Book Title: Tulsi Prajna 1993 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 33
________________ और संस्कार ये नौ गुण आत्मा में समवाय सम्बन्ध से रहते हैं। अतः मोक्ष में इनका सद्भाव सम्भव नहीं । उनके अनुसार मोक्ष का अभिप्राय है 'तदभावे संयोगाभावोऽ प्रादुर्भावश्च मोक्षः । अर्थात् शरीरधारक मन, कर्म आदि का अभाव होने से शरीर का संयोगाभाव एवं नए शरीर का अनुत्पाद ही मोक्ष है। इसी का वर्णन करते हुए आचार्य मल्लिषेण कहते हैं तदेवं धीषणादीनां नवानामपि मूलतः गुणाना मात्मनो ध्वंसः सोऽपवर्ग:प्रतिष्ठितः ।। ननु तस्यामवस्थायां कीदशात्मा वशिष्यते । स्वरूपैक प्रतिष्ठानः, परित्यक्तो ऽखिलैर्गुणः ॥ सांख्य और योग दर्शन द्वैतवादी दर्शन हैं। उसके अनुसार सृष्टि के घटक तत्त्व दो हैं- प्रकृति और पुरूष । पुरूष जब प्रकृति को अपना मान लेता है तब उसमें पड़ने वाले सुखदुःखात्मक प्रतिबिम्बों के प्रति उसकी अहं बुद्धि हो जाती है तब प्रकृति उपरत हो जाती है और पूरूष अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित । यही मोक्ष है-'प्रकृतिपुरूषान्यत्व ख्याती प्रकृत्युपरमे पुरूषस्य स्वरूपेणावस्थानं मोक्षः।५ इसी को योग की भाषा में ऐसे कहा जा सकता हैं __ "पुरूषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तेरिति ।" अर्थात् पुरूषार्थ शून्य गुणों का पुनः उत्पन्न न होना (सांसरिक सुखदुखों का आत्यन्तिक उच्छेद) और स्वरूप में प्रतिष्ठित होना ही मोक्ष है । इस विवेकख्याति का अधिष्ठान स्वयं प्रकृति है क्योंकि पुरूष तो नित्य शुद्ध,कूटस्थ एवं पुष्करपलाशवत् निर्लेप है। इसीलिए ईश्वर कृष्ण कहते हैं-'संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृति ।' मीमांसा दर्शन में स्वर्ग की चर्चा जितनी अधिक मात्रा में है मोक्ष उतना ही कम चचित रहा है। फिर भी कुछ वेदवाक्य 'सोऽश्नुते सर्वकामान् सह ब्रह्मणा विपश्चितः । -मोक्षविषयक माने जाते हैं। तदनुसार नित्य, निरतिशय सुखों की अभिव्यक्ति को ही मीमांसा सम्मत मोक्ष का स्वरूप कहा जा सकता है। 'नित्यनिरतिशयसुखाभिव्यक्तिर्मुक्तिः ।, वेदान्त अद्वैतवादी है अतः उसके अनुसार ब्रह्म ही सत्य है, जगत् मिथ्या है। वस्तुत: न जीव है न कर्म, न बन्ध है न मोक्ष। फिर भी अनादि अविद्या एवं अध्यास के कारण जीव स्वयं को ब्रह्म से भिन्न मानने लगता है अतः इस अज्ञान, अध्यास या भ्रमपूर्ण तादात्म्य का दूर होना ही मोक्ष है। मुक्तावस्था में आत्मा और ब्रह्म का भेद समाप्त हो जाता है। अद्वैत ब्रह्म ही १९२ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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