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हैं और भविष्यत्काल में नहीं होंगे ऐसी बात भी नहीं है । क्योंकि दुनिया में जब तक राग, द्वेष, ईर्षा आदि विद्यमान रहेंगे तब तक किसी न किसी रूप में युद्ध भी होते रहेंगे। किन्तु अर्वाचीन युद्ध प्राचीन युद्धों की अपेक्षा अधिक विषम एवं नाशक हैं ।
प्राचीन युद्धों में प्रायः सैनिक और योद्धाओं का ही संहार होता था वहां वर्तमान में योद्धाओं के युद्धों में सैनिकों के साथ निर्दोष नागरिकों-यहां तक कि बालक, स्त्री और अपाहिज तथा रोगियों का भी घमासान देखने और सुनने में आता है। प्राचीन युद्धों में रथारोही का रथारोही से, अश्वारोही का अश्वारोही से, पैदल का पैदल से अर्थात् उभय पक्ष में समान शस्त्रों से ही प्रायः युद्ध होता था। आकस्मिक आक्रमण की अपेक्षा सामने वाले को सावधान करके तथा ललकार कर प्रहार किया जाता था। अचानक या धोखे से आक्रमण करना अधर्म युद्ध कहा जाता था। अर्थात् युद्ध में भी नीति, न्याय और औचित्य पर दृष्टि रखी जाती थी। इसके विषय में त्रिपृष्ठ वासुदेव का उदाहरण बड़ा ही संगत है ।
___ ऐसे महायोद्धा भी थे कि जो संग्राम में भी विपक्षी के बाण चलाने के पहले बाण न चलाने की प्रतिज्ञा रखते थे। प्रसंग अनुकूल वरुण (नाग दौहित्र) या महाराज चेटक का दृष्टांत भी हृदयग्राही है। इसलिए मूलतः युद्ध पापमय होते हुए भी नीतिपूर्ण होने के कारण धर्म युद्ध कहलाते थे। आधुनिक युद्धों में तो एक मात्र नर संहार ही मुख्य उद्देश्य रहता हैं। चाहे वह किसी प्रकार किया जाये । इस कारण से वर्तमान कालीन युद्धों को यद्ध नहीं कह कर महाप्रलय कहें तो भी अतिशयोक्ति नहीं होगी।
इसी से युद्ध जन्य अशान्ति से आक्रान्त होकर समस्त विश्व आज शान्ति की मांग कर रहा है। विश्व-धर्म-सम्मेलन इस बात की अपील कर रहा है कि समस्त धर्माचार्यों का यह कर्तव्य है कि वे अपनी ऐसी आवाज प्रत्येक प्राणी के कानों तक पहुंचायें जिससे शान्ति की पूनः स्थापना हो सके। विश्व धर्म सम्मेलन की अपील हमारे कानों में भी पड़ी और एक धर्माचार्य की हैसियत से पीड़ित संसार को शान्ति का यह संदेश सुनाने को उद्यत हुआ
. मुझे आशा है कि संसार का प्रत्येक सहृदय, शान्ति का खण्ड १९, अंक ३
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