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जीव- अजीव ओलख्यां विनां, मिटें नहीं मन रो भर्म । समकत आयां विण जीव नें, रूके नहीं भवतां कर्म ॥
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सासतो जीव द्रव्य साख्यात, कदे घटे नहीं तिलमात | तिणरा असंख्यात प्रदेस घटे बधे नहीं लवलेस || "
भिक्षु ग्रन्थ रत्नाकार के द्वितीय भाग के भरत चरित, जंबूकुमारचरित, सुदर्शन चरित" आदि काव्य की उदात्त - परम्परा में निसर्ग - रमणीया राजस्थानी भाषा के ललित - लावण्य से मंडित हैं । उपर्युक्त विवरण आचार्य भिक्षु के उभय - कवित्व शक्ति का उद्घाटन करते हैं । आचार्यश्याम- देव ने उभयकवि को ही श्रेष्ठ माना है- तेषामुत्तरोत्तरीयो गरीयान् इति श्यामदेवः । अवस्था के आधार पर कवियों के दस प्रकार बताए गए हैं । काव्यविद्यास्नातक, हृदयकवि, अन्यापदेशी, सेविता, घटमान, महाकवि, कविराज आशिक, अविच्छेदी और संक्रामयिता ।
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जो विभिन्न विद्याओं का अध्ययन गुरुकुल या गुरु के पास बैठकर करता है वह काव्यविद्यास्नातक, अपनी रचना को संकोचवशात् प्रकाशित न करने वाला हृदयकवि, अपना दोष दूसरों पर लगा देने वाला अन्यापदेशी, प्राचीन कवियों की छाया ग्रहण कर कविता करने वाला सेविता, फुटकल काव्यकार घटमान, प्रबन्धकाव्य रचनाकार महाकवि, अनेक भाषाओं में रचना करने वाला कविराज, आवेश वशात् काव्यकर्ता आवेशिक, इच्छानुसार काव्य - रचयिता अविच्छेदी एवं मंत्र-तंत्र के प्रभाव से दूसरे किसी व्यक्ति से काव्य - निर्माण करवा लेने वाला कवि संक्रामयिता कहलाता है ।
उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य में आचार्य भिक्षु काव्यविद्या स्नातक और महाकवि की श्रेणी में प्रतिष्ठित दृग्गोचर होते हैं, क्योंकि उन्होंने अपने गुरु से विभिन्न विद्याओं का अध्ययन किया तथा अनेक प्रबन्ध-काव्यों की रचना की है । फुटकल काव्यों की रचना करने से उन्हें घटमान- कवि भी कहा जा सकता है ।
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काव्य- कला की उपासना की दृष्टि से कवि के चार प्रकार माने जाते हैं - असूर्यपश्य, निषण्ण, दत्तावसर और प्रायोजनिक | 24
सूर्य को देखे बिना गर्भ गृह में काव्योपासना करने वाला असूर्य पश्य, रसावेश की स्थिति में काव्यकार निषण्ण, जीविकोपार्जन के लिए काव्यरचयिता दत्तावसर तथा किसी प्रयोजन विशेष की सिद्धि के लिए काव्यकला की उपासना करने वाला कवि प्रायोजनिक कहा जाता है ।
आचार्य भिक्षु प्रायोजनिक कवि थे । वे भगवान् महावीर के अमृतसंदेश को निसर्ग जनता के प्रति पहुंचाने, निर्वाण मार्ग की प्रतिष्ठापना एवं संसार - सागर में फंसे जीवों के उद्धार के लिए काव्य रचना में प्रवृत्त हुए ।
खण्ड १९, अंक ३
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