Book Title: Tulsi Prajna 1993 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 70
________________ श्री तुलसी ने भी अपनी बात कही और उसे उपयुक्त समर्थन भी मिला । हालांकि एक जैन मुनि होने से आचार्यश्री प्रवृत्ति मूलक सिद्धांतों पर अपनी सहमति नहीं दे सकते थे किंतु उन्होंने राष्ट्र-राष्ट्र, देश-देश, राज्य-राज्य और समाज -समाज में भाईचारे से रहने--जीयो और जीने दो-.-के सिद्धांत को पुरस्कर किया। उन्होंने संदेश दिया कि वैर से वैर नहीं मिटता किन्तु अवैर से वैर समाप्त होकर शांति प्राप्त हो जाती है 'हणन्तं वाऽणुजाणाइ वैरं वड्डई अप्पणो ।' भगवान महावीर का उपदेश स्मर्तव्य है-- उवसमेण हणो कोहं माण महवया जिणं । मायमज्जवभावेण लोभं संतोसओ जिणे ।। कि शांति से क्रोध को जीतो। नम्रता से अभिमान को, सरलता से माया को और संतोष से लोभ को जीत लो। यह संदेश दुनिया के लिये शांति, संतोष, आर्जव और मार्दव का यथार्थ पाठ है । संदर्भ १. देखें---तुलसी प्रज्ञा खंड १८, अंक २ का संपादकीय । २. प्रस्तुत संदेश, विश्व धर्म सम्मेलन, लंदन की ओर से प्राप्त ई० पामस्टी के पत्र के निवेदन होने पर आचार्य श्री तुलसी ने सरदारशहर की सभा में दिया था। स्वेडिश विदेश मंत्री रहे बेरोन ई० पामस्टी विश्वधर्म सम्मेलन, लंदन द्वारा नियुक्त भिन्न-भिन्न मतों के अनुयायियों की प्रतिनिधि समिति के सदस्य थे और उन्होंने विश्व धर्म सम्मेलन की ओर से जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा को पत्र लिखकर सहयोग, सहायता भौर सत्परामर्श मांगा था। यह पत्र लंदन से १ अक्टूबर, १९४४ को भेजा गया किंतु वह कलकत्ता ओर गंगाशहर की यात्रा करता हुआ २९ जून १९४५ को सरदारशहर में आचार्य श्री को निवेदन हुआ और उसी दिन प्रायः दो हजार के लोक समूह के बीच आचार्यश्री ने एक महत्त्वपूर्ण धर्मप्रवचन किया जिसके आधार पर यह संदेश तैयार किया गया । (नोट-पत्र का हिंदी अनुवाद आगे दिया जा रहा है।) ३. दिनांक २३-११-४५ को श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, ___ कलकत्ता की ओर से प्रकाशित-अशांत विश्व को शांति का खण्ड १९, अंक ३ २२९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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