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जैन दर्शन में पंच परमेष्ठी का स्वरूप
- जग महेन्द्रसिंह राणा
आत्मा को आच्छादित करने वाले अष्टकर्मों में प्रबल एवं गुणघातक मोह ही सर्वप्रधान है। इसका प्रहाण करने के लिए ही जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी-अपहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं सर्व साधु के स्वरूप का स्मरण, चिन्तन एवं मनन करने पर अधिक बल दिया गया है। परमेष्ठी की शरण में जाने से, उनकी स्मृति एवं चिन्तन से रागद्वेष-प्रवृत्ति अवरुद्ध हो जाती है, पुरुषार्थ की वृद्धि होने लगती है और आत्मा में रत्नत्रयगुण-सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र आविर्भूत हो जाते हैं ।
परमेष्ठी की अर्चना-भक्ति किसी अन्य परमात्मा अथवा शक्ति विशेष की आराधना नहीं है, प्रत्युत् वह अपनी आत्मा की ही उपासना करना है । ज्ञानदर्शन में अखंड चैतन्य आत्मा के स्वरूप का अनुभव कर अपने अखंड साधक स्वभाव की उपलब्धि ही भव्य सत्य का परम लक्ष्य है।
परमेष्ठी के स्मरण एवं स्तवन में इतनी बड़ी शक्ति है कि इसके साक्षात्कार होते ही सम्यक्त्व और केवलज्ञान सहज ही उत्पन्न हो जाते हैं । निश्चयनय की अपेक्षा सम्यक्त्व और कैवल्य आत्मा में सदैव विद्यमान रहते हैं कारण कि ये आत्मा के स्वभाव हैं। परमेष्ठी उससे भिन्न नहीं हैं, स्वयं आत्मस्वरूप हैं। इस तरह आत्म कल्याण अथवा स्वयं परमेष्ठी बनने में स्वयमेव उपादान और निमित्त कारण हैं। विशद एवं विशुद्ध आत्मा परमात्मा, परमज्योति ही परमेष्ठी हैं ।
जैन दर्शन में अरहन्त की कल्पना प्राक्-वैदिक है। भव्य-जीव किसी जन्म में तीर्थंकर बनने का प्रणिधान करता है और वही साधना के चरमोत्कर्ष पर पहुंच कर भविष्य में अरहन्त तीर्थंकर बन जाता है। जिन, केवली और सर्वज्ञ भी यही कहलाता है।
बौद्ध दर्शन में भी अरहन्त का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यहां अर्हत्व और निर्वाण में कोई भेद नहीं है।' बौद्धों के अनुसार रागद्वेष एवं मोह मादि के क्षीण हो जाने पर अर्हत्व की उपलब्धि होती है । अर्हत्वलाभ ही प्राणिमात्र का लक्ष्य है। यह प्रारम्भिक बौद्धानुयायी स्थविरों की मान्यता है किन्तु महायान दर्शन में बोधिसत्व सम्यग्सम्बोधि प्राप्त करने का प्रणिधान करता है
खण्ड १९, अंक ३
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