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जैनदर्शन में कमों के संदर्भ में 'निदान' शब्द का प्रयोग आता है। निदान का आशय किसी ऐहिक व पारलौकिक फल विशेष का संकल्प कर तपस्या आदि कर्म करना । अग्निशर्मा इसी आशय को कहता है-'जइ होज्ज इमस्स फलं मए सुचिण्णस्स वयविसेसस्स ।" मन में जिस कोटि का रागात्मक या द्वेषात्मक-कषाय-प्रसूत-भाव होता है, तदनुरूप वह पुरुष निदान करता है। यह निदान अनेक जन्मों तक वर्तमान रहकर व्यक्ति के जीवन को रुग्ण, नाना गतियों में भ्रमण का पात्र बना देता है। अग्निशर्मा गुणसेन के प्रति तीव्र घृणा के कारण निदान बांधता है, यह घृणा ज्यों की त्यों आगे भवों में दिखलायी पड़ती है। अग्निशर्मा का निन्द्याचरण क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह आदि विभिन्न प्रवृत्तियों के रूप में व्यक्त हो जाता है और वह पुनः पापाचरण करके भावी कर्मों की निन्द्य परम्परा का अर्जन करता है। इस प्रकार धर्म आराधकों के गुणों और विराधकों-धर्म विरुद्ध चलनेवालों के दोषों पर इस ग्रंथ में विशेषत: प्रकाश डालते हुए अवन्ती के राजा समरादित्य के चरित्त का वर्णन किया है, जो मोक्षाधिकारी प्राणियों को वैराग्य की ओर प्रेरित करता है।
समराइच्चकहा में संसार से विरक्ति के कारणों का उल्लेख किया है। गुणसेन अग्निशर्मा से पूछता है-आपके इस महादुष्कर तपश्चरण का कारण क्या है ? तपस्वी अग्निशर्मा ने अपने वैराग्य का कारण बताया-दरिद्रता का दुःख, दूसरे से तिरस्कार, कुरुपता तथा गुणसेन नामक कल्याण मित्र-जो धर्म के लिए प्रेरित करता है-'चोएइ य जो धम्मो ।१० इसी ग्रंथ में आगे विजयसेनाचायं वैराग्य का कारण जो इस संसार में सुलभ है, इंगित करते हैं-नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवयोनी में भटकते हुऐ जीवों को जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था के भय के सिवाय क्या कुछ सुख है 'किमत्थि किंचि सुहं आगे ओर कहा है-महासमुद्र के मध्य में पड़े हुए रत्न की तरह चिंतामणि जैसा यह मनुष्य जन्म यहां दुर्लभ है 'दुल्लभं माणुसत्तणं"२ तथा जीवन क्षणभंगुर है । समृद्धि शरद् ऋतु के बादल, स्त्री के कटाक्ष, हाथी के कान तथा बिजली के समान चंचल है । तथा 'केण ममेत्थप्पत्ती' मेरी यहां उत्पत्ति कैसे हई, मैं यहां से फिर कहां जाऊंगा, जो इतना भी सोचता है, वह कौन यहां विरक्त नहीं होता। इस प्रकार संसार को ही वैराग्य का कारण बताया है । साथ ही जैन परम्परा के अनुसार सांसारिक क्लेश (जन्म-मरण-रोग-शोक-संयोगवियोग) के कारण ही सम्पूर्ण दु:खों के मोचक श्रमणत्व को ग्रहण करने का उल्लेख है।
समराइच्चकहा में कर्मतरु को काटकर सभी प्रकार के बंधनों से छुटकारा पाने के लिए प्रव्रज्यारूपी महाकुठार को परलोक गमन में सहायक बताया है । शुभ परिणाम योग से प्रव्रज्या ग्रहण करना तथा चारित्र पालन
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तुलसी प्रज्ञा
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