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धरातल से ही होता है । जब किसी प्रेमी या उपास्य के प्रति श्रद्धा की अतिरेकता हो जाती है, श्रद्धा के वशीभूत हो कवि संसार से अलग हटकर तन्मयत्व
स्थिति में चला जाता है, तब वह इतना विगलित होता है कि कभी वह श्रद्धा की परिभाषा देता है तो कभी श्रद्धा को ही सर्वस्व मान बैठता है:
श्रद्धे ! मुग्धान् प्रणयसि शिशून् दुग्धदिग्धास्य दन्तान् भद्रानज्ञान् वचसि निरतांस्तर्कवाणैरदिग्धान् । विज्ञांश्चापि व्यथितमनसस्तर्क लब्धावसादातर्केणामा न खलु विदितस्तेऽनवस्थानहेतुः ॥
ऐसा लगता है जैसे कोई महाकवि संसार को मनोविज्ञान की शिक्षा दे रहा है । यह तथ्य भी है कि सत्य, काव्य में सुन्दर का रूप धारण कर लेता है, जो अपने पूर्व रूप से अधिक रमणीय होता है। श्रद्धा आनन्द की माधवी स्फुरणी है, तो द्वैध - विलय का धाम भी है। वहां सम्पूर्ण विषमताएं मिलकर सरस हो जाती हैं, इसीलिए श्रद्धा का स्वाद सर्वश्रेष्ठ है । जिसने इसको नहीं चखा उसका जन्म ही वृथा है
सत्सम्पर्का दधति न पदं कर्कशा यत्र तर्का:, सर्वद्वैधं व्रजतिविलयं नाम विश्वासभूमी | सर्वे स्वादा: प्रकृतिसुलभा दुर्लभाश्चानुभूताः, श्रद्धा-स्वादो न खलु रसितो हारितं तेन जन्म ।।
श्रद्धा का पात्र कोई सामान्य नहीं हो सकता । गोपियों के श्रद्धा पात्र कृष्ण हैं जो सार्वभौम अधिपति के रूप में स्वीकृत हैं । कालिदास की श्रद्धास्पदा विधाता की आद्या सृष्टि है । युवाचार्य महाप्रज्ञ के श्रद्धापात्र भगवान् महावीर हैं। श्रद्धा का निवास भी महाप्रज्ञ जैसे विरल - साधक में ही होता है - श्रद्धापात्रं भवति विरलस्तेन कश्चित्तपस्वी ॥
२. आत्माभिव्यक्ति -- गीति काव्य का कवि अलग से कुछ नहीं कहता है । अपने जीवन की सुख-दुःख की अनुभूति, अपने विश्वास और उद्देश्य को ही गीत के रसमय स्वरों में अभिव्यक्त करता है । कहा जाता है कि कालिदास विरह की ज्वाला में जले थे । इसलिए उन्होंने यक्ष पर विरह-वेदना आरोपित कर मेघदूत की रचना की । व्यास भक्त थे इसलिए अपनी शब्दाञ्जलियाँ प्रभु श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित कर उन्हीं के हो गए । कवि महाप्रज्ञ भी इसी सरणि में प्रतिष्ठित हैं । इन्होंने भगवान् महावीर के चरणों में व्याप्त अपनी अविच्छिन्न आस्था, श्रद्धा और समर्पण को चन्दना के आँसुओं के माध्यम से व्यक्त किया । कवि बार-बार चन्दना के आंसुओं के व्याज से प्रभु चरणों में अपनी व्यथा-कथा को समर्पित करता दिखाई पड़ रहा । ऐसा लगता है कि विवेच्य कवि संसार के भंझावात से आहत हो चुका है । अनगिनत रथिकों के क्रूरकर्म से उसका हृदय विदीर्ण हो
खण्ड १९, अंक ३
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