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सर्वैरङ्गः सपदि युगपन्नीरवं स्तब्धताऽऽप्ता,
वाहोऽश्रूणामविरलमभूत् केवलं जीवनाङ्कः ॥१८
७. आशावाद-गीति-काव्य का कवि पूर्णतया आशावादी होता है । घोर विपत्ति में भी वह आशा-दीपक को थामकर जीवित रहता है, संसार को जीवित रहने की सीख भी देता है । आशा-वादिता की चिरन्तन चिनगारी विरहियों एवं विवद्ग्रस्तों की सहारा होती है और उन्हें अपने गन्तव्य तक पहुंचा देती है। वह चिनगारी स्वयं में प्रदीप्त होती है, बाह्यजगत् में उसका कोई सहारा नहीं होता । मेघदूत का 'नन्वात्मानं वहुविगणयन्' द्रष्टव्य है । अश्रुवीणा की चन्दना जब टूट गयी थी, उसे आश्वासन देने वाला कोई दूसरा न मिला। फिर अपनी कार्य-सिद्धि के लिए उसमें जोश उमड़ा और वह उसके लिए पूर्णतया प्रतिबद्ध हो गयी
मूर्छा प्राप्य क्षणमिह पुनर्लब्धचित्तोदयेव, दिक्षु भ्रान्ता दशसु करुणं साशयं सा निदध्यौ । नाश्वासाय व्यथितहृदया प्राप्तकञ्चिद द्वितीयं,
सद्यः सिद्धय स्फुरित जवनाऽऽमन्न्य वाष्पावुवाच ।।"
८. प्रभु या प्रियतम में चित्त की प्रतिष्ठापना-चित्त की एक संस्थान संस्थापना, गीतिकरण का प्रमुख तत्व होता है। जब तक कवि सर्वात्मना अपने प्रिय के चरणों में प्रतिष्ठित नहीं हो जाता तब तक गीतिकाव्य का प्रादुर्भाव नहीं होता । प्रियतम के साथ अखण्ड-चरण-चञ्चरीकता गीति-काव्य का आधार है। जब इन्द्रिय वृत्तियां संसार से उपरत होकर प्रभुमय बन जाती हैं, तब गीति-काव्य का प्रादुर्भाव होता है। सती-चंदना सर्वात्मना उसी के चरणों में अपने आप को स्थापित कर धन्य हो गयी । तभी तो अश्रुवीणा झंकृत हुई।
९. वेदनापूर्ण सिसकियां--ये गीति-काव्य में उद्भावन में समर्थ होती हैं। सिसकियों में, रूदन में, समस्त वातावरण को झकझोर देने की शक्ति होती है । यक्ष के अरण्य-रूदन से सम्पूर्ण रामगिरि पर्वत रो रहा है । करुणा हो वन देवियां भी आंसूगिरा रही हैं
मामाकाश प्रणिहित भुजं निर्दयाश्लेषहेतोः
मुक्ता स्थूलास्तरुकिसलयेष्वश्रुलेशाः पतन्ति ॥२०
पार्वती का रुदन इतना विस्फारण और विकास को प्राप्त हो चुका है कि सम्पूर्ण जड़-चेतन प्राणी शिव-शिव करने लगे। सब कुछ शिव-मय बन गया
उपात्तवर्णे चरिते पिनाकिनः सवाष्पकण्ठस्खलित: पदैरियम् । अनेकशः किन्नरराजकन्यका वनान्तसङ्गीतसवीररोदयत् ॥२१
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तुलसी प्रज्ञा
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