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उपदेश दिया है।
___समराइच्चकहा की कथा का मूल आधार अग्निशर्मा एवं गुणसेन के जीवन की घटना है । अपमान से दु:खी होकर अग्निशर्मा प्रतिशोध की भावना मन में लाता है - 'एयस्स वहाये पइजम्मं होज्ज मे जम्मो' ' इस निदान के फलस्वरूप नौ भवों तक वह गुणसेन के जीव से बदला लेता है। वास्तव में समराइच्चकहा को कथावस्तु सदाचार और दुराचार के संघर्ष की कहानी है। प्रथम भव में गुणसेन और अग्निशर्मा की कथा कही गई है । अग्निशर्मा अपने बाल्यावस्था के संस्कार और हीनत्व की भावना के कारण हो गुणसेन द्वारा पारण के दिन भूल जाने के कारण उसके ऊपर क्रुद्ध हो जाता है और जन्म-जन्मांतर तक बदला लेने की भावना लेकर मृत्यु को प्राप्त होता है। परिणामतः एक अपने पूर्वभवों के पापो का पश्चात्ताप, क्षमा, मैत्री आदि भावनाओं द्वारा उत्तरोत्तर विकास करता है और अंत में परमज्ञानी और मुक्त हो जाता है तो दूसरा प्रतिशोध की भावना लिए संसार में बुरी तरह फंसा रहता है। इसी मुख्य विषय का आचार्य हरिभद्र ने विविध रूपों में पल्लवन किया है। उसके परिपार्श्व में पनपने वाले, पलने वाले कलुषित कर्मों का भयावह चित्र उपस्थित किया है और उनसे बचने का मार्ग भी। इस प्रकार सद्-असद् हेय-उपादेय का ज्ञान करानेवाली, संसार और मोक्ष का विवेचन करने वाली समराइच्कहा धर्मकथा के रूप में अद्वितीय कही गई है।
ग्रंथ के प्रारंभ में लेखक ने धर्म का निरूपण किया है"----धर्म से उत्तम कुल में जन्म मिलता है, दिव्य सुन्दर रूप प्राप्त होता है। धन-वैभव तथा विस्तृत व्यापक यश मिलता है । इतना ही नहीं 'धम्मो मंगलम उलं ओसहमउलं च सव्वदुक्खाणं'--धर्म अनुपम मंगल है, सब दुःखों के लिए वह अतुल्य औषध है, वह विपुल विशाल बल है, त्राण तथा शरण है । समस्त प्राणिलोक में मन एवं इन्द्रियों को जो प्रिय लगनेवाला है, वह सब धर्म है। धर्म स्वर्ग प्राप्त कराता है तदनन्तर उत्तम मनुष्य योनि उससे मिलती है और अंततः वह शीघ्र ही मोक्ष की प्राप्ति करता है। यों प्रारंभ में धर्म के गुणों की प्रतीति करा धर्म के अनुरागी जिन्हें जन्म, बुढ़ापा तथा मृत्यु संबंधी चिंतन के कारण वैराग्य उत्पन्न हो गया है, पाप के लेप से जो प्रायः छूट चुके हैं, कामभोग से जिन्हें विरक्ति हो गई है, जो जन्मान्तर में भी अपना कुशल कल्याण सोचते हैं तथा जो जीवन लक्ष्य सिद्धि के निकटवर्ती हैं, ऐसे सात्विक कोटि के व्यक्तियों को धर्मकथा का अधिकारी बताया है-'ते सत्तिया उत्तिम पुरिसा.. धम्मकहा चेव अणुसज्जन्ति ।"
. समराइच्चकहा में प्रतिशोध की भावना विभिन्न रूपों में व्यक्त हुई है। अग्निशर्मा ने निदान किया था कि गुणसेन से अगले भवों में बदला लूंगा।
खण्ड १९, अंक ३
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