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रिक्त प्रायः समस्त ही लोक अपना जीवन बड़ी ही अशान्ति एवं विषम परिस्थितियों में से व्यतीत करता हुआ नजर आ रहा है। ऐसी सर्वव्यापिनी अशान्ति के कई कारण हो सकते हैं। परन्तु साम्प्रतकालीन अशान्ति का कारण जो हमारे सामने है, वह है--- महाभीषण, प्रलयंकारी विश्व युद्ध ! यद्यपि यह युद्ध, विश्व के कतिपय क्षेत्रों तक ही सीमित है, तथापि उसका विषैला प्रभाव दुनिया के कोने-कोने में अपना असर डाल रहा है और इसीलिये यह ठीक ही विश्वव्यापी युद्ध कहा जाता है । युद्ध नाम 'पारस्परिकसंघर्ष' का है। किसी भी प्रकार के पारस्परिक संघर्ष में अशान्ति, असंतोष एवं विनाश के अतिरिक्त कोई लाभ नहीं हो सकता ।
प्राचीनकाल में युद्ध प्रायः तीन कारण से ही हुआ करते थे :-(१) स्त्री के लिए, (२) धन के लिए और (३) भूमि के लिए। राम और रावण का महायुद्ध, जो रामायण में सविस्तार वर्णित है, एक मात्र साध्वी सीता को लेकर हुआ था। जैन शास्त्रों में वर्णित कोणिक और महाराज चेटक का महा संग्राम, दीर्घ काल तक चालू रहा और उसमें केवल दो ही दिनों में एक करोड़ अस्सी लाख मनुष्यों का काल सिद्ध हुआ। इस युद्ध का मूल हेतु बहुमूल्य हार और सेचनक नामक गंधीहस्ती था। इस तरह यह युद्ध सम्पत्तिधन के लिए ही हुआ था।
कौरव और पाण्डवों का महायुद्ध -जोकि अनेक अक्षोहिणियों एवं अनेक महारथी वीरों का क्षय करने वाला हुआ तथा जिसमें अर्जुन के पुत्र वीर अभिमन्यु जैसे की अन्याय मृत्यु हुई थीपाण्डव चरित्र में पूर्णतया वर्णित है। इस संग्राम का मूल कारण था-भूमि। जबकि पाण्डव बारह वर्ष के प्रकट वनवास एवं तेरहवें वर्ष के प्रच्छन्न वास करने के बाद भाई दुर्योधन के पास केवल पांच ही ग्राम मांग कर संतोष कर लेना चाहते थे, तब क्या हानि होती यदि दुर्योधन उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता और विश्व को उस महा भीषण संग्राम से और उसके विनाशकारी दुष्प्रभाव से मुक्त रखता ? अथवा क्या हर्ज होता अगर पाण्डव ही तेरह वर्ष की तरह समूचा जीवन संयम से व्यतीत कर लेते ? परन्तु जमीन का विषय ऐसा ही है कि मनुष्य इसके लिए सार्वजनिक हिताहित और अपने कर्त्तव्याकर्त्तव्य की भावना को भी भूल जाता
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तुलसी प्रज्ञा
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