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'गोयमा ! निस्संगयाए, निरंगणयाए, गतिपरिणामेणं, बंधणछेदणयाए, निरिधणयाए पुव्वपओगेणं अकम्मस्स गती पण्णायति ।' जिस प्रकार सूखे हुए निश्छिद्र, निरुपहत, दर्भ कुश आदि से वेष्टित, तूंबे को आठ बार लिप्त कर, बार-बार सूखाकर जल में डाला जाए तो वह अपने भारीपन के कारण पृथ्वीतल तक पहुंच जाता है किन्तु उन लेपों के उतर जाने पर वह पुनः जल के ऊपर तैरते लगता है, वैसे ही अष्टविध कर्मलेप से मुक्त जीव संसारसमुद्र के ऊपरी तल पर पहुंच जाता है। किन्तु जैसे वह तूंबा जल से बाहर नहीं निकल पाता वैसे ही जीवलोक से बाहर अलोक में नहीं जाता। निस्संगता और नीरागता क्रमश: निलेपता और मोहराहित्य का प्रतीक है जीव के नाना गति रूप विकार के कारणभूत 'नोकर्म' का अभाव होने से वह वायुसम्बन्ध रहित दीपशिखा के समान ऊर्ध्वगमन करता है। बन्धन छेद के लिए भगवान ने विभिन्न फलियों-~-मटर, एरण्डफली आदि के दृष्टान्त दिए हैं। निरिन्धनता के लिए धुएं का तथा पूर्वप्रयोग के लिए कुम्भकार की चाक या धनुष से छूटे बाण का दृष्टान्त दिया गया है ।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मोक्ष यद्यपि भारतीय दर्शनों का बहचित विषय है पर व्यवस्थित एवं विस्तृत स्वरूप निरूपण की दृष्टि से जैन दर्शन का मोक्षवाद विलक्षण है यह कहना अत्युक्ति नहीं ।
सन्दर्भ १. सर्वदर्शनसंग्रह, वेदान्त दर्शन २. न्या० सूत्र ११११२२ ३. वैशेषिक सूत्र ५।२।१८ ४. स्याद्वादमनरी
६. योगसूत्र ४।३४ ७. सर्वदर्शनसंग्रह
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१०. तत्त्वार्थसूत्र १०।३ ११. " ११ १२. सुत्तनिपात २८१८ १३. गीता ३४।४, ४।३९ १४. औपपातिक सूत्र १९५।१४ १५. स्यादवाद मंजरी १६. बृहदारण्यक उपनिषद् ३।८।८
तुलसी प्रज्ञा
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