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है। इसी प्रकार महाराष्ट्री के ग्रंथों में अथवा श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा लिखित ग्रंथों में जब भी शौरसेनी के ग्रन्थ का उद्धरण दिया गया, तो सामान्यतया उसे मूल शौरसेनी में न रखकर उसका महाराष्ट्री रूपांतरण कर दिया गया। उदाहरण के रूप में भगवती आराधना की टीका में जो उत्तराध्ययन, आचारांग आदि के उद्धरण पाये जाते हैं, वे उनके अर्धमागधी रूप में न होकर शौरसेनी रूप में ही मिलते हैं। इसी प्रकार हरिभद्र ने शौरसेनी प्राकृत के 'यापनीय-तंत्र' नामक ग्रंथ से 'ललितविस्तरा' में जो उद्धरण दिया वह महाराष्ट्री प्राकृत में ही पाया जाता है ।।
इस प्रकार चाहे अर्धमागधी आगम हो या शौरसेनी आगम, उनके उपलब्ध संस्करणों की भाषा न तो पूर्णत: अर्धमागधी है और न ही शौरसेनी । अर्धमागधी और शौरसेनी दोनों ही प्रकार के आगमों पर महाराष्ट्री का व्यापक प्रभाव देखा जाता है जो कि इन दोनों की अपेक्षा परवर्ती है । इसी प्रकार महाराष्ट्री प्राकृत के कुछ ग्रन्थों पर तो परवर्ती अपभ्रश का भी प्रभाव देखा जाता है। इन आगमों अथवा आगम तुल्य ग्रन्थों के भाषाई स्वरूप की विविधता के कारण उनके कालक्रम तथा पारस्परिक आदान-प्रदान को समझने में विद्वानों को पर्याप्त उलझनों का अनुभव होता है, मात्र इतना ही नहीं कभीकभी इन प्रभावों के कारण इन ग्रंथों को परवर्ती भी सिद्ध कर दिया जाता है।
__ आज आगमिक साहित्य के भाषिक स्वरूप की विविधता को दूर करने तथा उन्हें अपने मूल स्वरूप में स्थिर करने के कुछ प्रयत्न भी प्रारम्भ हुए हैं। सर्वप्रथम डाँ० के० ऋषभचन्द्र ने प्राचीन अर्धमागधी आगम जैसेआचारांग, सूत्रकृतांग में आये महाराष्ट्री के प्रभाव को दूर करने एवं उन्हें अपने मूल स्वरूप में लाने के लिए प्रयत्न प्रारम्भ किया है । क्योंकि एक ही अध्याय या उद्देशक में लोय और लोग या आया और आता दोनों ही रूप देखे जाते हैं। इसी प्रकार कहीं क्रिया रूपों में भी 'त' श्रुति उपलब्ध होती है और कहीं उसके लोप की प्रवृत्ति देखी जाती है । प्राचीन आगमों में हुए इन भाषिक परिवर्तनों से उनके अर्थ में भी कितनी विकृति आयी इसका भी डाँ० चन्द्रा ने अपने लेखों के माध्यम से संकेत किया है तथा यह बताया है कि अर्धमागधी 'खेतन्न' शब्द किस प्रकार 'खेयन्न' बन गया और उसका जो मूल 'क्षेत्रज्ञ' अर्थ था वह 'खेदज्ञ' हो गया। इन सब कारणों से उन्होंने पाठ संशोधन हेतु एक योजना प्रस्तुत की और आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन के प्रथम उद्देशक की भाषा का सम्पादन कर उसे प्रकाशित भी किया है। इसी क्रम में मैं ने भी आगम संस्थान उदयपुर के डाँ० सुभाष कोठारी एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया द्वारा आचारांग के विभिन्न प्रकाशित संस्करणों से पाठांतरों का संकलन करवाया है। इसके विरोध में पहला स्वर श्री
तुलसी प्रज्ञा
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