Book Title: Tulsi Prajna 1993 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 83
________________ परम्परा में प्रो० के० आर०चन्द्रा और दिगम्बर-परम्परा में आचार्य श्री विद्यानन्द के सानिध्य में श्री बलभद्र जैन ने प्रयत्न प्रारंभ किया है। किन्तु इन प्रयत्नों का कितना औचित्य है और इस सन्दर्भ में किन-किन सावधानियों की आवश्यकता है, यह भी विचारणीय है यदि प्राचीन रूपों को स्थिर करने का यह प्रयत्न सम्पूर्ण सावधानी और ईमानदारी से न हुआ, तो इसके दुष्परिणाम भी हो सकते हैं। प्रथमतः प्राकृत के विभिन्न भाषिक रूप लिये हुए इन ग्रन्थों में पारस्परिक प्रभाव और पारस्परिक अवदान को अर्थात् किसने किस परम्परा से क्या लिया है, इसे समझने के लिए आज जो सुविधा है, वह इनमें भाषिक एकरूपता लाने पर समाप्त हो जायेगी । आज नमस्कार मंत्र में 'नमो' और 'णमो' शब्द का जो विवाद है, उसका समाधान और कौन शब्द रूप प्राचीन है इसका निश्चय, हम खारवेल और मथुरा के अभिलेखों के आधार पर कर सकते हैं और यह कह सकते हैं कि अर्धमागधी का 'नमो' रूप प्राचीन है, जबकि शौरसेनी और महाराष्ट्री का ‘णमो' रूप परवर्ती है। क्योंकि ई० की दूसरी शती तक अभिलेखों में कहीं भी 'णमो' रूप नहीं मिलता । जबकि छठी शती से दक्षिण भारत के जैन अभिलेखों में णमो' रूप बहुतायत से मिलता है। इससे फलित यह निकलता है कि (णमो) रूप परवर्ती है और जिन ग्रन्थों में 'न' के स्थान पर 'ण' की बहुलता है, वे ग्रन्थ भी परवर्ती हैं। यह सत्य है कि 'नमो से परिवर्तित होकर ही 'णमो' रूप बना है। जिन अभिलेखों में 'णमो' रूप मिलता है वे सभी ई० सन्० की चौथी शती के बाद के ही हैं। इसी प्रकार से नमस्कार मंत्र की अंतिम गाथा में 'एसो पंच नमुक्कारो सव्व पावप्पणासणो मंगलाण च सब्वेसिं पढ़म हवइ मंगलं'--- ऐसा पाठ है । इनमें प्रयुक्त प्रथमा विभक्ति में 'एकार' के स्थान पर 'ओकार' का प्रयोग तथा हवति के स्थान हवइ शब्द रूप का प्रयोग यह बताता है कि इसकी रचना अर्धमागधी से महाराष्ट्री के संक्रमण-काल के वीच की है और यह अंश नमस्कार मंत्र में बाद में जोड़ा गया है। इसमें शौरसेनी रूप 'होदि' या 'हवदि के स्थान पर महाराष्ट्री शब्द रूप 'हवई' है जो यह बताता है-~-यह अंश मूलत: महाराष्ट्री में निर्मित हुआ था और वहीं से ही शौरसेनी में लिया गया है। इसी प्रकार शौरसेनी आगमों में भी इसके 'हवई' शब्द रूप की उपस्थिति भी यही सूचित करती है कि उन्होंने इस अंश को परवर्ती महाराष्ट्री प्राकृत के ग्रन्थों से ही ग्रहण किया है । अन्यथा वहां मूल शौरसेनी 'हवदि' या 'होदि' रूप ही होना था। आज यदि किसी को शौरसेनी का अधिक आग्रह हो, तो क्या वे नमस्कार मंत्र के इस 'हवइ' शब्द को 'हवदि' या 'होदि' रूप में परिवर्तित कर देंगे? जबकि तीसरी चौथी शती से आज तक कहीं भी 'हवइ' के अतिरिक्त अन्य कोई शब्द-रूप उपलब्ध ही नहीं है । तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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