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________________ का यह कथन कि 'आगमों में अनुनासिक परसवर्ण वाले पाठ प्रायः नहीं मिलते हैं, स्वयं ही यह बताता है कि क्वचित् तो मिलते हैं। पुनः इस सम्बन्ध में डॉ० चन्द्रा ने आगमोदय समिति के संस्करण और टीका तथा चणि के संस्करणों से प्रमाण भी दिये हैं । वस्तुतः लेखन की सुविधा के कारण ही अनुनासिक परसवर्ण वाले पाठ आदर्शों में कम होते गये हैं। किन्तु लोक भाषा में वे आज भी जीवित हैं । अतः चन्द्राजी के कार्य को प्रमाण रहित या आदर्शरहित कहना उचित नहीं है। ___ वर्तमान में उपलब्ध आगमों के संस्करणों में लाडनूं और महावीर विद्यालय के संस्करण अधिक प्रामाणिक माने जाते हैं, किन्तु उनमें भी 'त' और 'य' श्रुति को लेकर या मध्यवर्ती व्यंजनों के लोप सम्बन्धी जो वैविध्य हैं, वह न केवल आश्चर्यजनक हैं अपितु विद्वानों के लिए चिन्तनीय भी हैं। यहां महावीर विद्यालय से प्रकाशित स्थानांगसूत्र के ही एक दो उदाहरण आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ। __ चत्तारि वत्था पन्नत्ता, तंजहा-सुती नामं एगे सुती, सुई नाम एगे असुई, चउभंगो। एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा सुती णामं एगे सुती, चउभंगो। (चतुर्थ स्थान, प्रथम उद्देश्य सूत्रक्रमांक २४१, पृ० संख्या ९४) । इस प्रकार यहां आप देखेंगे कि एक ही सूत्र में 'सुती' और 'सई' दोनों रूप उपस्थित हैं। इससे मात्र शब्द-रूप में ही भेद नहीं होता है, अर्थ भेद भी हो सकता है क्योंकि सुती का अर्थ है सूत से निर्मित जबकि सुइ (शुचि) का अर्थ है पवित्र । इसी प्रकार इस सूत्र में ‘णाम' और 'नाम' दोनों शब्द रूप एक ही साथ उपस्थित हैं । इसी स्थानांग सूत्र से एक अन्य उदाहरण लीजिएसूत्र क्रमांक ४४५, पृष्ठ १९७ पर 'निग्रन्थ' शब्द के लिए प्राकृत शब्द रूप 'नियंठ' प्रयुक्त है तो सूत्र ४४६ में 'निग्गंथ' और पाठांतर में 'नियंठ' रूप भी दिया गया है । इसी ग्रन्थ में सूत्र संख्या ४५८, पृ० १९७ पर धम्मत्थिकांतं, अधम्मत्थिकांतं और आगासत्थिकायं--- इस प्रकार 'काय' शब्द के दो भिन्न शब्द रूप कातं और कायं दिये गये हैं। यद्यपि 'त' श्रुति प्राचीन अर्धमागधी की पहचान है, किन्तु प्रस्तुत संदर्भ में सुती, नितंठ और कांत में जो 'त' का प्रयोग हैं वह मुझे परवर्ती लगता है। लगता है कि 'य' श्रुति को 'त' श्रुति में बदलने के प्रयत्न भी कालान्तर में हुए और इस प्रयत्न में बिना अर्थ का विचार किये 'य' को 'त' कर दिया गया है। शुचि के सुती, निर्ग्रन्थ का नितंठ और काय का कांत किस प्राकृत व्याकरण के नियम से बनेगा-मेरी जानकारी में तो नहीं है। इससे भी आश्चर्यजनक एक उदाहरण हमें हर्षपुष्यामृत जैन ग्रंथमाला द्वारा प्रकाशित नियुक्ति के प्रारम्भिक मंगल में मिलता है २४८ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524577
Book TitleTulsi Prajna 1993 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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