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न नामकर्म तो उसकी अवगाहना (परिमाण) रहे या न रहे, रहे तो कितनी रहे क्योंकि अवगाहना--अवगाहन्ते यस्यां प्राणिनः साऽवगाहना तनुरितिका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ होता ह शरीर । अवगाहना विषयक प्रश्न को समाहित करते हुए उत्तराध्ययन में कहा गया है ----
उस्सेहो जस्स जो होइ भवम्मि चरमम्मि उ ।
तिभागहीणा तत्तो य सिद्धाणोगाहणा भवे ॥"
प्रश्न हो सकता है कि शरीररहित हो जाने पर आत्मा की अवगाहना त्रिभागहीन (3) क्यों हो जाती है ? वह सारे लोकाकाश में फैल क्यों नहीं जाता ? समाधान की भाषा में कहा जा सकता है कि यद्यपि आत्मा हमारे शरीर की सहविस्तारी है, तथापि शरीर में जहां पोला भाग है, रिक्तस्थान है वहां आत्मा नहीं होती अतः मुक्तावस्था में वह भाग कम हो जाता है। आत्मा सम्पूर्ण लोकाकाश में नहीं फैलता क्योंकि विसर्पण का कारण होता है नामकर्म और उसका वहां अभाव है-नामकर्मसम्बन्धात् संहरण विसर्पण धर्मत्वं प्रदीपप्रकाशवत् । सिद्ध होने वाले जीवों की उत्कृष्ट अवगाहना ५०० धनुष्य और जघन्य अवगाहना २ हाथ होती है अत: सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना८३३३ धनुष्य, एक हाथ, आठ अंगुल तथा जघन्य अवगाहना एक रत्नी (मुडा हाथ) और आठ अंगुल होती है। अनन्त सिद्ध हैं और प्रत्येक की अपनी अवगाहना भी है तथापि वे एक दूसरे से प्रतिहत नहीं होते जैसे एक ही दीपक जिस कक्ष को प्रकाशित करता है उसी कक्ष में सैकड़ों दीपकों का प्रकाश भी व्याप्त हो सकता है।
स्थान
मुक्त आत्माओं के स्थान के विषय में चिन्तन करने से पूर्व उनके परिमाण के विषय में विमर्श करना जरूरी है क्योंकि जो न्याय, वैशेषिक सांख्य और अद्वैत वेदान्त आदि दर्शन आत्मा को विभु या सर्वव्यापक मानते हैं उनके लिए इस चर्चा का कोई अवकाश नहीं । अणु आत्मवादियों में भी मुक्तात्माओं के निवास स्थान की चर्चा की गई है--ऐसा ज्ञात नहीं। जैन दर्शन मुक्तात्माओं के लिए एक मुक्तालय, सिद्धालय या सिद्धक्षेत्र की व्यवस्था की है-ईषतप्राग्भारा पृथ्वी तन्निवास: ।° मुक्त जीवों का निवास स्थान ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी है। इसका अपरनाम सीता है। औपपातिक सूत्र में इसके ईषत्, ईषत्प्राग्भारा, तनू, तनतन् आदि बारह नाम भी आए हैं ।
जैनेतर दर्शनों में मुक्ति के लिए बैकुण्ठधाम, विष्णुलोक, गोलोक आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है पर वह कहां अवस्थित है ? उसकी क्षेत्रपरिधि क्या है आदि के विषय में उनमें कुछ विमर्श हुआ हो-ऐसा प्रतीत नहीं होता जबकि जैन दर्शन में इसका सविस्तार वर्णन मिलता है।
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तुलसी प्रज्ञा
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