Book Title: Tulsi Prajna 1993 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 45
________________ १४ उत्तराध्ययन के 'मियापुत्तिज्ज' अध्ययन में मां अपने पुत्र को पांच महाव्रतों के साथ रात्रिभोजन विरति की दुष्करता बताती है । ४ तथा 'नवमग्गगई' अध्ययन में प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह और रात्रिभोजन से विरत जीव को अनाश्रव कहा गया है। किंतु जहां कुमार श्रमण केशी और गौतम का संवाद हुआ है, वहां अर्हत् पार्श्व के चातुर्याम धर्म और श्रमण महावीर के पंचशिक्षात्मक धर्म का ही उल्लेख है । " नंदी" और आवश्यक सूत्र में भी केवल पांच महाव्रत प्रज्ञप्त हैं । आचार्य भद्रबाहु का भी यही प्रतिपाद्य है । १३ आचार्य वट्टकेर ने मूलाचार में रात्रिभोजन विरति ( एक भुक्त) को मूलगुण माना है ।" इसी ग्रन्थ की २९५ वीं गाथा में इसे पांच महाव्रतों की रक्षा का हेतु बताते हुए उत्तरगुणों में और गाथा ३३७ में अहिंसा महाव्रत की भावना में शामिल किया गया है । २१ चारित्रपाहुड" तत्त्वार्थं सूत्र तथा सर्वार्थसिद्धि में भी यह अहिंसा महाव्रत की भावना के अन्तर्गत है । भाष्यकार जिनभद्रगणी ने एक स्थान पर पांच महाव्रतों को तथा दूसरे स्थान पर छह व्रतों को मूलगुण माना है तथा श्रावक के लिए इसे उत्तरगुण कहा है। २३ इस संदर्भ में चूर्णिकार अगस्त्य सिंह स्थविर ने अपना मंतव्य स्पष्ट करते हुए लिखा है—' रात्रिभोजन विरति वस्तुतः उत्तरगुण ही है पर यह सब मूलगुणों की रक्षा का हेतु है, इसलिए इसका मूलगुणों के साथ प्रतिपादन हुआ है ।" अर्हत् ऋषभ और महावीर के शासनकाल में ऋजुजड़ तथा वक्रजड़ मुनियों की अपेक्षा यह मूलगुण है । मध्यम बाईस अर्हतों के शासनकाल में ऋजुप्रज्ञ मुनियों की अपेक्षा यह उत्तर गुण है— चूर्णिकार जिनदासगणी और वृत्तिकार हरिभद्र ने यह विमर्श प्रस्तुत किया है। २५ सोमतिलकसूर ने इसी तथ्य की पुष्टि की हैमूलगुणेसु उ दुण्ह सेसाणुत्तरगुणेसु निसिमुत्तं ॥ २६ अकलंक ने लिखा है -रात्रिभोजन विरमण को स्वतंत्र रूप से छठा व्रत मानने की अपेक्षा नहीं हैं, अहिंसा व्रत की भावना में ही इसका अंतर्भाव हो जाता है । २७ आचार्य अमृतचन्द्र ने रात्रिभोजन का हिंसा में अन्तर्भाव किया है-'रात्रिभोजन में हिंसा अनिवार्य है । जो रात्रिभोजन का त्याग करता है, वह निरन्तर अहिंसा का पालन करता है । " चारित्रसार और आचारसार में छठे अणुव्रत तथा श्रावक की छठी प्रतिमा के रूप में इसका उल्लेख हुआ है । 28 श्री मज्जयाचार्य ने अन्तिम आराधना के समय पांच महाव्रतों के पश्चात् छठे रात्रिभोजन विरमण व्रत के उच्चारण का निर्देश दिया है 138 निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि अर्हत् पार्श्व ने चातुर्याम तुलसी प्रज्ञा २०४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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