Book Title: Tulsi Prajna 1993 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 26
________________ अन्धा श्रद्धा स्पृशति च दृशं तर्क एषाऽनता धीः, श्रद्धाकाञ्चिद् भजति मृदुतां कर्कशत्वञ्च तर्कः । श्रद्धा साक्षात् जगति मनुते कल्पितामिष्टमूति, तर्क: साक्षात् प्रियमपिजनं दीक्षते संदिहानः ।। -~-(द्रष्टव्य 'अश्रुवीणा में बिम्ब योजना) १३. छन्दोजन्य माधुर्य-गीति-काव्य के लिए छंद-बद्धता आवश्यक मानी गयी है । 'चादयति आह्लादयतीति छंद' कर्थात् जो आह्लादित करे, उसे छंद कहते हैं । मधुरिम-छंदों में ही गीति-लताएं लहलहाती हैं। मन्दाक्रान्ता, शिखरिणी, इन्दिरा आदि छन्द गीति-काव्य के लिए उपयुक्त माने गए हैं। विश्ववन्ध कवि कालिदास का मेघदूत मन्दाक्रान्ता छन्द में निबद्ध है। विवेच्य काव्य-ग्रन्थ का छंद भी मन्दाक्रान्ता ही है, जिसका लक्षण इस प्रकार मन्दाक्रान्ताऽम्बुधिरसनगर्मो भनौ तौ ग युग्मम ।२ अर्थात् जिसके प्रत्येक चरण में मगण, भगण, तगण, नगण और अन्त में दो गुरु वर्ण होते हैं । चार, छः एवं सात वर्णों पर यति होती है । भावों की मञ्जुलता और कल्पना की कमनीयता आदि के लिए मन्दाक्रान्ता को सबसे अधिक उपयुक्त माना जाता है । अश्रुवीणा में भक्ति, श्रद्धा, समर्पण आदि भावों के चित्रण में मन्दाक्रान्ता का सफल प्रयोग हुआ है। उदाहरण द्रष्टव्य है--जिनकी आंखें पवित्र आंसू से प्रक्षालित हो गयी है उन्हीं की अन्तःकरण की सहज वृत्तियां दूसरे को जगा सकती हैं.... चक्षुर्युग्मं भवति सुभगः क्षालितं यस्य वाष्पैः, तस्यैवान्तःकरणसहजा वृत्तयः प्रेरयेयुः । पल्याः कोष्णः श्वसनपवनरश्रुधाराभिषिक्तै र्धन्येनाऽहो भवजलनिधेर्दुस्तरं वारितीर्णम् ॥ १४. काव्य गुणों का साम्राज्य-काव्य की आत्मा रस है और गुण आत्मभूतरस के उत्कर्षाधायक होते हैं। जैसे शौर्यादि गुण आत्म-शोभासंवर्द्धक होते हैं उसी प्रकार काव्य-गुण रस रूपी आत्मा के विकास में सहायक होते हैं 'उत्कर्ष हेतवस्ते स्यु रचलस्थितयो गुणाः ।" माधुर्य, ओज और प्रसाद तीन गुण प्रमुख हैं । ३५ रसाभिभूत सामाजिकों के चित्त की तीन अवस्थाएं होती हैं - द्रुति, विस्तार और विकास । द्रुति, विस्तार और विकास में क्रमश: माधुर्य, ओज और प्रसाद की स्थिति मानी जाती है। दुति-शृंगार, करुण और शान्तरस में 'द्रुति' चित्तावस्था को स्वीकार किया गया है। अश्रु वीणा में शान्तरस की प्रधानता है । भक्ति आद्योपान्त कलित है अतएव माधुर्यगुण की छटा स्वतः विद्यमान है। सामने आकर भी चन्दना के हृदयेश लौट गए। उसका आशा-महल ढह गया। वह खंड १९ अंक ३ १८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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