाणं क्रम्माणं पावए फलविवागं ।" कहीं-कहीं तो सम्पूर्ण श्लोक ही सूक्ति के रूप में हैं६. एयं करेमि एहि एयं काऊण इमं कल्लं । काहिम को णु मन्नइ सुविणयतुल्लम्मि जियलोए ॥ " ? ७. धी जियलोय सहावो जहियं नेहाणुरायकलिया वि । जे पुण्त्रण्हे दिट्ठा, ते अवरण्हे नदीसंति 19 ८. किं वा तवस्सिजणो पियं वज्जियं अन्नं भणिउ जाणइ । मियङ्कबिम्बाओ अङ्गारवुडीओ पडन्ति । ९१ समराइच्चकहा में धर्मकथा के विविध आयामों के साथ श्रावकश्रावकाचार का भी उल्लेख मिलता है। श्रावक को श्रमणों की उपासना करने से श्रमणोपासक भी कहा गया है। उन्हें अणुव्रती, देशविरत. देशसंयमी की भी संज्ञा से उपमित किया गया है । श्रमण श्रमणी के आचार-अनुष्ठान की ही भांति श्रावक-श्राविका के आचार धर्म की अनिवार्य अपेक्षा बताते हुए गृहस्थाश्रम में रहते हुए श्रावक के लिए अणुव्रतों के पालन का विधान है । अणुव्रत पांच बताए हैं -स्थूल प्राणातिपात विरमण, स्थूल मृषावाद विरमण, स्थूल अदत्तादान विरमण, स्थूल मैथुन विरमण, स्थूल परिग्रह विरमण । श्रावकों के आचार का प्रतिपादन सूत्रकृतांग, उपासकदशांग आदि आगम ग्रंथों में बारह व्रतों के आधार पर किया गया है। समराइच्चक हा में गृहस्थ श्रावकों के लिए कुछ अतिचारों को गिनाया है । सांसारिक भ्रमण अथवा सांसारिक दुःखों के कारणभूत अतिचार बंध, वध, छविच्छेद" ... आदि हैं, जो एक खंड १९, अंक ३ २११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524577
Book TitleTulsi Prajna 1993 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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