Book Title: Tulsi Prajna 1993 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 18
________________ अश्रवीणा का गीतिकाव्यत्व Oरायअश्विनी कुमार D हरिशंकर पाण्डेय 'समत्व के सौम्य-सरोवर से निःसृत गांगेय धारा का नाम है-- गीतिकाव्य । विरह, वेदना, भक्ति या श्रद्धा से जब वैयक्तिक स्थिति व्यक्तिगत न रहकर सांसारिक हो जाती है तब कहीं 'ललित-लवंग-लता-परिशीलनकोमल-मलय-शरीरे", रूप गीत-लहरियां लुलित होने लगती हैं। जहां स्वकीयत्व-परकीयत्व का सर्वथा अभाव हो जाता है, जहां 'क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैति', ही शेष रहता है, वही स्थान गीतोदय के लिए उपयुक्त माना जाता है। चाहे विरह-विदग्धा-भागवती गोपियों की गीत-सरणि हो या भक्त कवि जयदेव की मनोमय-स्वर-लहरियां या विरही यक्ष के कारुणिक-उद्गार हों या अश्र वीणा की चन्दना का श्रद्धा-संचार, सबके सब दर्द की आह से ही निःसृत हुए हैं । आशाबल्लरी जब सूखती नजर आती है, सामने से ही उसका जन्म-जन्मान्तरीय काम्य तिरोहित हो जाता है, तब कहीं उस अक्षत-यौवना गीताङ्गना का धरा पर अवतरण होता है । तब रूप राम का स्थान ले लेता है । काम का ग्राम शील का धाम बन जाता है । गीति-काव्य का रचयिता भी कोई सामान्य नहीं होता । जिसने हृदयनगर को देख लिया है, जिसके नेत्र हमेशा अपने प्रियतम के दर्शन के लिए लालायित रहते हैं, जो प्रेमी के लिए, आहें भरते-भरते 'हरिमवलोकय सफलय-नयने' को गुजारित कर सम्पूर्ण संसार को हरिमय किंवा आत्ममय बना देता है । उसी की अंगुलियों में गीति-वीणा के तार को झकृत करने की शक्ति होती हैं। जिसने दर्द की आहें नहीं भरी, जहां करुणा के आंसू तरंगायित नहीं हुए, वह जीवन सुख से वंचित ही माना जाएगा। ____ लोक एवं शास्त्र में जो सार्वजनीन विभूति के रूप में अधिष्ठित हो चका है, व्यास की तरह गोपीगीत का, कालिदास की तरह मेघदूत का और जयदेव की तरह गीत गोविन्द की विरचना कर सकता है। विवेच्य गीतिकाव्य 'अश्र वीणा' का कवि भी इसी समरसता के धरातल पर अधिष्ठित है। महाप्रज्ञ के सार्थक अभिधान से विभूषित इस श्रमण कवि ने अवश्य ही अपनी खण्ड १९ अंक ३ १७७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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