Book Title: Tulsi Prajna 1993 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 53
________________ श्रावक के लिए अनावरणीय हैं- 'नो खलु समायरइ इमे अइयारे । " २४ ग्रंथ में आगे श्रमणों के आचरण संबंधी कुछ नियमों का भी उल्लेख है । दस प्रकार के साधु- धर्म - यथा - क्षमा, मार्दव आदि का विवेचन है। आचरित नियम ये हैं - शत्रु-मित्र को समभाव से देखना, प्रमाद से झूठा भाषण न देना, रात्रि भोजन न करना, पांच महाव्रतों, तीन गुप्तियों एवं पांच समितियों का सम्यग् पालन, प्रायश्चित्त, विनय आदि बाह्य तथा आंतरिक तप विधान, मासादिक अनेक प्रतिमा स्वीकार करना । समराइच्चकहा की भांति भगवती सूत्र, दशवैकालिक एवं उत्तराध्ययन सूत्र में साधु धर्म के आचरण योग्य विधानों का उल्लेख है । तप, संयम आदि के द्वारा सम्यग् ज्ञान की प्राप्ति ही श्रमणत्व का सार माना गया है | श्रमणत्व आचरण के प्रभाव से ही नागरिकों द्वारा श्रमणों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। उन्हें कष्ट पहुंचाने वाले को समाज में घृणा की दृष्टि से देखा जाता है । तथा उन्हें अपने दुष्कृत्यों के लिए श्रमणों से क्षमायाचना करनी पड़ती है । धर्म चर्चा में श्रमण और श्रमणचर्या के अतिरिक्त समराइच्चकहा में कुछ दार्शनिक विचारों का भी विवेचन किया गया है जिसके अंतर्गत लोकपरलोक, जीवगति, कर्मगति आदि का विश्लेषण किया गया है । जीव के सुख-दुःख तथा पाप-पुण्य आदि का कारण कर्म परिणति बताया गया है । इस संसार में व्यक्ति पूर्वकृत कर्म के प्रभाव से ही क्लेश का भाजन बनता है | दारिद्र्य, दुःख का अनुभव करता अथवा सुख समृद्धि का हेतु बनता है । कर्म की महत्ता स्वीकार करते हुए आचार्य हरिभद्र ने आठ मूल कर्म प्रकृतियां बतायी हैं -- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय "आदि ।" कर्म के संयोग से दुःख तथा कर्म की निवृत्ति से सुख की प्राप्ति बताया गया है । कर्म भेदन के परिणामस्वरूप जीव सम्यक्त्व को प्राप्त होता है तथा वह बहुकर्म-मल मुक्त होकर अपने स्वरूप भाव को प्राप्त करता है - 'सुहायपरिणामरूवं सम्मत्तं पाउणइ ।" जीव-स्वरूप की चर्चा में जीव का स्वभाव मल एवं कलंक मुक्त स्वर्ण की भांति शुद्ध बताया गया है । इस प्रकार का जीव स्वभाव से उचित कर्मों के विपाक को जानकर अपराध करने वाले पर भी उपशम भाव के कारण कभी क्रोध नहीं करता - 'अवरद्ध विण कुप्पइ उवसमाओ ।' १२७ जीव दो प्रकार के माने गए हैं-संसारी जीव और मुक्त जीव । संसारी जीव चार प्रकार के कहे गए हैं-नारक, तियंच, मनुष्य और देव । इन चारों विभेदों से समराइच्चकहा में परलोक की सत्ता स्पष्ट होती है । हर प्राणी की मृत्यु के पश्चात् उसका चैतन्य रूप जीव परलोकगामी होता है । पाप कृत्य करनेवाले प्राणी नरक लोक में अपने कृत्यों का परिणाम भोगते हैं तथा शुभ प्रवृत्ति करनेवाले प्राणी स्वर्गलोक में जाते हैं । २१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा www.jainelibrary.org

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