Book Title: Tulsi Prajna 1993 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 57
________________ बारे में लेखनी प्रवृत्त हो रही है, उन्हीं के शब्द, उन्हीं को समर्पित । आचार्य भिक्षु का अवतरण उस समय हुआ था जब भारत के राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक सभी क्षेत्रों में उथल-पुथल मचा हुआ था, प्रजारंजक कहलाने वाला नृपति-वर्ग विलास में आकण्ठ निमज्जित हो चुका था । धर्म-रक्षक साधु-संन्यासी भी, जो केवल आचार-पालन, जीव-मंगल आदि को ही अपना सर्वस्व मानते थे, अपने मूल रूप से हट गए थे। आचार्य भीखण एक तरफ क्रांतिकारी आचार्य थे तो दूसरी तरफ काररित्री भावयित्री प्रतिभा सम्पन्न कवि भी थे। उन्होंने एक नवीन मार्ग की स्थापना की जिसका अभिधान हुआ-'तेरापंथ' । प्राचीन काल से ही यह परम्परा रही है कि आचार्य, सम्प्रदायप्रवर्तक, उपदेशक जीव-जीवनोद्धारक संत-महात्मा आदि अपने जीवन-दर्शन या अपने पूज्य के जीवन-दर्शन को आस्तिक जनता तक पहुंचाने के लिए काव्य का आश्रयण करते हैं क्योंकि उपदेश के लिए त्रिविध उपदेश पद्धति में (प्रभुसम्मित, मित्रसम्मित और कान्तासम्मित) कान्तसम्मित उपदेश पद्धति, जिसे काव्य कहते हैं, श्रेष्ठ और प्रभावक माना गया है।" कवि अश्वघोष विमलसूरि, आचार्य हरिभद्र आदि ने अपने उपास्य या पंथ-प्रधान के उपदेश को संसार में प्रसृत करने के लिए काव्य का सहारा लिया । सौन्दरनन्द महाकाव्य एवं 'समराइच्चकहा' उदाहरण हैं। इसी सरणि में तेरापंथ के आद्याचार्य स्वामी भीखणजी भी हैं। संस्कृत-साहित्याचार्यों ने विभिन्न आधारों पर कवि-प्रकार की चर्चा की है। उन्हीं विवेचनाओं का आधार प्रस्तुत संदर्भ में स्वीकार्य है। आचार्य राजशेखर ने काव्यमीमांसा में काव्य-विषय की दृष्टि से कवियों के तीन प्रकार बताये हैं-- शास्त्रकवि, काव्यकवि और उभयकवि ।' शास्त्रकवि काव्य में रस सम्पत्ति का समावेश करता है, काव्यकवि शास्त्र के तर्क-कर्कश कथन को मनोरम बनादेता है तथा उभय कवि दोनों विषय में सुदक्ष होता है। आचार्य-भिक्षु उभय-कवि के महनीय गुणों से मण्डित थे। दर्शन और आचार-शास्त्र के कठोर-नियमों को उन्होंने स्वभाव रमणीय तो बनाया ही, उसमें काव्य तत्त्वों का चारु निवेशन भी किया है । भिक्षु-दृष्टांत" इसका उत्कृष्ट उदाहरण हो सकता है । इसमें विभिन्न दृष्टांतों के माध्यम से वर्णनीय का सुन्दर उपन्यास किया गया है । 'नवपदार्थ' में जैन-दर्शन के जीव अजीव, पुण्य पाप, आश्रव संवर, बंध, निर्जरा और मोक्ष आदि का सुन्दर विवेचन किया गया है । इसमें श्रुति-मधुर शब्दों एवं ताल-लय समन्वित-छंद-बंध के आश्रयण से श्रेष्ठ काव्यवत् रमणीयत्व का प्रभूत उपस्थापन हुआ है । उदाहरण द्रष्टव्य है २१६ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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