Book Title: Tulsi Prajna 1993 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 40
________________ जैन दर्शन के अनुसार लोक के अधोभाग में नरकादि, मध्य में मनुष्यतिर्यंच आदि तथा ऊर्ध्व भाग में देवों का निवास स्थान हैं। उनमें सबसे ऊपर सर्वार्थसिद्धि नामक अनुत्तर विमान है । उस देवलोक की स्तूपिका के अग्रभाग से बारह योजन की दूरी पर सिद्धशिला है जिसकी लम्बाई चौड़ाई ४५ लाख योजन और परिधि का घरा ८२३०२०० योजन से कुछ अधिक है । इसकी मोटाई मध्य में आठ योजन है और आगे यह हीन होती हुई मक्षिका के पंख से भी पतली हो जाती है । इसका वर्ण श्वेत स्वर्णमय है । यह स्वच्छ, श्लक्ष्ण, मसृण, नीरज और निष्पंक है। उससे एक योजन ऊपर लोकान्त है । उस योजन के छठे भाग में अनगिनत सिद्धात्माएं एक ही प्रदेश में निर्बाध रूप से रहती हैं जैसे सूई की नोक पर टिके लक्षपात अर्क की एक बिंदु में लाखों औषधियां । इसका बहुत ही अच्छा विवेचन हुआ है। 52 २ लोकाग्र में प्रतिष्ठित यही एक ऐसा स्थान है जहां न जन्म है, न मृत्यु, न जरा है, न रोग या शोक । इसीलिए इसे निर्वाण, अव्याबाध क्षेम, शिव आदि नामों से पुकारते हैं। आवश्यक सूत्र के प्रणिपात सूत्र में इसे 'सिवमयलमरुममणं तमब्बाबाहमपुणरवित्ति सिद्धिगई' कहकर सम्बोधित किया है क्योंकि यह बाधा, पीड़ा एवं दुःख से रहित होने से शिव, स्वाभाविक और प्रायोगिक चंचलताओं से मुक्त, द्रव्य और भाव सब रोगों से मुक्त, अविनश्वर, अक्षय अव्याबाध और अपुनर्भवी है । गति मुक्त जीव अशरीर हैं, कर्ममलरहित हैं तो उनकी गति क्यों होती है ? वह जहां शरीर त्याग करता है वहीं अवस्थित क्यों नहीं हो जाता ? यदि गति करता है तो ऊपर ही क्यों जाता है ? ऊपर जाता है तो लोकाग्र में अटक क्यों जाता है ? वह अलोक में क्यों नहीं जाता ? ३४ अलोक में न जाने के पीछे क्या कारण है ? इत्यादि प्रश्नों का समाधान देते हुए जैनदर्शन का कहना है कि जीव स्वभावतः ऊर्ध्वगति है । कर्मों के संयोग से वह कभी अधः कभी ऊर्ध्व तो कभी तिर्यग्गति करता है किन्तु ढेले, वायु आदि के समान वह स्वतः अधोया तिर्यग्गति नहीं । इसलिए जब वह कर्ममुक्त हो जाता है तो अधोया तिर्यग्गति नहीं करता । अलोकाकाश में धर्मास्तिकाय का अभाव होने से वहां भी नहीं जा सकता और अधर्मास्तिकाय के अभाव में वहां ठहर भी नहीं सकता अतः वह शरीर त्याग करते ही लोकान्त में पहुंच जाता है। मुक्त जीव धुएं के निर्लेप और मुच्यमान एरण्ड की फली के समान ऊर्ध्वगति करते हैं । भगवान् ने अकर्मा की गति के कहा एक समय वाली ऋजुगति से खण्ड १९, अंक ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only समान हल्के, तूंबे के समान बन्धनरहित होने के कारण हेतुओं का वर्णन करते हुए १९९ www.jainelibrary.org

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