Book Title: Tulsi Prajna 1993 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 49
________________ धर्म का उपादान कारण या साधन दृष्टिगत हो, क्षमा, सहनशीलता, मार्दवकोमलता, आर्जव ऋजुता, सरलता, मुक्ति, तपस्या, संयम, सत्य, पवित्रता, अकिंचनता अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य का मुख्यतया निरूपण हो, अणुव्रत, दिग्व्रत, अनर्थदण्ड विरति, सामायिक, पौषधोपवास, उपभोग- परिभोग की मर्यादा तथा अतिथि संविभाग का विवेचन हो, अनुकम्पा, अकाम - निर्जरा आदि विषय वर्णित हो जिन कथाओं में धर्मं तत्त्व का विशेष निरूपण रहता हो तथा वह आत्मकल्याणकारी और संसार के शोषण तथा उत्पीड़न को दूर कर शाश्वत सुख को प्रदान करे, ऐसी सत्कथा धर्मकथा ही है । उद्योतनसूरि ने नाना जीवों के नाना प्रकार के भाव-विभाव का निरूपण करनेवाली कथा धर्मकथा बतलायी है । इसमें जीवों के कर्म विपाक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भावों की उत्पत्ति के साधन तथा जीवन को सभी प्रकार से सुखी बनाने वाले नियम आदि की अभिव्यंजना होती है । धर्मकथाओं में शील, संयम, तप, पुण्य और पाप के रहस्य के सूक्ष्म विवेचन के साथ मानव जीवन और प्रकृति के यथार्थ धरातल को प्रकट किया जाता है । धर्मकथाओं में शाश्वत सत्य का निरूपण रहता है साथ ही जीवन निरीक्षण, मानव की प्रवृत्ति और मनोवेगों की सूक्ष्म परख, अनुभूत रहस्यों और समस्याओं का समाहार पाया जाता है । उद्योतनसूरि ने कुवलयमाला में धर्मकथा को चार भागों में विभाजित किया है—-आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदिनी और निर्वेदिनी । धवला टीकाकार वीरसेनाचार्य ने धर्मकथा के इन्हीं भेदों का निरूपण करते हुए कहा है. आक्षेपणी कथा में छह द्रव्य और नव पदार्थों का स्वरूप, विक्षेपिणी कथा में प्रथमत: दूसरों की मान्यताओं का निराकरण, तदनन्तर पादन | संवेदनी में पुण्य-पाप के फलों का विवेचन कर जाया जाता है। निर्वेदनी में संसार, शरीर और भोगों में जाती है । " उक्त लक्षणों के आधार पर धर्मकथा के मानक रूप हम समराइच्चकहा में पाते हैं। । मानव जीवन के लिए क्या उपादेय और क्या हेय है, इसका आचार्य हरिभद्र ने समराइच्चकहा कृति में लेखाजोखा प्रस्तुत किया है. जो धर्मकथा का एक महत्त्वपूर्ण आयाम है । यहां उदाहरण, दृष्टांत, उपमा, रूपक, संवाद और लोकप्रचलित कथा कहानियों द्वारा संयम, तप और त्याग के उपदेश पूर्वक धर्मकथा का विवेचन किया गया है। यह एक धर्मकाव्य है जिसमें विभिन्न आयामों के माध्यम से बड़ी मार्मिक भाषा में त्याग और वैराग्य का तुलसी प्रज्ञा २०८ Jain Education International For Private & Personal Use Only स्वमत का प्रतिविरक्ति की ओर ले विरक्ति उत्पन्न की www.jainelibrary.org

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