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(१) वर्तमान शिक्षा प्रणाली : वर्तमान शिक्षा प्रणाली में केवल भौतिक अभिसिद्धि ही मुखतया लक्ष्यभूत् रहती है। आध्यात्मिक विकास, जो कि शिक्षा का मूल और चरम लक्ष्य रहना चाहिए, वह आधुनिक शिक्षा प्रणाली में सबसे कम है। प्रारंभ से ही अपरिपक्व मस्तिष्क वाले बालकों को यही बात सिखलाई जाती है कि आत्मा नाम की कोई सनातन वस्तु नहीं है। बन्दरों की विकसित अवस्था ही मनुष्य है तथा आत्मा की उन्नति एवं जनकल्याण की भावना के विकास का कोई मार्ग आमतौर से नहीं बताया जाता है। इसके कारण उस अवस्था से ही बालकों के हृदय में अविनय, उच्छृङ्खलता तथा स्वार्थ-परायणता और केवल भौतिक अभिसिद्धि की ही भावना आदि अनेक अवगुण घर कर लेते हैं और आगे चलकर ये ही अशान्ति के कारण रूप बन जाते हैं।
(२) वैज्ञानिक आविष्कारों के साथ-साथ प्रलयंकारी अस्त्रशस्त्रों की आविष्कृति और उनका उपयोग : हालांकि विज्ञान कोई बुरी चीज नहीं है और न विज्ञान के द्वारा किये गये आविष्कार ही सदैव अशान्ति के कारण होते हैं, परन्तु उनके प्रयोग में पूर्ण सतर्कता और सदभावना की आवश्यकता होती है। जैन सिद्धान्तों में भी तेजोलब्धि आदि कई शक्तियों का वर्णन है। वह कई प्रकार की कठोर साधनाओं के द्वारा ही प्राप्त होती थी। जिसके पास वह शक्ति मौजूद होती है, वह मनुष्य अपने स्थान से ही उसके प्रयोग से एक बहुत बड़े भूभाग को (सोलह देशों को) भष्म कर सकता है। परन्तु ऐसी शक्तियों के साधकों को यह बात भी सिखलाई जाती थी कि उन शक्तियों को प्रयोग में लाने वाला उत्कृष्टत: अनन्त काल पर्यन्त संसार-चक्र में वास-परिभ्रमण करता है। इसी कारण से ही वे शक्तिशाली किन्तु भवभीक मनुष्य वैसी शक्ति को काम में लाने से विमुख रहते थे।
किन्तु आधुनिक वैज्ञानिकों के हृदय में ऐसी भावना बहुत कम रहती है और अपने विनाशकारी आविष्कारों के प्रयोग में वे संसार के हित-अहित को भूल जाते हैं । फलस्वरूप विभिन्न देशों के वैज्ञानिकों के आविष्कारों की पारस्परिक स्पर्धा आगे जाकर भीषण संहार के रूप में प्रकट होती है।
युद्ध प्राचीनकाल में भी होते थे, वर्तमान काल में भी होते २२४
तुलसी प्रज्ञा
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