Book Title: Tulsi Prajna 1993 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 11
________________ और सम्बोधिलाभ के होते ही वह कृतकृत्य हो जाता है तथा जन्म, जरा और मरणरूप भावचक्र से सदैव के लिए छूट जाता है। जैन वाङमय में अरहन्त के लिए अरिहन्त, अरह, अरहो, अरुह तथा अरुहन्त आदि शब्दों का प्रयोग भी मिलता है। आत्मकल्याण में निरत भव्य साधक तप-साधना के द्वारा गुणघातक-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्त राय इन चार घातिया कर्मों का विप्रणाश करता है और आध्यात्मिक विकास के तेरहवें गुणस्थान में आते ही कैवल्य को धारण करता है। कैवल्य और सर्वज्ञत्व यहां एकार्थक हैं। इसी को योगकेवली भी कहा जाता है। - वीतरागी तीर्थंकर देव जैनों के अनुसार २४ माने गए हैं जो अनन्तज्ञान-दर्शन-चारित्र एवं वीर्यरूप अनन्तचतुष्टय, अशोक वृक्ष आदि अष्टमहाप्रातिहार्य तथा नौतीस अतिशय । इस प्रकार छियालीस गुणों से सम्पन्न होते हैं । इन्द्रादि देवों के द्वारा इनके पंचकल्याणक महोत्सव मनाए जाते हैं। तीर्थंकर के लिए इन्द्र समवसरण की भी रचना करता है। इस समवसरण में सम्पूर्ण जगत् के चराचर प्राणी अरहन्त तीर्थकर के दिव्यध्वनि रूप सद्धर्मामृत का पान करते हैं। ___अरहन्त केवली के योग का अभाव होते ही अयोगकेवली अवस्था प्रगट हो जाती है। इस निराकार अवस्था को सिद्ध कहा जाता है। सिद्ध अष्टकर्मरूपी ईंधन को जलाकर भस्म करने वाले होते हैं। वे क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक ज्ञान से सम्पन्न परमेष्ठी समस्त पापकर्मों से विरहित होते हैं । ये शिव, अचल, अरुज, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध रूप सिद्ध अनन्तचतुष्टय से ओत-प्रोत रहते हुए लोक के अग्रभाग 'सिद्धशिला' पर स्थित रहते हैं। ऐसे इन सिद्धों को अरहन्त भी नमन करते हैं। अतः सर्वपूज्य तो सिद्ध होते ही हैं किन्तु भव्य जीवों के लिए मोक्षमार्ग प्रदर्शक होने से अरहन्त को ही प्रधानता दी गई है। जैन दर्शन की मान्यतानुसार पृथ्वी लोक पर अवसर्पिणी का पंचमकाल दुप्पमा चल रहा है और अरहन्त इससे पूर्व दुष्षमा-सुषमा नामक चतुर्थकाल में ही होते हैं । वर्तमान में अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी का तीर्थकाल चल रहा है और श्रमण संघ ही उनका प्रतिनिधित्व कर रहा है। जैन श्रमण संघ के अधिपति आचार्य, गुरु उपाध्याय और साधु-ये तीन प्रमुख अंग हैं । साधु हो तप, साधना और ज्ञान में अध्यात्म विकास कर क्रमश: उपाध्याय और आचार्य बनते हैं। __ आचार्य व उपाध्याय दोनों ही प्रतिष्ठित पद हैं । आचार्य बत्तीस गुणों से और उपाध्याय पच्चीस गुणों से सम्पन्न होते हैं। धर्मगुरु आचार्य वर्तमान में तीर्थकर तुल्य होते हैं। धर्म की मर्यादा बनाए रखना उनका प्रमुख कार्य १७० तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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