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उसके लिए आचार्यश्री ने विश्वशान्ति और उसका मार्गशीर्षक एक विस्तृत संदेश भेजा। इस संदेश में अशांति के हेतुओं को बताकर अशांतिनिवारण के व्यावहारिक उपाय सुझाए गए। भावी समाज की नींव और सुधार केन्द्रों की परिकल्पना के साथ द्विकर संयोग (समाज और राज्य के संयोग) से शांति के कुछ साधन तुरन्त किये जाने को तेरह सुझाव दिए गए। ये सुझाव निम्न प्रकार हैं-----
१. समाज रचना का मूल आधार सत्य और अहिंसा रहे । २. अहिंसा दार्शनिक तत्त्व के रूप में नहीं---आचरण के रूप में
स्वीकार की जाय । ३. पशु बल का मुकाबिला पशुबल से न किया जाय । ४. अहिंसा और अपरिग्रह का वातावरण बनाया जाय । ५. अर्थ संग्रह न किया जाय । किसी प्रकार से भी आर्थिक शोषण न
किया जाय। ६. जीवन की आवश्यकताओं का विस्तार न किया जाय । दूसरों की
आवश्यकताओं पर अधिकार न किया जाय । ७. भौतिक सुख-सुविधाओं को प्राधान्य देने वाले तथा भौतिक ___ शक्तियों में विश्वास रखने वाले समाज, जाति या राष्ट्र से प्रति
स्पर्धा न की जाय । ८. व्यक्ति-व्यक्ति को संयम और आध्यात्मिकता की शिक्षा दी
जाय । ९. अपना सिद्धांत दूसरे पर जबरदस्ती न थोपा जाय । सैद्धांतिक
मत भेदों के कारण अनुचित व्यवहार न किया जाय । १०. राजनीतिक सत्ता या पद-प्राप्ति का लोभ न रखा जाय । ११. प्रतिशोध की भावना से किसी को भी दण्ड न दिया जाय । १२. जातिगत या सम्प्रदायगत संघर्षों को प्रोत्साहन न दिया
जाय । .. १३. जिनसे कम लाभ और अधिक अत्याचार हो ऐसे नियमों का
निर्माण न किया जाय ।'
इस प्रकार आचार्य श्री तुलसी द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जन्मीं मानवमात्र के प्रति कल्याण-भावना से ओतप्रोत रहे हैं और उन्होंने विश्व शांति के लिए यत्रतत्र सर्वत्र सत्प्रयत्न किए हैं। विशेष रूप से सन् १९४३ के अक्टूबर माह में, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में, प्रोटेस्टेण्ट, केथोलिक और यहदी संप्रदायों के १४० प्रतिनिधि एकत्र हुए और उन्होंने सात सर्व सम्मत सिद्धांत घोषित किए तो भारत से विश्वशांति के पुरोधा के रूप में आचार्य
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तुलसी प्रज्ञा
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