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प्रतीत होता है।
. बोद्ध दर्शन जैन दर्शन के समान श्रमणदर्शन है। कर्म, पुनर्जन्म और परिनिर्वाण में उसका विश्वास है । क्षणिकवादी होने के नाते वह आत्मा को क्षणिक विज्ञान एवं दुःख हेतु मानता है अत: उसके अनुसार शरीर के समान अात्मा भी उच्छेद्य है। माध्यमिक बौद्धों के अनुसार 'आत्मोच्छेदो मोक्षः" और विज्ञानवादियों के अनुसार 'धमिनिपृन्ती निर्मल ज्ञानोदयो महोदयः ---मोक्ष स्वरूप है ।
मोक्ष के लिए बौद्ध वाङमय में निर्वाण शब्द का अधिक प्रचलन है जिसका अभिप्राय हैं --बुझ जाना, पुनर्जन्म के रास्ते को छोड़ देना, सभी दुःखों के निदानभूत कर्मसंस्कारों से मुक्ति, पांच स्कन्धों एवं तीन अग्नियोंकाम द्वेष और अज्ञान से छुटकारा । मूलतः भगवान् बुद्ध नैतिक समस्याओं के विषय में इतने सजग थे कि संसार की तात्त्विक समस्याओं, बन्ध और निर्वाण के विषय में वे प्रायः मौन रहे।
जैन दर्शन का मोक्षवाद इन सबसे विलक्षण है वह न आत्मा की पूर्ण स्वन्त्रता में विश्वास करता है और न ईश्वर के कर्तत्व में । न एकान्त द्वैतवादी है और न सर्वथा अद्वैत का प्रतिपादन कर जगत को मिथ्याख्यापभास बताता है । उसके अनुसार सारा जगत मुख्यतः दो खेमों में बंटा है- जीव और अजीव । जीव अनादि काल से संसरण कर रहा है और तब तक करता रहेगा जब तक वह कर्म पुदगलों के चंगुल से सर्वथा मुक्त नही हो जाता। जैनदर्शन का जीव स्वभावतः शुद्ध, अनन्त चतुष्टय का स्वामी, अपने कर्मों का कर्ता और भोक्ता है । ऊर्ध्वगमन उसका स्वभाव है । संसारी अवस्था में वह जिस शरीर में रहता है उसका सहविस्तारी बन जाता है। कर्म केवल मानसिक या शारीरिक क्रियाएं नहीं, वस्तुगत सत्ताएं हैं। अत: मुक्तावस्था में भावजगत् और वस्तुजगत् दोनों में परिवर्तन होता है। वह अपने पुरूषार्थ के द्वारा पूर्वकृत कर्मों का निर्जरण एवं भावाश्रवों का संवरण करता हुआ सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, निरन्तराय बन जाता है, जन्म मरण के चक्र से सर्वथा मुक्त हो अपुनर्भवी हो जाता है। मोक्ष का स्वरूप बताते हुए आचार्य उमास्वाति कहते
"कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः।१०
प्रश्न हो सकता है कि जब आत्मा स्वभावतः शुद्ध है तो वह बन्धन में कैसे पड़ता है। जैनदर्शन के अनुसार बन्धन का कारण है मिथ्यादर्शन, मिथ्या ज्ञान और मिथ्या चारित्र । इसके विपरीत सम्यक् श्रद्धान ज्ञान और अचरण ही मोक्ष का मार्ग है----सम्यक् दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः।"
खण्ड १९, अंक ३
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